Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन

तत्र च पञ्चानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यामनुपहतो वर्णपद- वाक्यसन्निवेशविशिष्टः पाठो वादः शब्दसमयः शब्दागम इति यावत तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यगवायः परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानागम इति यावत तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः संघातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत तदत्र ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थं शब्दसमयसम्बन्धेनार्थसमयोऽभिधातुमभिप्रेतः अथ तस्यैवार्थसमयस्य द्वैविध्यं लोकालोकविकल्पात स एव पञ्चास्तिकायसमवायो यावांस्तावाँल्लोकस्ततः परममितोऽनन्तो ह्यलोकः, स तु नाभावमात्रं किन्तु


ज्ञानसमय अने अर्थसमय)एम त्रण प्रकारनो ‘समय’शब्दनो अर्थ कह्यो छे तथा लोक-अलोकरूप विभाग कह्यो छे.

त्यां, (१) ‘सम’ एटले मध्यस्थ अर्थात् रागद्वेषथी विकृत नहि बनेलो; ‘वाद’ एटले वर्ण (अक्षर), पद (शब्द) अने वाक्यना समूहवाळो पाठ. पांच अस्तिकायनो ‘समवाद’ अर्थात् मध्यस्थ (-रागद्वेषथी विकृत नहि बनेलो) पाठ (-मौखिक के शास्त्रारूढ निरूपण) ते शब्दसमय छे, एटले के शब्दागम ते शब्दसमय छे. (२) मिथ्यादर्शनना उदयनो नाश होतां, ते पंचास्तिकायनो ज *सम्यक् अवाय अर्थात सम्यक् सम्यक् ज्ञान ते ज्ञानसमय छे, एटले के ज्ञानागम ते ज्ञानसमय छे. (३) कथनना निमित्ते जणायेला ते पंचास्तिकायनो ज वस्तुरूपे *समवाय अर्थात जथ्थो ते अर्थसमय छे, एटले के सर्वपदार्थसमूह ते अर्थसमय छे. तेमां, अहीं ज्ञानसमयनी प्रसिद्धि अर्थे शब्दसमयना संबंधथी अर्थसमय कहेवानो (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवनो) इरादो छे.

हवे, ते ज अर्थसमयनुं, लोक अने अलोकना भेदने लीधे द्विविधपणुं छे. ते ज पंचास्तिकायसमूह जेवडो छे, तेवडो लोक छे. तेनाथी आगळ अमाप अर्थात् अनंत अलोक छे. ते अलोक अभावमात्र नथी परंतु पंचास्तिकायसमूह जेटलुं क्षेत्र बाद करीने लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोकः अर्थात् ज्यां जीवादिपदार्थो जोवामां आवे छे ते

लोक छे. पं. २

समवाय=(१) सम्+अवाय; सम्यक् अवाय; सम्यक् ज्ञान. (२) जथ्थो; समूह. [आ पंचास्तिकाय- संग्रह शास्त्रमां अहीं काळद्रव्य के जे द्रव्य होवा छतां अस्तिकाय नथी तेने विवक्षामां गौण करीने
पंचास्तिकायनो समवाय ते समय छे’ एम कह्युं छे; माटे ‘छ द्रव्यनो समवाय ते समय छे एवा कथनना भाव साथे आ कथनना भावनो विरोध न समजवो, मात्र विवक्षाभेद छे एम
समजवुं. वळी ए ज प्रमाणे अन्य स्थळे पण विवक्षा समजी अविरुद्ध अर्थ समजी लेवो
].