यः खलु मोक्षार्थमुद्यतमनाः समुपार्जिताचिन्त्यसंयमतपोभारोऽप्यसम्भावितपरम- वैराग्यभूमिकाधिरोहणसमर्थप्रभुशक्तिः पिञ्जनलग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदार्थैः सहार्हदादि- रुचिरूपां परसमयप्रवृत्तिं परित्यक्तुं नोत्सहते, स खलु न नाम साक्षान्मोक्षं लभते किन्तु सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति ।।१७०।।
जे जीव खरेखर मोक्षने अर्थे उद्यमी चित्तवाळो वर्ततो थको, अचिंत्य संयम- तपभार संप्राप्त कर्यो होवा छतां परमवैराग्यभूमिकानुं आरोहण करवामां समर्थ एवी १प्रभुशक्ति उत्पन्न करी नहि होवाथी, ‘पींजणने चोंटेल रू’ना न्याये, नव पदार्थो तथा अर्हंतादिनी रुचिरूप (प्रीतिरूप) परसमयप्रवृत्तिनो परित्याग करी शकतो नथी, ते जीव खरेखर साक्षात् मोक्षने प्राप्त करतो नथी परंतु देवलोकादिना कलेशनी प्राप्तिरूप परंपरा वडे तेने प्राप्त करे छे. १७०.
मोक्षप्राप्तिना हेतुभूत कहेवामां आव्या छे. आ कथन आरोपथी (उपचारथी) करवामां आव्युं छे एम समजवुं. [आवो कथंचित् मोक्षहेतुत्वनो आरोप पण ज्ञानीने ज वर्तता भक्ति-आदिरूप शुभ भावोमां करी शकाय छे. अज्ञानीने तो शुद्धिनो अंशमात्र पण परिणमनमां नहि होवाथी यथार्थ मोक्षहेतु बिलकुल प्रगट्यो ज नथी — विद्यमान ज नथी त्यां पछी तेना भक्ति-आदिरूप शुभ
भावोमां आरोप कोनो करवो?]
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१. प्रभुशक्ति = प्रबळ शक्ति; उग्र शक्ति; पुष्कळ शक्ति. [जे ज्ञानी जीवे परम उदासीनताने प्राप्त
करवामां समर्थ एवी प्रभुशक्ति उत्पन्न करी नथी ते ज्ञानी जीव कदाचित् शुद्धात्मभावनाने अनुकूळ,
जीवादिपदार्थोनुं प्रतिपादन करनारां आगम प्रत्ये रुचि (प्रीति) करे छे, कदाचित् (जेम कोई रामचंद्रादि
पुरुष देशांतरस्थित सीतादि स्त्रीनी पासेथी आवेला माणसोने प्रेमथी सांभळे छे, तेमनुं सन्मानादि करे
छे अने तेमने दान आपे छे तेम) निर्दोष-परमात्मा तीर्थंकरपरमदेवोनां अने गणधरदेव-भरत-सगर-
राम-पांडवादि महापुरुषोनां चरित्रपुराणो शुभ धर्मानुरागथी सांभळे छे तथा कदाचित् गृहस्थ-
अवस्थामां भेदाभेदरत्नत्रयपरिणत आचार्य-उपाध्याय-साधुनां पूजनादि करे छे अने तेमने दान आपे
छे — इत्यादि शुभ भावो करे छे. आ रीते जे ज्ञानी जीव शुभ रागने सर्वथा छोडी शकतो नथी, ते
साक्षात् मोक्षने प्राप्त करतो नथी परंतु देवलोकादिना कलेशनी परंपराने पामी पछी चरम देहे निर्विकल्प-
समाधिविधान वडे विशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाळा निजशुद्धात्मामां स्थिर थइ तेने (मोक्षने) प्राप्त करे छे.]