Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 166.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

शुद्धसम्प्रयोगः अथ खल्वज्ञानलवावेशाद्यदि यावत् ज्ञानवानपि ततः शुद्धसम्प्रयो- गान्मोक्षो भवतीत्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत्सोऽपि रागलवसद्भावात्पर- समयरत इत्युपगीयते अथ न किं पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गवृत्तिरितरो जन इति ।।१६५।।

अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो
बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि ।।१६६।।
अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः
बध्नाति पुण्यं बहुशो न खलु स कर्मक्षयं करोति ।।१६६।।

चित्तवृत्ति ते अहीं ‘शुद्धसंप्रयोग’ छे. हवे, अज्ञानलवना आवेशथी जो ज्ञानवान पण ‘ते शुद्धसंप्रयोगथी मोक्ष थाय छे’ एवा अभिप्राय वडे खेद पामतो थको तेमां (शुद्धसंप्रयोगमां) प्रवर्ते, तो त्यांसुधी ते पण रागलवना सद्भावने लीधे ‘परसमयरत’ कहेवाय छे. तो पछी निरंकुश रागरूप क्लेशथी कलंकित एवी अंतरंग वृत्तिवाळो इतर जन शुं परसमयरत न कहेवाय? (अवश्य कहेवाय ज.) १६५.

जिन-सिद्ध-प्रवचन-चैत्य-मुनिगण-ज्ञाननी भक्ति करे,
ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मनो क्षय नव करे. १६६.

अन्वयार्थः[ अर्हत्सिद्धचैत्यप्रवचनगणज्ञानभक्तिसम्पन्नः ] अर्हंत, सिद्ध, चैत्य

कोई पुरुष निर्विकार-शुद्धात्मभावनास्वरूप परमोपेक्षासंयममां स्थित रहेवा इच्छे छे, परंतु तेमां
स्थित रहेवाने अशक्त वर्ततो थको कामक्रोधादि अशुभ परिणामना वंचनार्थे अथवा संसारस्थितिना
छेदनार्थे ज्यारे पंचपरमेष्ठी प्रत्ये गुणस्तवनादि भक्ति करे छे, त्यारे ते सूक्ष्म परसमयरूपे परिणत
वर्ततो थको सराग सम्यग्द्रष्टि छे; अने जो ते पुरुष शुद्धात्मभावनामां समर्थ होवा छतां पण,
तेने (शुद्धात्मभावनाने) छोडीने ‘शुभोपयोगथी ज मोक्ष थाय छे’ एम एकांते माने, तो ते स्थूल
परसमयरूप परिणाम वडे अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि थाय छे.

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१. अज्ञानलव = जराक अज्ञान; अल्प अज्ञान.
२. रागलव = जराक राग; अल्प राग.
३. परसमयरत = परसमयमां रत; परसमयस्थित; परसमय प्रत्ये वलणवाळो; परसमयमां आसक्त.
४. आ गाथानी श्री जयसेनाचार्यदेवकृत टीकामां आ प्रमाणे विवरण छेः