तेथी अहीं (बंधने विषे), बहिरंग कारण ( – निमित्त) योग छे कारण के ते पुद्गलोना ग्रहणनो हेतु छे, अने अंतरंग कारण ( – निमित्त) जीवभाव ज छे कारण के ते (कर्मपुद्गलोनी) विशिष्ट शक्ति अने स्थितिनो हेतु छे.
भावार्थः — कर्मबंधपर्यायना चार विशेषो छेः प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध अने अनुभागबंध. आमां स्थिति-अनुभाग ज अत्यंत मुख्य विशेषो छे, प्रकृति-प्रदेश तो अत्यंत गौण विशेषो छे; कारण के स्थिति-अनुभाग विना कर्मबंधपर्याय नाममात्र ज रहे. तेथी अहीं प्रकृति-प्रदेशबंधने मात्र ‘ग्रहण’ शब्दथी कहेल छे अने स्थिति- अनुभागबंधने ज ‘बंध’ शब्दथी कहेल छे.
जीवना कोई पण परिणाममां वर्ततो योग कर्मनां प्रकृति-प्रदेशनुं अर्थात् ‘ग्रहण’नुं निमित्त थाय छे अने जीवना ते ज परिणाममां वर्ततो मोहरागद्वेषभाव कर्मनां स्थिति – अनुभागनुं अर्थात् ‘बंध’नुं निमित्त थाय छे; माटे मोहरागद्वेषभावने ‘बंध’नुं अंतरंग कारण (अंतरंग निमित्त) कह्युं छे अने योगने — के जे ‘ग्रहण’नुं निमित्त छे तेने — ‘बंध’नुं बहिरंग कारण (बाह्य निमित्त) कह्युं छे. १४८.
अन्वयार्थः — [ चतुर्विकल्पः हेतुः ] (द्रव्यमिथ्यात्वादि) चार प्रकारना हेतुओ [ अष्टविकल्पस्य कारणम् ] आठ प्रकारनां कर्मोनां कारण [ भणितम् ] कहेवामां आव्या छे; [ तेषाम् अपि च ] तेमने पण [ रागादयः ] (जीवना) रागादिभावो कारण छे; [ तेषाम् अभावे ] रागादिभावोना अभावमां [ न बध्यन्ते ] जीवो बंधाता नथी.