नामप्यूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपपरिणतमहास्कन्धत्वप्राप्तिव्यक्तिशक्ति योगित्वात्तथाविधा सावयव-
त्वसिद्धिरस्त्येवेति ।।५।।
अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्त म् । विभागरूपे परिणत +लोकपूरण अवस्थारूप व्यक्तिनी शक्तिनो सदा सद्भाव होवाथी जीवोने पण कायत्व नामनुं सावयवपणुं छे एम अनुमान करी ज शकाय छे. पुद्गलो पण ऊर्ध्व-अधो-मध्य एवा लोकना (त्रण) विभागरूपे परिणत महास्कंधपणानी प्राप्तिनी व्यक्तिवाळां अथवा शक्तिवाळां होवाथी तेमने पण तेवी (कायत्व नामनी) सावयवपणानी सिद्धि छे ज. ५.
अन्वयार्थः — [त्रैकालिकभावपरिणताः] जे त्रण काळना भावरूपे परिणमे छे तेम ज [नित्याः] नित्य छे [ते च एव अस्तिकायाः] एवा ते ज अस्तिकायो, [परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः] परिवर्तनलिंग (काळ) सहित, [द्रव्यभावं गच्छन्ति] द्रव्यपणाने पामे छे (अर्थात् ते छये द्रव्यो छे).
टीकाः — अहीं पांच अस्तिकायोने तथा काळने द्रव्यपणुं कह्युं छे. पण विभाग करी शकाय छे अने तेथी ते सावयव अर्थात् कायत्ववाळुं छे एम सिद्ध थाय छे.
ए ज रीते धर्म अने अधर्म पण सावयव अर्थात् कायत्ववाळां छे.
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+लोकपूरण=लोकव्यापी. [केवळसमुद्घात वखते जीवने त्रिलोकव्यापी अवस्था थाय छे. ते वखते ‘आ
ऊर्ध्वलोकनो जीवभाग छे, आ अधोलोकनो जीवभाग छे अने आ मध्यलोकनो जीवभाग छे’
एम विभाग करी शकाय छे. आवी त्रिलोकव्यापी अवस्थानी शक्ति तो जीवोमां सदाय छे तेथी
जीवो सदा सावयव अर्थात् कायत्ववाळा छे एम सिद्ध थाय छे.]