Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 18.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

नारकतिर्यक्त्वलक्षणेन वान्येन पर्यायेणोत्पद्यते न च मनुष्यत्वेन नाशे जीवत्वेनापि नश्यति, देवत्वादिनोत्पादे जीवत्वेनाप्युत्पद्यते; किन्तु सदुच्छेदमसदुत्पादमन्तरेणैव तथा विवर्तत इति ।।१७।। सो चेव जादि मरणं जादि ण णट्ठो ण चेव उप्पण्णो

उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसो त्ति पज्जाओ ।।१८।।
स च एव याति मरणं याति न नष्टो न चैवोत्पन्नः
उत्पन्नश्च विनष्टो देवो मनुष्य इति पर्यायः ।।१८।।

अत्र कथंचिद्वययोत्पादवत्त्वेऽपि द्रव्यस्य सदाविनष्टानुत्पन्नत्वं ख्यापितम्

यदेव पूर्वोत्तरपर्यायविवेकसंपर्कापादितामुभयीमवस्थामात्मसात्कुर्वाणमुच्छिद्यमानमुत्पद्य- मानं च द्रव्यमालक्ष्यते, तदेव तथाविधोभयावस्थाव्यापिना प्रतिनियतैकवस्तुत्वनिबन्धनभूतेन


देवत्वस्वरूप, नारकत्वस्वरूप के तिर्यंचत्वस्वरूप अन्य पर्यायथी ऊपजे छे. त्यां एम नथी के मनुष्यपणाथी नाश थतां जीवपणाथी पण नष्ट थाय छे अने देवपणा वगेरेथी उत्पाद थतां जीवपणाथी पण उत्पन्न थाय छे, परंतु सत्ना उच्छेद अने असत्ना उत्पाद विना ज ते प्रमाणे विवर्तन (परिवर्तन, परिणमन) करे छे. १७.

जन्मे मरे छे ते ज, तोपण नाश-उद्भव नव लहे;
सुर-मानवादिक पर्ययो उत्पन्न ने लय थाय छे. १८.

अन्वयार्थ[सः च एव] ते ज [याति] जन्मे छे अने [मरणं याति] मरण पामे छे छतां [न एव उत्पन्नः] ते उत्पन्न थतो नथी [] अने [न नष्टः] नष्ट थतो नथी; [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य [इति पर्यायः] एवो पर्याय [उत्पन्नः] उत्पन्न थाय छे [] अने [विनष्टः] विनष्ट थाय छे.

टीकाअहीं, द्रव्य कथंचित् व्यय अने उत्पादवाळुं होवा छतां तेनुं सदा अविनष्टपणुं अने अनुत्पन्नपणुं कह्युं छे.

जे द्रव्य पूर्व पर्यायना वियोगथी अने उत्तर पर्यायना संयोगथी थती उभय अवस्थाने आत्मसात् (पोतारूप) करतुं थकुं विनाश पामतुं अने ऊपजतुं जोवामां आवे

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१. पूर्व=पहेलांना २.उत्तर=पछीना