न्यायपथप्रवर्तनाय प्रयुक्तप्रचण्डदण्डनीतयः, पुनः पुनः दोषानुसारेण दत्तप्रायश्चित्ताः सन्ततोद्यताः सन्तोऽथ तस्यैवात्मनो भिन्नविषयश्रद्धानज्ञानचारित्रैरधिरोप्यमाणसंस्कारस्य भिन्नसाध्यसाधनभावस्य रजकशिलातलस्फाल्यमानविमलसलिलाप्लुतविहितोषपरिष्वङ्ग- मलिनवासस इव मनाङ्मनाग्विशुद्धिमधिगम्य निश्चयनयस्य भिन्नसाध्यसाधनभावाभावाद्दर्शन- ज्ञानचारित्रसमाहितत्वरूपे विश्रान्तसकलक्रियाकाण्डाडम्बरनिस्तरङ्गपरमचैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवत्यात्मनि विश्रान्तिमासूत्रयन्तः क्रमेण समुपजातसमरसीभावाः
उद्यमवंत वर्ते छे; वळी, १भिन्नविषयवाळां श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र वडे ( – आत्माथी भिन्न जेना विषयो छे एवा भेदरत्नत्रय वडे) जेनामां संस्कार आरोपाता जाय छे एवा भिन्नसाध्यसाधनभाववाळा पोताना आत्माने विषे — धोबी द्वारा शिलानी सपाटी उपर झींकवामां आवता, निर्मळ जळ वडे पलाळवामां आवता अने क्षार (साबु) लगाडवामां आवता मलिन वस्त्रनी माफक — थोडी थोडी २विशुद्धि प्राप्त करीने, ते ज पोताना आत्माने निश्चयनये भिन्नसाध्यसाधनभावना अभावने लीधे, दर्शनज्ञानचारित्रनुं समाहितपणुं (अभेदपणुं) जेनुं रूप छे, सकळ क्रियाकांडना आडंबरनी निवृत्तिने लीधे ( – अभावने लीधे) जे निस्तरंग परमचैतन्यशाळी छे तथा जे निर्भर आनंदथी समृद्ध छे एवा भगवान आत्मामां विश्रांति रचता थका (अर्थात् दर्शनज्ञानचारित्रना ऐक्यस्वरूप, निर्विकल्प परमचैतन्यशाळी तथा भरपूर-आनंदयुक्त एवा भगवान आत्मामां पोताने
१. व्यवहार-श्रद्धानज्ञानचारित्रना विषयो आत्माथी भिन्न छे; कारण के व्यवहारश्रद्धाननो विषय नव
पदार्थो छे, व्यवहारज्ञाननो विषय अंग-पूर्व छे अने व्यवहारचारित्रनो विषय आचारादि-
सूत्रकथित मुनि-आचारो छे.
२. जेवी रीते धोबी पाषाणशिला, पाणी अने साबु वडे मलिन वस्त्रनी शुद्धि करतो जाय छे, तेवी
रीते प्राक्पदवीस्थित ज्ञानी जीव भेदरत्नत्रय वडे पोताना आत्मामां संस्कार आरोपी तेनी थोडी
थोडी शुद्धि करतो जाय छे एम व्यवहारनये कहेवामां आवे छे. परमार्थ एम छे के ते
भेदरत्नत्रयवाळा ज्ञानी जीवने शुभ भावोनी साथे जे शुद्धात्मस्वरूपनुं आंशिक आलंबन वर्ततुं
होय छे ते ज उग्र थतुं थतुं विशेष शुद्धि करतुं जाय छे. माटे खरेखर तो, शुद्धात्मस्वरूपनुं
आलंबन करवुं ते ज शुद्धि प्रगटाववानुं साधन छे अने ते आलंबननी उग्रता करवी ते ज शुद्धिनी
वृद्धि करवानुं साधन छे. साथे रहेला शुभभावोने शुद्धिनी वृद्धिनुं साधन कहेवुं ते तो मात्र
उपचारकथन छे. शुद्धिनी वृद्धिना उपचरितसाधनपणानो आरोप पण ते ज जीवना शुभभावोमां
आवी शके छे के जे जीवे शुद्धिनी वृद्धिनुं खरुं साधन (--शुद्धात्मस्वरूपनुं यथोचित आलंबन) प्रगट
कर्युं होय.