Panchastikay Sangrah-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 27.

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पंचास्तिकायसंग्रह
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

जीवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता

भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ।।२७।।
जीव इति भवति चेतयितोपयोगविशेषितः प्रभुः कर्ता
भोक्ता च देहमात्रो न हि मूर्तः कर्मसंयुक्त : ।।२७।।

अत्र संसारावस्थस्यात्मनः सोपाधि निरुपाधि च स्वरूपमुक्त म्

आत्मा हि निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीवः, व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाज्जीवः निश्चयेन चिदात्मकत्वात्, व्यवहारेण चिच्छक्ति युक्त त्वाच्चेतयिता निश्चयेनापृथग्भूतेन, व्यवहारेण पृथग्भूतेन चैतन्यपरिणामलक्षणेनोपयोगेनोपलक्षितत्वादुपयोगविशेषितः निश्चयेन भावकर्मणां,

छे जीव, चेतयिता, प्रभु, उपयोगचिह्न, अमूर्त छे,
कर्ता अने भोक्ता, शरीरप्रमाण, कर्मे युक्त छे. २७.

अन्वयार्थ[जीवः इति भवति] (संसारस्थित) आत्मा जीव छे, [चेतयिता] चेतयिता (चेतनारो) छे, [उपयोगविशेषितः] उपयोगलक्षित छे, [प्रभुः] प्रभु छे, [कर्ता] कर्ता छे, [भोक्ता] भोक्ता छे, [देहमात्रः] देहप्रमाण छे, [न हि मूर्तः] अमूर्त छे [] अने [कर्मसंयुक्तः] कर्मसंयुक्त छे.

टीकाअहीं (आ गाथामां) संसार-अवस्थावाळा आत्मानुं सोपाधि अने निरुपाधि स्वरूप कह्युं छे.

आत्मा निश्चये भावप्राणना धारणने लीधे ‘जीव’ छे, व्यवहारे (असद्भूत व्यवहारनये) द्रव्यप्राणना धारणने लीधे ‘जीव’ छे; निश्चये चित्स्वरूप होवाथी चेतयिता’ (चेतनारो) छे, व्यवहारे (सद्भूत व्यवहारनये) चित्शक्तियुक्त होवाथी चेतयिता’ छे; निश्चये अपृथग्भूत एवा चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग वडे लक्षित होवाथी ‘उपयोगलक्षित’ छे, व्यवहारे (सद्भूत व्यवहारनये) पृथग्भूत एवा

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१. सोपाधि=उपाधि सहित; जेमां परनी अपेक्षा आवती होय एवुं.

२. निश्चये चित्शक्तिने आत्मा साथे अभेद छे अने व्यवहारे भेद छे; तेथी निश्चये आत्मा चित्शक्ति- स्वरूप छे अने व्यवहारे चित्शक्तिवान छे.

३. अपृथग्भूत=अपृथक्; अभिन्न. (निश्चये उपयोग आत्माथी अपृथक् छे अने व्यवहारे पृथक् छे.)