सदावेदयन्ति, गुणपर्यायांश्चात्मलाभनिबन्धनभूतान् प्रथयन्ति । गुणपर्यायास्त्वन्वयव्यतिरेकि- त्वाद्ध्रौव्योत्पत्तिविनाशान् सूचयन्ति, नित्यानित्यस्वभावं परमार्थं सच्चोपलक्षयन्तीति ।।१०।। उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो ।
अत्रोभयनयाभ्यां द्रव्यलक्षणं प्रविभक्त म् । जणावे छे तथा (२) १पोताना स्वरूपनी प्राप्तिना कारणभूत गुणपर्यायोने जाहेर करे छे, २गुणपर्यायो अन्वय अने व्यतिरेकवाळा होवाथी (१) ध्रौव्यने अने उत्पादव्ययने सूचवे छे तथा (२) नित्यानित्यस्वभाववाळा पारमार्थिक सत्ने जणावे छे.
भावार्थः — द्रव्यनां त्रण लक्षणो छेःसत्, उत्पादव्ययध्रौव्य अने गुणपर्यायो. आ त्रणे लक्षणो परस्पर अविनाभावी छे; ज्यां एक होय त्यां बाकीनां बंने नियमथी होय छे. १०.
अन्वयार्थः — [द्रव्यस्य च] द्रव्यनो [उत्पत्तिः] उत्पाद [वा] के [विनाशः] विनाश [न अस्ति] नथी, [सद्भावः अस्ति] सद्भाव छे. [तस्य एव पर्यायाः] तेना ज पर्यायो [विगमोत्पादध्रुवत्वं] विनाश, उत्पाद अने ध्रुवता [कुर्वन्ति] करे छे.
टीकाः — अहीं बन्ने नयो वडे द्रव्यनुं लक्षण विभक्त कर्युं छे (अर्थात्) बे नयोनी
१. पोताना=उत्पादव्ययध्रौव्यना. (जो गुण होय तो ज ध्रौव्य होय अने जो पर्यायो होय तो ज
उत्पादव्यय होय; माटे जो गुणपर्यायो न होय तो उत्पादव्ययध्रौव्य पोताना स्वरूपने पामी शके
ज नहि. आ रीते ‘द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यवाळुं छे’ एम कहेता ते गुणपर्यायवाळुं पण जाहेर थई
जाय छे.)
२. प्रथम तो, गुणपर्यायो अन्वय द्वारा ध्रौव्यने सूचवे छे अने व्यतिरेक द्वारा उत्पादव्ययने सूचवे छे;
आ रीते तेओ उत्पादव्ययध्रौव्यने सूचवे छे. बीजुं, गुणपर्यायो अन्वय द्वारा नित्यताने जणावे छे
अने व्यतिरेक द्वारा अनित्यताने जणावे छे; आ रीते तेओ नित्यानित्यस्वरूप सत्ने जणावे छे.