अत्र त्रेधा द्रव्यलक्षणमुक्त म् ।
सद्द्रव्यलक्षणम् । उक्त लक्षणायाः सत्ताया अविशेषाद्द्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम् । न चानेकान्तात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वं रूपं यतो लक्ष्यलक्षण- विभागाभाव इति । उत्पादव्ययध्रौव्याणि वा द्रव्यलक्षणम् । एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां संताने पूर्वभावविनाशः समुच्छेदः, उत्तरभावप्रादुर्भावश्च समुत्पादः, पूर्वोत्तरभावोच्छेदोत्पादयोरपि स्वजातेरपरित्यागो ध्रौव्यम् । तानि सामान्यादेशाद-
अन्वयार्थः — [यत्] जे [सल्लक्षणकम्] ‘सत्’लक्षणवाळुं छे, [उत्पादव्यय- ध्रुवत्वसंयुक्तम्] जे उत्पादव्ययध्रौव्यसंयुक्त छे [वा] अथवा [गुणपर्यायाश्रयम्] जे गुणपर्यायोनो आश्रय छे, [तद्] तेने [ सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञो [द्रव्यं] द्रव्य [भणन्ति] कहे छे.
टीकाः — अहीं त्रण प्रकारे द्रव्यनुं लक्षण कह्युं छे.
‘सत्’ द्रव्यनुं लक्षण छे. पूर्वोक्त लक्षणवाळी सत्ताथी द्रव्य अभिन्न होवाने लीधे ‘सत्’स्वरूप ज द्रव्यनुं लक्षण छे. वळी अनेकांतात्मक द्रव्यनुं सत्मात्र ज स्वरूप नथी के जेथी लक्ष्यलक्षणना विभागनो अभाव थाय. (सत्ताथी द्रव्य अभिन्न छे तेथी द्रव्यनुं जे सत्तारूप स्वरूप ते ज द्रव्यनुं लक्षण छे. प्रश्नः — जो सत्ता ने द्रव्य अभिन्न छे — सत्ता द्रव्यनुं स्वरूप ज छे, तो ‘सत्ता लक्षण छे अने द्रव्य लक्ष्य छे’ एवो विभाग कई रीते घटे छे? उत्तरः — अनेकांतात्मक द्रव्यनां अनंत स्वरूपो छे, तेमांथी सत्ता पण तेनुं एक स्वरूप छे; तेथी अनंतस्वरूपवाळुं द्रव्य लक्ष्य छे अने तेनुं सत्ता नामनुं स्वरूप लक्षण छे — एवो लक्ष्यलक्षणविभाग अवश्य घटे छे. आ रीते अबाधितपणे सत् द्रव्यनुं लक्षण छे.)
अथवा, उत्पादव्ययध्रौव्य द्रव्यनुं लक्षण छे. *एक जातिनो अविरोधक एवो जे क्रमभावी भावोनो प्रवाह तेमां पूर्व भावनो विनाश ते व्यय छे, उत्तर भावनो प्रादुर्भाव ( — पछीना भावनी एटले के वर्तमान भावनी उत्पत्ति) ते उत्पाद छे अने पूर्व-उत्तर भावोना व्यय-उत्पाद थतां पण स्वजातिनो अत्याग ते ध्रौव्य छे. ते उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पं. ४
*द्रव्यमां क्रमभावी भावोनो प्रवाह एक जातिने खंडतो — तोडतो नथी अर्थात् जाति-अपेक्षाए सदा एकपणुं ज राखे छे.