Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 161.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
णिच्छयणएण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा
ण कुणदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति ।।१६१।।
निश्चयनयेन भणितस्त्रिभिस्तैः समाहितः खलु यः आत्मा
न करोति किञ्चिदप्यन्यन्न मुञ्चति स मोक्षमार्ग इति ।।१६१।।
अंगपूर्वगत ज्ञान अने मुनि-आचारमां प्रवर्तनरूप व्यवहारमोक्षमार्ग विशेष विशेष शुद्धिनुं
व्यवहारसाधन बनतो थको, जोके निर्विकल्पशुद्धभावपरिणत जीवने परमार्थे तो उत्तम
सुवर्णनी जेम अभिन्नसाध्यसाधनभावने लीधे स्वयमेव शुद्धभावरूप परिणमन होय छे
तोपण, व्यवहारनयथी निश्चयमोक्षमार्गना साधनपणाने पामे छे.

[अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनिनुं अंतरंग लेश पण समाहित नहि होवाथी अर्थात् तेने (द्रव्यार्थिकनयना विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपना अज्ञानने लीधे) शुद्धिनो अंश पण परिणम्यो नहि होवाथी तेने व्यवहारमोक्षमार्ग पण नथी.] १६०.

जे जीव दर्शनज्ञानचरण वडे समाहित होईने,
छोडे-ग्रहे नहि अन्य कंई पण, निश्चये शिवमार्ग छे. १६१.

अन्वयार्थः[ यः आत्मा ] जे आत्मा [ तैः त्रिभिः खलु समाहितः ] ए त्रण वडे खरेखर समाहित थयो थको (अर्थात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र वडे खरेखर एकाग्र अभेद थयो थको) [ अन्यत् किञ्चित् अपि ] अन्य कांई पण [ न करोति न मुञ्चति ] करतो नथी के छोडतो नथी, [ सः ] ते [ निश्चयनयेन ] निश्चयनयथी [ मोक्षमार्गः इति भणितः ] ‘मोक्षमार्ग’ कहेवामां आव्यो छे. १. आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां पंचमगुणस्थानवर्ती गृहस्थने पण व्यवहारमोक्षमार्ग

कह्यो छे. त्यां व्यवहारमोक्षमार्गनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे वर्णव्युं छेः‘वीतरागसर्वज्ञप्रणीत
जीवादिपदार्थो संबंधी सम्यक् श्रद्धान तेम ज ज्ञान बंने, गृहस्थने अने तपोधनने समान होय
छे; चारित्र, तपोधनोने आचारादि चरणग्रंथोमां विहित करेला मार्ग प्रमाणे प्रमत्त-अप्रमत्त
गुणस्थानयोग्य पंचमहाव्रत-पंचसमिति-त्रिगुप्ति-षडावश्यकादिरूप होय छे अने गृहस्थोने
उपासकाध्ययनग्रंथमां विहित करेला मार्ग प्रमाणे पंचमगुणस्थानयोग्य दान-शील-पूजा-उपवासादिरूप
अथवा दार्शनिक-व्रतिकादि अगियार स्थानरूप (
अगियार प्रतिमारूप) होय छे; ए प्रमाणे
व्यवहारमोक्षमार्गनुं लक्षण छे.’