Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 230 of 256
PDF/HTML Page 270 of 296

 

पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

दर्शनज्ञानचारित्राणां कथञ्चिद्बन्धहेतुत्वोपदर्शनेन जीवस्वभावे नियतचरितस्य साक्षान्मोक्षहेतुत्वद्योतनमेतत

अमूनि हि दर्शनज्ञानचारित्राणि कियन्मात्रयापि परसमयप्रवृत्त्या संवलितानि कृशानुसंवलितानीव घृतानि कथञ्चिद्विरुद्धकारणत्वरूढेर्बन्धकारणान्यपि भवन्ति यदा तु समस्तपरसमयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपया स्वसमयप्रवृत्त्या सङ्गच्छन्ते, तदा निवृत्तकृशानुसंवलनानीव घृतानि विरुद्धकार्यकारणभावाभावात्साक्षान्मोक्षकारणान्येव


कह्युं छे; [ तैः तु ] परंतु तेमनाथी [ बन्धः वा ] बंध पण थाय छे अने [ मोक्षः वा ] मोक्ष पण थाय छे.

टीकाःअहीं, दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं कथंचित् बंधहेतुपणुं दर्शाव्युं छे अने ए रीते जीवस्वभावमां नियत चारित्रनुं साक्षात् मोक्षहेतुपणुं प्रकाशित कर्युं छे.

आ दर्शन-ज्ञान-चारित्र, जो थोडी पण परसमयप्रवृत्ति साथे मिलित होय तो, अग्नि साथे मिलित घीनी माफक (अर्थातउष्णतायुक्त घीनी जेम), कथंचितविरुद्ध कार्यना कारणपणानी व्याप्तिने लीधे बंधकारणो पण छे. अने ज्यारे तेओ (दर्शन-ज्ञान- चारित्र), समस्त परसमयप्रवृत्तिथी निवृत्तिरूप एवी स्वसमयप्रवृत्ति साथे संयुक्त होय छे त्यारे, जेने अग्नि साथेनुं मिलितपणुं निवृत्त थयुं छे एवा घीनी माफक, विरुद्ध कार्यनो

[शास्त्रोमां क्यारेक दर्शन-ज्ञान-चारित्रने पण, जो तेओ परसमयप्रवृत्तियुक्त होय तो,

कथंचित् बंधनां कारण कहेवामां आवे छे; वळी क्यारेक ज्ञानीने वर्तता शुभभावोने पण कथंचित मोक्षना परंपराहेतु कहेवामां आवे छे. शास्त्रोमां आवतां आवा भिन्नभिन्न पद्धतिनां कथनो उकेलवामां ए सारभूत हकीकत ख्यालमां राखवी केज्ञानीने ज्यारे शुद्धाशुद्धरूप मिश्रपर्याय

वर्ततो होय छे त्यारे ते मिश्रपर्याय एकांते संवर-निर्जरा-मोक्षना कारणभूत होतो नथी के एकांते
आस्रव-बंधना कारणभूत होतो नथी, परंतु ते मिश्रपर्यायनो शुद्ध अंश संवर-निर्जरा-मोक्षना
कारणभूत होय छे अने अशुद्ध अंश आस्रव-बंधना कारणभूत होय छे.
]

२३०

१. घी स्वभावे शीतळताना कारणभूत होवा छतां, जो ते थोडी पण उष्णताथी युक्त होय तो, तेनाथी (कथंचित) दझाय पण छे; तेवी रीते दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभावे मोक्षनां कारणभूत होवा छतां, जो तेओ थोडी पण परसमयप्रवृत्तिथी युक्त होय तो, तेमनाथी (कथंचित) बंध पण थाय छे.

२. परसमयप्रवृत्तियुक्त दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां कथंचित् मोक्षरूप कार्यथी विरुद्ध कार्यनुं कारणपणुं (अर्थात् बंधरूप कार्यनुं कारणपणुं) व्यापे छे.