अत्र सत्ताद्रव्ययोरर्थान्तरत्वं प्रत्याख्यातम् ।
द्रवति गच्छति सामान्यरूपेण स्वरूपेण व्याप्नोति तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च रही शके, तेथी प्रत्येक वस्तुनी अवान्तरसत्ता निश्चित ‘एक रूपवाळी’ ज छे. (६) महासत्ता सर्व पर्यायोमां रहेली छे तेथी ते ‘अनंतपर्यायमय’ छे. भिन्नभिन्न पर्यायोमां (कथंचित्) भिन्नभिन्न सत्ताओ होय तो ज एक एक पर्याय भिन्नभिन्न रहीने अनंत पर्यायो सिद्ध थाय, नहि तो पर्यायोनुं अनंतपणुं ज न रहे — एकपणुं थई जाय; माटे प्रत्येक पर्यायनी अवान्तरसत्ता ते ते ‘एक पर्यायमय’ ज छे.
आ रीते सामान्यविशेषात्मक सत्ता, महासत्तारूप तेम ज अवान्तरसत्तारूप होवाथी, (१) सत्ता पण छे अने असत्ता पण छे, (२) त्रिलक्षणा पण छे अने अत्रिलक्षणा पण छे, (३) एक पण छे अने अनेक पण छे, (४) सर्वपदार्थस्थित पण छे अने एकपदार्थस्थित पण छे. (५) सविश्वरूप पण छे अने एकरूप पण छे, (६) अनंतपर्यायमय पण छे अने एकपर्यायमय पण छे. ८.
अन्वयार्थः — [तान् तान् सद्भावपर्यायान्] ते ते सद्भावपर्यायोने [यत्] जे [द्रवति] द्रवे छे — [गच्छति] पामे छे, [तत्] तेने [द्रव्यं भणन्ति] (सर्वज्ञो) द्रव्य कहे छे — [सत्तातः अनन्यभूतं तु] के जे सत्ताथी अनन्यभूत छे.
टीकाः — अहीं सत्ताने अने द्रव्यने अर्थांतरपणुं (भिन्नपदार्थपणुं, अन्य- पदार्थपणुं) होवानुं खंडन कर्युं छे.
‘ते ते क्रमभावी अने सहभावी सद्भावपर्यायोने अर्थात् स्वभावविशेषोने जे