सुवर्णनी जेम अभिन्नसाध्यसाधनभावने लीधे स्वयमेव शुद्धभावरूप परिणमन होय छे
तोपण, व्यवहारनयथी निश्चयमोक्षमार्गना साधनपणाने पामे छे.
[अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनिनुं अंतरंग लेश पण समाहित नहि होवाथी अर्थात् तेने (द्रव्यार्थिकनयना विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपना अज्ञानने लीधे) शुद्धिनो अंश पण परिणम्यो नहि होवाथी तेने व्यवहारमोक्षमार्ग पण नथी.] १६०.
अन्वयार्थः — [ यः आत्मा ] जे आत्मा [ तैः त्रिभिः खलु समाहितः ] ए त्रण वडे खरेखर समाहित थयो थको (अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र वडे खरेखर एकाग्र — अभेद थयो थको) [ अन्यत् किञ्चित् अपि ] अन्य कांई पण [ न करोति न मुञ्चति ] करतो नथी के छोडतो नथी, [ सः ] ते [ निश्चयनयेन ] निश्चयनयथी [ मोक्षमार्गः इति भणितः ] ‘मोक्षमार्ग’ कहेवामां आव्यो छे. १. आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां पंचमगुणस्थानवर्ती गृहस्थने पण व्यवहारमोक्षमार्ग
छे; चारित्र, तपोधनोने आचारादि चरणग्रंथोमां विहित करेला मार्ग प्रमाणे प्रमत्त-अप्रमत्त
गुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रत-पंचसमिति-त्रिगुप्ति-षडावश्यकादिरूप होय छे अने गृहस्थोने
उपासकाध्ययनग्रंथमां विहित करेला मार्ग प्रमाणे पंचमगुणस्थानयोग्य दान-शील-पूजा-उपवासादिरूप
अथवा दार्शनिक-व्रतिकादि अगियार स्थानरूप (