जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं ।
आत्मनश्चारित्रज्ञानदर्शनत्वद्योतनमेतत् ।
यः खल्वात्मानमात्ममयत्वादनन्यमयमात्मना चरति — स्वभावनियतास्तित्वेनानुवर्तते, आत्मना जानाति — स्वपरप्रकाशकत्वेन चेतयते, आत्मना पश्यति — याथातथ्येनावलोकयते, स खल्वात्मैव चारित्रं ज्ञानं दर्शनमिति कर्तृकर्मकरणानामभेदान्निश्चितो भवति ।
अन्वयार्थः — [ यः ] जे (आत्मा) [ अनन्यमयम् आत्मानम् ] अनन्यमय आत्माने [ आत्मना ] आत्माथी [ चरति ] आचरे छे, [ जानाति ] जाणे छे, [ पश्यति ] देखे छे, [ सः ] ते (आत्मा ज) [ चारित्रं ] चारित्र छे, [ ज्ञानं ] ज्ञान छे, [ दर्शनम् ] दर्शन छे — [ इति ] एम [ निश्चितः भवति ] निश्चित छे.
टीकाः — आ, आत्माना चारित्र-ज्ञान-दर्शनपणानुं प्रकाशन छे (अर्थात् आत्मा ज चारित्र, ज्ञान अने दर्शन छे एम अहीं समजाव्युं छे).
जे (आत्मा) खरेखर आत्माने — के जे आत्ममय होवाथी अनन्यमय छे तेने — आत्माथी आचरे छे अर्थात् १स्वभावनियत अस्तित्व वडे अनुवर्ते छे ( – स्वभावनियत अस्तित्वरूपे परिणमीने अनुसरे छे), (अनन्यमय आत्माने ज) आत्माथी जाणे छे अर्थात् स्वपरप्रकाशकपणे चेते छे, (अनन्यमय आत्माने ज) आत्माथी देखे छे अर्थात् यथातथपणे अवलोके छे, ते आत्मा ज खरेखर चारित्र छे, ज्ञान छे, दर्शन छे — एम २कर्ता-कर्म-करणना
१. स्वभावनियत = स्वभावमां अवस्थित; (ज्ञानदर्शनरूप) स्वभावमां द्रढपणे रहेल. [‘स्वभावनियत अस्तित्व’नी विशेष स्पष्टता माटे १५४मी गाथानी टीका जुओ.]
२. ज्यारे आत्मा आत्माने आत्माथी आचरे-जाणे-देखे छे, त्यारे कर्ता पण आत्मा, कर्म पण आत्मा अने करण पण आत्मा छे; ए रीते त्यां कर्ता-कर्म-करणनुं अभिन्नपणुं छे.