Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 19.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
३७

स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं वा वेद्यते पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामोपमर्दोत्तरोत्तरपरिणामो- त्पादरूपाः प्रणाशसम्भवधर्माणोऽभिधीयन्ते ते च वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः ततः पर्यायैः सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमपि जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्नाविनष्टं द्रष्टव्यम् देव- मनुष्यादिपर्यायास्तु क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति ।।१८।। एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो

तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो ।।१९।।
एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य नास्त्युत्पादः
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनाम ।।१९।।

अत्र सदसतोरविनाशानुत्पादौ स्थितिपक्षत्वेनोपन्यस्तौ छे, ते ज (द्रव्य) तेवी उभय अवस्थामां व्यापनारो जे प्रतिनियत-एक-वस्तुत्वना कारणभूत स्वभाव तेना वडे (ते स्वभावनी अपेक्षाए) अविनष्ट अने अनुत्पन्न जणाय छे; तेना पर्यायो पूर्व पूर्व परिणामना नाशरूप अने उत्तर उत्तर परिणामना उत्पादरूप होवाथी विनाशउत्पादधर्मवाळा (विनाश ने उत्पादरूप धर्मवाळा) कहेवामां आवे छे, अने तेओ (पर्यायो) वस्तुपणे द्रव्यथी अपृथग्भूत ज कहेवामां आव्या छे. तेथी, पर्यायो साथे एकवस्तुपणाने लीधे जन्मतुं अने मरतुं होवा छतां जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न अने अविनष्ट ज देखवुं (श्रद्धवुं); देव-मनुष्यादि पर्यायो ऊपजे छे अने विनाश पामे छे कारण के तेओ क्रमवर्ती होवाथी तेमनो स्वसमय उपस्थित थाय छे अने वीती जाय छे. १८.

ए रीत सत्-व्यय ने असत्-उत्पाद होय न जीवने;
सुरनरप्रमुख गतिनामनो हदयुक्त काळ ज होय छे. १९.

अन्वयार्थ[एवं] ए रीते [जीवस्य] जीवने [ सतः विनाशः ] सत्नो विनाश अने [असतः उत्पादः] असत्नो उत्पाद [न अस्ति] नथी; (देव जन्मे छे ने मनुष्य मरे छे’ एम कहेवाय छे तेनुं ए कारण छे के) [जीवानाम्] जीवोने [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य [इति गतिनाम] एवुं गतिनामकर्म [तावत] तेटला ज काळनुं होय छे.

टीकाअहीं सत्नो अविनाश अने असत्नो अनुत्पाद ध्रुवताना पक्षथी कह्यो