अथ ये तु केवलव्यवहारावलम्बिनस्ते खलु भिन्नसाध्यसाधनभावावलोकनेना-
ऽनवरतं नितरां खिद्यमाना मुहुर्मुहुर्धर्मादिश्रद्धानरूपाध्यवसायानुस्यूतचेतसः, प्रभूतश्रुत- संस्काराधिरोपितविचित्रविकल्पजालकल्माषितचैतन्यवृत्तयः, समस्तयतिवृत्तसमुदायरूपतपः- प्रवृत्तिरूपकर्मकाण्डोड्डमराचलिताः, कदाचित्किञ्चिद्रोचमानाः, कदाचित्किञ्चिद्विकल्पयन्तः, कदाचित्किञ्चिदाचरन्तः; दर्शनाचरणाय कदाचित्प्रशाम्यन्तः, कदाचित्संविजमानाः, कदाचिदनुकम्पमानाः, कदाचिदास्तिक्यमुद्वहन्तः, शङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सामूढदृष्टितानां व्युत्थापननिरोधाय नित्यबद्धपरिकराः, उपबृंहणस्थितिकरणवात्सल्यप्रभावनां भावयमाना
स्थिर करता थका), क्रमे समरसीभाव समुत्पन्न थतो जतो होवाथी परम वीतरागभावने प्राप्त करी साक्षात् मोक्षने अनुभवे छे.
[हवे केवळव्यवहारावलंबी (अज्ञानी) जीवोनुं प्रवर्तन अने तेनुं फळ कहेवामां आवे छेः — ]
परंतु जेओ केवळव्यवहारावलंबी (केवळ व्यवहारने अवलंबनारा) छे तेओ खरेखर *भिन्नसाध्यसाधनभावना अवलोकन वडे निरंतर अत्यंत खेद पामता थका, (१) फरीफरीने धर्मादिना श्रद्धानरूप अध्यवसानमां तेमनुं चित्त लाग्या करतुं होवाथी, (२) पुष्कळ श्रुतना (द्रव्यश्रुतना) संस्कारथी ऊठता विचित्र (अनेक प्रकारना) विकल्पोनी जाळ वडे तेमनी चैतन्यवृत्ति चित्रविचित्र थती होवाथी अने (३) समस्त यति-आचारना समुदायरूप तपमां प्रवर्तनरूप कर्मकांडनी धमालमां तेओ अचलित रहेता होवाथी, (१) क्यारेक कांईकनी (कोईक बाबतनी) रुचि करे छे, (२) क्यारेक कांईकना (कोईक बाबतना) विकल्प करे छे अने (३) क्यारेक कांईक आचरण करे छे; दर्शनाचरण माटे — तेओ कदाचित् प्रशमित थाय छे, कदाचित् संवेग पामे छे, कदाचित् अनुकंपित थाय छे, कदाचित् आस्तिक्यने धारे छे, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा अने मूढद्रष्टिताना उत्थानने अटकाववा अर्थे नित्य कटिबद्ध रहे छे, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य अने
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*खरेखर साध्य अने साधन अभिन्न होय छे. ज्यां साध्य अने साधन भिन्न कहेवामां आवे
त्यां ‘आ सत्यार्थ निरूपण नथी पण व्यवहारनय द्वारा उपचरित निरूपण कर्युं छे’ एम समजवुं
जोईए. केवळव्यवहारावलंबी जीवो आ वातने ऊंडाणथी नहि श्रद्धता थका अर्थात् ‘खरेखर
शुभभावरूप साधनथी ज शुद्धभावरूप साध्य प्राप्त थशे’ एवी श्रद्धा ऊंडाणमां सेवता थका निरंतर
अत्यंत खेद पामे छे. [विशेष माटे २२१ मा पानानी बीजी तथा पांचमी फूटनोट जुओ.]