Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२०
पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
निवेशयति, तदास्य निष्क्रियचैतन्यरूपस्वरूपविश्रान्तस्य वाङ्मनःकायानभावयतः
स्वकर्मस्वव्यापारयतः सकलशुभाशुभकर्मेन्धनदहनसमर्थत्वात् अग्निकल्पं परमपुरुषार्थ-
सिद्धयुपायभूतं ध्यानं जायते इति
तथा चोक्त म्‘‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा
अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति’’ ।। ‘‘अंतो
णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं
खयं कुणइ’’ ।।१४६।।
थता एवा ते उपयोगने अत्यंत शुद्ध आत्मामां ज निष्कंपपणे लीन करे छे, त्यारे ते
योगीने
के जे पोताना निष्क्रिय चैतन्यरूप स्वरूपमां विश्रांत छे, वचन-मन-कायाने
भावतो नथी अने स्वकर्मोमां व्यापार करतो नथी तेनेसकळ शुभाशुभ कर्मरूप
इंधनने बाळवामां समर्थ होवाथी अग्निसमान एवुं, परमपुरुषार्थसिद्धिना उपायभूत
ध्यान प्रगटे छे.
वळी कह्युं छे के
*‘अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहइ इंदत्तं
लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिव्वुदिं जंति ।।
‘अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा
तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणइ ।।

[अर्थःहमणां पण त्रिरत्नशुद्ध जीवो (आ काळे पण सम्यग्दर्शन- ज्ञानचारित्ररूप त्रण रत्नोथी शुद्ध एवा मुनिओ) आत्मानुं ध्यान करीने इन्द्रपणुं तथा लौकांतिक-देवपणुं पामे छे अने त्यांथी च्यवीने (मनुष्यभव पामी) निर्वाणने प्राप्त करे छे. १. भाववुं = चिंतववुं; ध्याववुं; अनुभववुं. २. व्यापार = प्रवृत्ति. [

स्वरूपविश्रांत योगीने पोतानां पूर्वोपार्जित कर्मोमां प्रवर्तन नथी, कारण के ते
मोहनीयकर्मना विपाकने पोताथी भिन्नअचेतनजाणे छे तेम ज ते कर्मविपाकने अनुरूप
परिणमनथी तेणे उपयोगने पाछो वाळ्यो छे.]

३. पुरुषार्थ = पुरुषनो अर्थ; पुरुषनुं प्रयोजन; आत्मानुं प्रयोजन; आत्मप्रयोजन. [परमपुरुषार्थ अर्थात

आत्मानुं परम प्रयोजन मोक्ष छे अने ते मोक्ष ध्यानथी सधाय छे, माटे परमपुरुषार्थनी (मोक्षनी)
सिद्धिनो उपाय ध्यान छे.]

*आ बे उद्धृत गाथाओमांनी पहेली गाथा श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत मोक्षप्राभृतनी छे.