“समवाओ पंचण्हं समउ त्ति जिणुत्तमेहिं पण्णत्तं ।
स च एव भवति लोकस्ततोऽमितोऽलोकः खम् ।।३।।
अत्र शब्दज्ञानार्थरूपेण त्रिविधाऽभिधेयता समयशब्दस्य लोकालोकविभाग- श्चाभिहितः । लक्षण छे एवा +फळथी सहित छे.
भावार्थः — वीतरागसर्वज्ञ महाश्रमणना मुखथी नीकळेला शब्दसमयने कोई आसन्नभव्य पुरुष सांभळीने, ते शब्दसमयना वाच्यभूत पंचास्तिकायस्वरूप अर्थसमयने जाणे छे अने तेनी अंदर आवी जता शुद्धजीवास्तिकायस्वरूप अर्थमां (पदार्थमां) वीतराग निर्विकल्प समाधि वडे स्थित रहीने चार गतिनुं निवारण करी, निर्वाणने पामी, स्वात्मोत्पन्न, अनाकुळतालक्षण, अनंत सुखने प्राप्त करे छे. आ कारणथी द्रव्यागमरूप शब्दसमय नमस्कार करवाने अने व्याख्यान करवाने योग्य छे. २.
अन्वयार्थः — [पंचानां समवादः] पांच अस्तिकायनुं समभावपूर्वक निरूपण [वा] अथवा [समवायः] तेमनो समवाय (-पंचास्तिकायनो सम्यक् बोध अथवा समूह) [समयः] ते समय छे [इति] एम [जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्] जिनवरोए कह्युं छे. [सः च एव लोक : भवति] ते ज लोक छे (-पांच अस्तिकायना समूह जेवडो ज लोक छे); [ततः] तेनाथी आगळ [अमितः अलोकः] अमाप अलोक [खम्] आकाशस्वरूप छे.
टीकाः — अहीं (आ गाथामां) शब्दरूपे, ज्ञानरूपे अने अर्थरूपे ( – शब्दसमय,
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*मूळ गाथामां समवाओ शब्द छे; संस्कृत भाषामां तेनो अर्थ समवादः पण थाय अने समवायः पण थाय.
+चार गतिनुं निवारण (अर्थात् परतंत्रतानी निवृत्ति) अने निर्वाणनी उत्पत्ति (अर्थात् स्वतंत्रतानी प्राप्ति) ते समयनुं फळ छे.