सम्बन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति ।।१६।।
मणुसत्तणेण णट्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा ।
इदं भावनाशाभावोत्पादनिषेधोदाहरणम् ।
प्रतिसमयसम्भवदगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्तस्वभावपर्यायसन्तत्यविच्छेदकेनैकेन सोपा-
धिना मनुष्यत्वलक्षणेन पर्यायेण विनश्यति जीवः, तथाविधेन देवत्वलक्षणेन
(अर्थात
् जीवना *गुणो शुद्ध-अशुद्ध चेतना तथा बे प्रकारनो उपयोग छे).
जीवना पर्यायो आ प्रमाणे छेः अगुरुलघुगुणनी हानिवृद्धिथी रचाता पर्यायो शुद्ध पर्यायो छे अने सूत्रमां ( – आ गाथामां) कहेला, देव-नारक-तिर्यंच-मनुष्यस्वरूप पर्यायो परद्रव्यना संबंधथी रचाता होवाथी अशुद्ध पर्यायो छे. १६.
अन्वयार्थः — [मनुष्यत्वेन] मनुष्यपणाथी [नष्टः] नष्ट थयेलो [देही] देही (जीव) [देवः वा इतरः] देव अथवा अन्य [भवति] थाय छे; [उभयत्र] ते बन्नेमां [जीवभावः] जीवभाव [न नश्यति] नष्ट थतो नथी अने [अन्यः] बीजो जीवभाव [न जायते] उत्पन्न थतो नथी.
टीकाः — ‘भावनो नाश थतो नथी अने अभावनो उत्पाद थतो नथी’ तेनुं आ उदाहरण छे.
प्रत्येक समये थती अगुरुलघुगुणनी हानिवृद्धिथी रचाता स्वभावपर्यायोनी संततिनो विच्छेद नहि करनारा एक सोपाधिक मनुष्यत्वस्वरूप पर्यायथी जीव विनाश पामे छे अने तथाविध ( – स्वभावपर्यायोना प्रवाहने नहि तोडनारा सोपाधिक)
*पर्यायार्थिक नये गुणो पण परिणामी छे. (१५मी गाथानी टीका जुओ.)