उभाभ्यामशून्यशून्यत्वात्, सहावाच्यत्वात्, भङ्गसंयोगार्पणायामशून्यावाच्यत्वात्, शून्यावाच्य- त्वात्, अशून्यशून्यावाच्यत्वाच्चेति ।।१४।।
अत्रासत्प्रादुर्भावत्वमुत्पादस्य सदुच्छेदत्वं विगमस्य निषिद्धम् । छे, (६) ‘शून्य अने अवाच्य’ छे, (७) ‘अशून्य, शून्य अने अवाच्य’ छे.
भावार्थः — (१) द्रव्य *स्वचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे’. (२) द्रव्य परचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘नथी’. (३) द्रव्य क्रमशः स्वचतुष्टयनी अने परचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे अने नथी’. (४) द्रव्य युगपद् स्वचतुष्टयनी अने परचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘अवक्तव्य छे.’ (५) द्रव्य स्वचतुष्टयनी अने युगपद् स्वपरचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे अने अवक्तव्य छे.’ (६) द्रव्य परचतुष्टयनी अने युगपद् स्वपरचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘नथी अने अवक्तव्य छे.’ (७) द्रव्य स्वचतुष्टयनी, परचतुष्टयनी अने युगपद् स्वपरचतुष्टयनी अपेक्षाथी ‘छे, नथी अने अवक्तव्य छे’. — ए प्रमाणे अहीं सप्तभंगी कहेवामां आवी. १४.
अन्वयार्थः — [भावस्य] भावनो (सत्नो) [नाशः] नाश [न अस्ति] नथी [च एव] तेम ज [अभावस्य] अभावनो (असत्नो) [उत्पादः] उत्पाद [न अस्ति] नथी; [भावाः] भावो (सत् द्रव्यो) [गुणपर्यायेषु] गुणपर्यायोमां [उत्पादव्ययान्] उत्पादव्यय [प्रकुर्वन्ति] करे छे.
टीकाः — अहीं उत्पादने विषे असत्नो प्रादुर्भाव होवानुं अने व्ययने विषे
३२
*स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाळ अने स्वभावने स्वचतुष्टय कहेवामां आवे छे. स्वद्रव्य एटले निज
गुणपर्यायोना आधारभूत वस्तु पोते; स्वक्षेत्र एटले वस्तुनो निज विस्तार अर्थात् स्वप्रदेशसमूह;
स्वकाळ एटले वस्तुनो पोतानो वर्तमान पर्याय; स्वभाव एटले निजगुण — स्वशक्ति.