त्रिभुवनमूर्ध्वाधोमध्यलोकवर्ती समस्त एव जीवलोकस्तस्मै निर्व्याबाधविशुद्धात्म- तत्त्वोपलम्भोपायाभिधायित्वाद्धितं, परमार्थरसिकजनमनोहारित्वान्मधुरं, निरस्तसमस्त- शंकादिदोषास्पदत्वाद्विशदं वाक्यं दिव्यो ध्वनिर्येषामित्यनेन समस्तवस्तुयाथात्म्योप- देशित्वात्प्रेक्षावत्प्रतीक्ष्यत्वमाख्यातम् । अन्तमतीतः क्षेत्रानवच्छिन्नः कालानवच्छिन्नश्च परमचैतन्यशक्तिविलासलक्षणो गुणो येषामित्यनेन तु परमाद्भुतज्ञानातिशयप्रकाश- नादवाप्तज्ञानातिशयानामपि योगीन्द्राणां वन्द्यत्वमुदितम् । जितो भव आजवंजवो यैरित्यनेन तु कृतकृत्यत्वप्रकटनात्त एवान्येषामकृतकृत्यानां शरणमित्युपदिष्टम् । — इति
सर्वपदानां तात्पर्यम् ।।१।।
लोकने — ऊर्ध्व-अधो-मध्य लोकवर्ती सघळाय जीवसमूहने — निर्बाध विशुद्ध आत्मतत्त्वनी उपलब्धिनो उपाय कहेनार होवाथी हितकर छे, परमार्थरसिक जनोनां मनने हरनार होवाथी मधुर छे अने समस्त शंकादि दोषोनां स्थान दूर करवामां आव्यां होवाथी विशद (निर्मळ, स्पष्ट) छे’ एम कहीने (जिनो) समस्त वस्तुना यथार्थ स्वरूपनो उपदेश करनारा होवाथी विचारवंत डाह्या पुरुषोना बहुमानने योग्य छे (अर्थात् जेमनो उपदेश विचारवंत डाह्या पुरुषोए बहुमानपूर्वक विचारवो जोईए एवा छे) एम कह्युं. ‘अनंत — क्षेत्रथी अंत रहित अने काळथी अंत रहित — परमचैतन्यशक्तिना विलासस्वरूप गुण जेमने वर्ते छे’ एम कहीने (जिनोने) परम अद्भुत ज्ञानातिशय प्रगट थयो होवाथी ज्ञानातिशयने पामेला योगींद्रोथी पण वंद्य छे एम कह्युं. ‘भव अर्थात् संसार उपर जेमणे जय मेळव्यो छे’ एम कहीने कृतकृत्यपणुं प्रगट थयुं होवाथी तेओ ज (जिनो ज) बीजा अकृतकृत्य जीवोनुं शरण छे एम उपदेश्युं. — आ प्रमाणे सर्व पदोनुं तात्पर्य छे.
भावार्थः — अहीं जिनभगवंतोनां चार विशेषणो वर्णवीने तेमने भावनमस्कार कर्यो छे. (१) प्रथम तो, जिनभगवंतो सो इन्द्रोथी वंद्य छे. आवा असाधारण नमस्कारने योग्य बीजुं कोई नथी, कारण के देवोने अने असुरोने युद्ध थतुं होवाथी (देवाधिदेव जिनभगवान सिवाय) अन्य कोई पण देव सो इन्द्रोथी वंदित नथी. (२) बीजुं, जिनभगवाननी वाणी त्रण लोकने शुद्ध आत्मस्वरूपनी प्राप्तिनो उपाय दर्शावती होवाथी हितकर छे; वीतराग निर्विकल्प समाधिथी उत्पन्न सहज-अपूर्व- परमानंदरूप पारमार्थिकसुखरसास्वादना रसिक जनोनां मनने हरती होवाथी (अर्थात् परम समरसीभावना रसिक जीवोने मुदित करती होवाथी) मधुर छे; शुद्ध