Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 158.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
आस्रवति येन पुण्यं पापं वात्मनोऽथ भावेन
स तेन परचरित्रः भवतीति जिनाः प्ररूपयन्ति ।।१५७।।
परचरितप्रवृत्तेर्बन्धहेतुत्वेन मोक्षमार्गत्वनिषेधनमेतत
इह किल शुभोपरक्तो भावः पुण्यास्रवः, अशुभोपरक्तः पापास्रव इति तत्र

पुण्यं पापं वा येन भावेनास्रवति यस्य जीवस्य यदि स भावो भवति स जीवस्तदा तेन परचरित इति प्ररूप्यते ततः परचरितप्रवृत्तिर्बन्धमार्ग एव, न मोक्षमार्ग इति ।।१५७।।

जो सव्वसंगमुक्को णण्णमणो अप्पणं सहावेण
जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो ।।१५८।।

अन्वयार्थः[ येन भावेन ] जे भावथी [ आत्मनः ] आत्माने [ पुण्यं पापं वा ] पुण्य अथवा पाप [ अथ आस्रवति ] आस्रवे छे, [ तेन ] ते भाव वडे [ सः ] ते (जीव) [ परचरित्रः भवति ] परचारित्र छे[ इति ] एम [ जिनाः ] जिनो [ प्ररूपयन्ति ] प्ररूपे छे.

टीकाःअहीं, परचारित्रप्रवृत्ति बंधहेतुभूत होवाथी तेने मोक्षमार्गपणानो निषेध करवामां आव्यो छे (अर्थात् परचारित्रमां प्रवर्तन बंधनो हेतु होवाथी ते मोक्षमार्ग नथी एम आ गाथामां दर्शाव्युं छे).

अहीं खरेखर शुभोपरक्त भाव (शुभरूप विकारी भाव) ते पुण्यास्रव छे अने अशुभोपरक्त भाव (अशुभरूप विकारी भाव) पापास्रव छे. त्यां, पुण्य अथवा पाप जे भावथी आस्रवे छे, ते भाव ज्यारे जे जीवने होय त्यारे ते जीव ते भाव वडे परचारित्र छेएम (जिनेंद्रो द्वारा) प्ररूपवामां आवे छे. तेथी (एम नक्की थाय छे के) परचारित्रमां प्रवृत्ति ते बंधमार्ग ज छे, मोक्षमार्ग नथी. १५७.

सौ-संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने
जाणे अने देखे नियत रही, ते स्वचरितप्रवृत्त छे. १५८.