Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 17.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
३५
स्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ताः शुद्धाः, सूत्रोपात्तास्तु सुरनारकतिर्यङ्मनुष्यलक्षणाः परद्रव्य-
सम्बन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति
।।१६।।

मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा

उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो ।।१७।।
मनुष्यत्वेन नष्टो देही देवो भवतीतरो वा
उभयत्र जीवभावो न नश्यति न जायतेऽन्यः ।।१७।।

इदं भावनाशाभावोत्पादनिषेधोदाहरणम्

प्रतिसमयसम्भवदगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्तस्वभावपर्यायसन्तत्यविच्छेदकेनैकेन सोपा- धिना मनुष्यत्वलक्षणेन पर्यायेण विनश्यति जीवः, तथाविधेन देवत्वलक्षणेन (अर्थात


् जीवना *गुणो शुद्ध-अशुद्ध चेतना तथा बे प्रकारनो उपयोग छे).

जीवना पर्यायो आ प्रमाणे छेः अगुरुलघुगुणनी हानिवृद्धिथी रचाता पर्यायो शुद्ध पर्यायो छे अने सूत्रमां (आ गाथामां) कहेला, देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्यस्वरूप पर्यायो परद्रव्यना संबंधथी रचाता होवाथी अशुद्ध पर्यायो छे. १६.

मनुजत्वथी व्यय पामीने देवादि देही थाय छे;
त्यां जीवभाव न नाश पामे, अन्य नहि उद्भव लहे. १७.

अन्वयार्थ[मनुष्यत्वेन] मनुष्यपणाथी [नष्टः] नष्ट थयेलो [देही] देही (जीव) [देवः वा इतरः] देव अथवा अन्य [भवति] थाय छे; [उभयत्र] ते बन्नेमां [जीवभावः] जीवभाव [न नश्यति] नष्ट थतो नथी अने [अन्यः] बीजो जीवभाव [न जायते] उत्पन्न थतो नथी.

टीका‘भावनो नाश थतो नथी अने अभावनो उत्पाद थतो नथी’ तेनुं आ उदाहरण छे.

प्रत्येक समये थती अगुरुलघुगुणनी हानिवृद्धिथी रचाता स्वभावपर्यायोनी संततिनो विच्छेद नहि करनारा एक सोपाधिक मनुष्यत्वस्वरूप पर्यायथी जीव विनाश पामे छे अने तथाविध (स्वभावपर्यायोना प्रवाहने नहि तोडनारा सोपाधिक)

*पर्यायार्थिक नये गुणो पण परिणामी छे. (१५मी गाथानी टीका जुओ.)