Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम्
यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्त : परिज्ञातवस्तुस्वरूपः पर-

प्रयोजनेभ्यो व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलम्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तुत्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्सञ्चेतयते स खलु नितान्तनिस्स्नेहः प्रहीणस्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फ टिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति [ आत्मार्थप्रसाधकः हि ] खरेखर आत्मार्थनो प्रसाधक (स्वप्रयोजननो प्रकृष्ट साधक) वर्ततो थको, [ आत्मानम् ज्ञात्वा ] आत्माने जाणीने (अनुभवीने) [ ज्ञानं नियतं ध्यायति ] ज्ञानने निश्चळपणे ध्यावे छे, [ सः ] ते [ कर्मरजः ] कर्मरजने [ संधुनोति ] खेरवी नाखे छे.

टीकाःआ, निर्जराना मुख्य कारणनुं कथन छे.

संवरथी अर्थात् शुभाशुभ परिणामना परम निरोधथी युक्त एवो जे जीव, वस्तुस्वरूपने (हेय-उपादेय तत्त्वने) बराबर जाणतो थको परप्रयोजनोथी जेनी बुद्धि व्यावृत्त थई छे अने केवळ स्वप्रयोजन साधवामां जेनुं मन उद्यत थयुं छे एवो वर्ततो थको, आत्माने स्वोपलब्धिथी उपलब्ध करीने (पोताने स्वानुभव वडे अनुभवीने), गुण-गुणीनो वस्तुपणे अभेद होवाथी ते ज ज्ञाननेस्वनेस्व वडे अविचळपरिणतिवाळो थईने संचेते छे, ते जीव खरेखर अत्यंत निःस्नेह वर्ततो थको जेने स्नेहना लेपनो संग प्रक्षीण थयो छे एवा शुद्ध स्फटिकना स्तंभनी माफक पूर्वोपार्जित कर्मरजने खेरवी नाखे छे. १. व्यावृत्त थवुं = निवर्तवुं; निवृत्त थवुं; पाछा वळवुं. २. मन = मति; बुद्धि; भाव; परिणाम. ३. उद्यत थवुं = तत्पर थवुं; लागवुं; उद्यमवंत थवुं; वळवुं; ढळवुं. ४. गुणी अने गुणमां वस्तु-अपेक्षाए अभेद छे तेथी आत्मा कहो के ज्ञान कहोबन्ने एक ज

छे. उपर जेने ‘आत्मा’शब्दथी कह्यो हतो तेने ज अहीं ‘ज्ञान’शब्दथी कहेल छे. ते ज्ञानमां
निजात्मामांनिजात्मा वडे निश्चळ परिणति करीने तेनुं संचेतनसंवेदनअनुभवन करवुं ते
ध्यान छे.

५. निःस्नेह = स्नेह रहित; मोहरागद्वेष रहित. ६. स्नेह = तेल; चीकणो पदार्थ; स्निग्धता; चीकाश.