सिद्धभक्तिमनुबिभ्राणः प्रसिद्धस्वसमयप्रवृत्तिर्भवति । तेन कारणेन स एव निःशेषितकर्मबन्धः सिद्धिमवाप्नोतीति ।।१६९।।
अर्हदादिभक्तिरूपपरसमयप्रवृत्तेः साक्षान्मोक्षहेतुत्वाभावेऽपि परम्परया मोक्षहेतुत्वसद्भाव- द्योतनमेतत् । द्रव्यमां विश्रांतिरूप पारमार्थिक सिद्धभक्ति धरतो थको १स्वसमयप्रवृत्तिनी प्रसिद्धिवाळो होय छे. ते कारणथी ते ज जीव कर्मबंधनो निःशेष नाश करी सिद्धिने पामे छे. १६९.
अन्वयार्थः — [ संयमतपःसम्प्रयुक्तस्य ] संयमतपसंयुक्त होवा छतां, [ सपदार्थं तीर्थकरम् ] नव पदार्थो तथा तीर्थंकर प्रत्ये [ अभिगतबुद्धेः ] जेनी बुद्धिनुं जोडाण वर्ते छे अने [ सूत्ररोचिनः ] सूत्रो प्रत्ये जेने रुचि (प्रीति) वर्ते छे, ते जीवने [ निर्वाणं ] निर्वाण [ दूरतरम् ] दूरतर (विशेष दूर) छे.
टीकाः — अहीं, अर्हंतादिनी भक्तिरूप परसमयप्रवृत्तिमां साक्षात् मोक्षहेतुपणानो अभाव होवा छतां परंपराए मोक्षहेतुपणानो २सद्भाव दर्शाव्यो छे.
१. स्वसमयप्रवृत्तिनी प्रसिद्धिवाळो = जेने स्वसमयमां प्रवृत्ति प्रसिद्ध थइ छे एवो. [जे जीव
रागादिपरिणतिनो संपूर्ण नाश करी निःसंग अने निर्मम थयो छे ते परमार्थ-सिद्धभक्तिवंत जीवे
स्वसमयमां प्रवृत्ति सिद्ध करी छे तेथी स्वसमयप्रवृत्तिने लीधे ते ज जीव कर्मबंधनो क्षय करी मोक्षने
पामे छे, अन्य नहि.]
२. खरेखर तो एम छे के — ज्ञानीने शुद्धाशुद्धरूप मिश्र पर्यायमां जे भक्ति-आदिरूप शुभ अंश वर्ते
छे ते तो मात्र देवलोकादिना कलेशनी परंपरानो ज हेतु छे अने साथे साथे ज्ञानीने जे
(मंदशुद्धिरूप) शुद्ध अंश परिणमे छे ते संवरनिर्जरानो अने (तेटला अंशे) मोक्षनो हेतु छे. खरेखर
आम होवा छतां, शुद्ध अंशमां रहेला संवर-निर्जरा-मोक्षहेतुत्वनो आरोप तेनी साथेना भक्ति-
आदिरूप शुभ अंशमां करीने ते शुभ भावोने देवलोकादिना क्लेशनी प्राप्तिनी परंपरा सहित