Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 241 of 256
PDF/HTML Page 281 of 296

 

कहानजैनशास्त्रमाळा ]
नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
२४१

त्वायेति द्विविधं किल तात्पर्यम्सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यञ्चेति तत्र सूत्रतात्पर्यं प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् शास्त्रतात्पर्यं त्विदं प्रतिपाद्यते अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य, सकलपुरुषार्थसारभूतमोक्षतत्त्वप्रतिपत्तिहेतोः पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यस्वरूपप्रति- पादनेनोपदर्शितसमस्तवस्तुस्वभावस्य, नवपदार्थप्रपञ्चसूचनाविष्कृतबन्धमोक्षसम्बन्धिबन्ध- मोक्षायतनबन्धमोक्षविकल्पस्य, सम्यगावेदितनिश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गस्य, साक्षान्मोक्ष- कारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये,

तात्पर्य द्विविध होय छेः सूत्रतात्पर्य अने शास्त्रतात्पर्य. तेमां, सूत्रतात्पर्य सूत्रदीठ (गाथादीठ) प्रतिपादित करवामां आव्युं छे; अने शास्त्रतात्पर्य हवे प्रतिपादित करवामां आवे छेः

सर्व पुरुषार्थोमां सारभूत एवा मोक्षतत्त्वनुं प्रतिपादन करवाना हेतुथी जेमां पंचास्तिकाय अने षड्द्रव्यना स्वरूपना प्रतिपादन वडे समस्त वस्तुनो स्वभाव दर्शाववामां आवेल छे, नव पदार्थना विस्तृत कथन वडे जेमां बंध-मोक्षना संबंधी (स्वामी), बंध- मोक्षनां आयतन (स्थान) अने बंध-मोक्षना विकल्प (भेद) प्रगट करवामां आव्यां छे, निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्गनुं जेमां सम्यक् निरूपण करवामां आव्युं छे तथा साक्षात् मोक्षना कारणभूत परमवीतरागपणामां जेनुं समस्त हृदय रहेलुं छेएवा आ खरेखर पारमेश्वर शास्त्रनुं, परमार्थे वीतरागपणुं ज तात्पर्य छे.

ते आ वीतरागपणाने व्यवहार-निश्चयना अविरोध वडे ज अनुसरवामां आवे तो इष्टसिद्धि थाय छे, परंतु अन्यथा नहि (अर्थात् व्यवहार अने निश्चयनी सुसंगतता रहे एवी रीते वीतरागपणाने अनुसरवामां आवे तो ज इच्छितनी सिद्धि थाय छे, पं. ३१

१. एकेक गाथासूत्रनुं तात्पर्य ते सूत्रतात्पर्य छे अने आखा शास्त्रनुं तात्पर्य ते शास्त्रतात्पर्य छे.
२. पुरुषार्थ = पुरुष-अर्थ; पुरुष-प्रयोजन. [पुरुषार्थोना चार विभाग पाडवामां आवे छेः धर्म, अर्थ,
काम अने मोक्ष; परंतु सर्व पुरुष-अर्थोमां मोक्ष ज सारभूत (तात्त्विक) पुरुष-अर्थ छे.]

३. पारमेश्वर = परमेश्वरना; जिनभगवानना; भागवत; दैवी; पवित्र.
४. छठ्ठा गुणस्थाने मुनियोग्य शुद्धपरिणति निरंतर होवी तेम ज महाव्रतादिसंबंधी शुभभावो
यथायोग्यपणे होवा ते निश्चय-व्यवहारना अविरोधनुं (सुमेळनुं) उदाहरण छे. पांचमा गुणस्थाने
ते गुणस्थानने योग्य शुद्धपरिणति निरंतर होवी तेम ज देशव्रतादिसंबंधी शुभभावो यथायोग्यपणे
होवा ते पण निश्चय-व्यवहारना अविरोधनुं उदाहरण छे.