Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
२०३
इति निर्जरापदार्थव्याख्यानं समाप्तम्

श्रुतिओनो अंत नथी (शास्त्रोनो पार नथी), काळ थोडो छे अने आपणे दुर्मेध छीए; माटे ते ज केवळ शीखवायोग्य छे के जे जरा-मरणनो क्षय करे.]

भावार्थःनिर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारमां निश्चळ परिणति ते ध्यान छे. आ ध्यान मोक्षना उपायरूप छे.

जेम थोडो पण अग्नि पुष्कळ घास अने काष्ठना राशिने अल्प काळमां बाळी नाखे छे, तेम मिथ्यात्व-कषायादि विभावना परित्यागस्वरूप महा पवनथी प्रज्वलित थयेलो अने अपूर्व-अद्भुत-परम-आह्लादात्मक सुखस्वरूप घीथी सिंचायेलो निश्चय-आत्मसंवेदनरूप ध्यानाग्नि मूलोत्तरप्रकृतिभेदवाळां कर्मरूपी इन्धनना राशिने क्षणमात्रमां बाळी नाखे छे.

आ पंचमकाळमां पण यथाशक्ति ध्यान थई शके छे. आ काळे जे विच्छेद छे ते शुक्लध्याननो छे, धर्मध्याननो नहि. आजे पण अहींथी जीवो धर्मध्यान करीने देवनो भव अने पछी मनुष्यनो भव पामी मोक्षने प्राप्त करे छे. वळी बहुश्रुतधरो ज ध्यान करी शके एम पण नथी; सारभूत अल्प श्रुतथी पण ध्यान थई शके छे. माटे मोक्षार्थीओए शुद्धात्मानो प्रतिपादक, संवरनिर्जरानो करनारो अने जरामरणनो हरनारो सारभूत उपदेश ग्रहीने ध्यान करवायोग्य छे.

[अहीं ए लक्षमां राखवायोग्य छे के उपरोक्त ध्याननुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन विना ध्यान होतुं नथी, कारण के निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारनी (शुद्धात्मानी) सम्यक् प्रतीति विना तेमां निश्चळ परिणति क्यांथी थई शके? माटे मोक्षना उपायभूत ध्यान करवा इच्छनार जीवे प्रथम तो जिनोक्त द्रव्यगुणपर्यायरूप वस्तुस्वरूपनी यथार्थ समजणपूर्वक निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारनी सम्यक् प्रतीतिनो सर्व प्रकारे उद्यम करवायोग्य छे; त्यारपछी ज ते चैतन्यचमत्कारमां विशेष लीनतानो यथार्थ उद्यम थई शके छे.] १४६.

आ रीते निर्जरापदार्थनुं व्याख्यान समाप्त थयुं. १. दुर्मेध = ओछी बुद्धिवाळा; मंदबुद्धि; ठोठ. २. मुनिने जे शुद्धात्मस्वरूपनुं निश्चळ उग्र आलंबन वर्ते तेने अहीं मुख्यपणे ‘ध्यान’ कह्युं छे.

(शुद्धात्मालंबननी उग्रताने मुख्य न करीए तो, अविरत सम्यग्द्रष्टिने पण ‘जघन्य ध्यान’ कहेवामां
विरोध नथी, कारण के तेने पण शुद्धात्मस्वरूपनुं जघन्य आलंबन तो होय छे.)