स्वद्रव्यमेकमेवाभिमुख्येनानुवर्तमानः स्वस्वभावभूतं दर्शनज्ञानविकल्पमप्यात्मनोऽविकल्पत्वेन
अन्वयार्थः — [ यः ] जे [ परद्रव्यात्मभावरहितात्मा ] परद्रव्यात्मक भावोथी रहित स्वरूपवाळो वर्ततो थको, [ दर्शनज्ञानविकल्पम् ] (निजस्वभावभूत) दर्शनज्ञानरूप भेदने [ आत्मनः अविकल्पं ] आत्माथी अभेदपणे [ चरति ] आचरे छे, [ सः ] ते [ स्वकं चरितं चरति ] स्वचारित्रने आचरे छे.
जे योगीन्द्र, समस्त १मोहव्यूहथी बहिर्भूत होवाने लीधे परद्रव्यना स्वभावरूप भावोथी रहित स्वरूपवाळो वर्ततो थको, स्वद्रव्यने एकने ज अभिमुखपणे अनुसरतां थकां निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदने पण आत्माथी अभेदपणे आचरे छे, ते खरेखर स्वचारित्रने आचरे छे.
आ रीते खरेखर २शुद्धद्रव्यने आश्रित, ३अभिन्नसाध्यसाधनभाववाळा निश्चय- १. मोहव्यूह = मोहसमूह. [जे मुनीन्द्रे समस्त मोहसमूहनो नाश कर्यो होवाथी ‘पोतानुं स्वरूप परद्रव्यना
स्वभावरूप भावोथी रहित छे’ एवी प्रतीति अने ज्ञान जेमने वर्ते छे, तथा ते उपरांत जे केवळ स्वद्रव्यमां ज निर्विकल्पपणे अत्यंत लीन थई निजस्वभावभूत दर्शनज्ञानभेदोने आत्माथी अभेदपणे आचरे छे, ते मुनीन्द्र स्वचारित्रना आचरनार छे.] २. अहीं निश्चयनयनो विषय शुद्धद्रव्य अर्थात् शुद्धपर्यायपरिणत द्रव्य छे, एटले के एकला द्रव्यनो ( – पर
निमित्त विनानो) शुद्धपर्याय छे; जेम के, निर्विकल्प शुद्धपर्यायपरिणत मुनिने निश्चयनयथी मोक्षमार्ग छे. ३. जे नयमां साध्य अने साधन अभिन्न (अर्थात् एक प्रकारनां) होय ते अहीं निश्चयनय छे;