पुण्यं पापं वा येन भावेनास्रवति यस्य जीवस्य यदि स भावो भवति स जीवस्तदा तेन परचरित इति प्ररूप्यते । ततः परचरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्ग एव, न मोक्षमार्ग इति ।।१५७।।
अन्वयार्थः — [ येन भावेन ] जे भावथी [ आत्मनः ] आत्माने [ पुण्यं पापं वा ] पुण्य अथवा पाप [ अथ आस्रवति ] आस्रवे छे, [ तेन ] ते भाव वडे [ सः ] ते (जीव) [ परचरित्रः भवति ] परचारित्र छे — [ इति ] एम [ जिनाः ] जिनो [ प्ररूपयन्ति ] प्ररूपे छे.
टीकाः — अहीं, परचारित्रप्रवृत्ति बंधहेतुभूत होवाथी तेने मोक्षमार्गपणानो निषेध करवामां आव्यो छे (अर्थात् परचारित्रमां प्रवर्तन बंधनो हेतु होवाथी ते मोक्षमार्ग नथी एम आ गाथामां दर्शाव्युं छे).
अहीं खरेखर शुभोपरक्त भाव ( – शुभरूप विकारी भाव) ते पुण्यास्रव छे अने अशुभोपरक्त भाव ( – अशुभरूप विकारी भाव) पापास्रव छे. त्यां, पुण्य अथवा पाप जे भावथी आस्रवे छे, ते भाव ज्यारे जे जीवने होय त्यारे ते जीव ते भाव वडे परचारित्र छे — एम (जिनेंद्रो द्वारा) प्ररूपवामां आवे छे. तेथी (एम नक्की थाय छे के) परचारित्रमां प्रवृत्ति ते बंधमार्ग ज छे, मोक्षमार्ग नथी. १५७.