Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 116-117.

< Previous Page   Next Page >


Page 174 of 264
PDF/HTML Page 203 of 293

 

] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द

१७४

उद्दंसमसयमक्खियमधुकरिभमरा पयंगमादीया।
रूवं रसं च गंधं फासं पुण ते विजाणंति।। ११६।।

उद्दंशमशकमक्षिकामधुकरीभ्रमराः पतङ्गाद्याः।
रूपं रसं च गंधं स्पर्शं पुनस्ते विजानन्ति।। ११६।।

चतुरिन्द्रियप्रकारसूचनेयम्। एते स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमात् श्रोत्रेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रिया–वरणोदये च सति स्पर्शरसगंधवर्णानां परिच्छेत्तारश्चतुरिन्द्रिया अमनसो भवंतीति।। ११६।।

सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्हू।
जलचरथलचरखचरा बलिया पंचेंदिया जीवा।। ११७।।

-----------------------------------------------------------------------------

गाथा ११६

अन्वयार्थः– [पुनः] पुनश्च [उद्दंशमशकमक्षिकामधुकरीभ्रमराः] डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी, भँवरा और [पतङ्गाद्याः ते] पतंगे आदि जीव [रूपं] रूप, [रसं] रस, [गंधं] गन्ध [च] और [स्पर्शं] स्पर्शको [विजानन्ति] वजानते हैं। [वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं।]

टीकाः– यह, चतुरिन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना है।

स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा श्रोत्रेन्द्रियके आवरणका उदय तथा मनके आवरणका उदय होनेसे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णको जाननेवाले यह [डाँस आदि] जीव मनरहित चतुरिन्द्रिय जीव हैं।। ११६।। --------------------------------------------------------------------------

मधमाख, भ्रमर, पतंग, माखी, डांस, मच्छर आदि जे,
ते जीव जाणे स्पर्शने, रस, गंध तेम ज रूपने। ११६।
स्पर्शादि पंचक जाणतां तिर्यंच–नारक–सुर–नरो
–जळचर, भूचर के खेचरो–बळवान पंचेंद्रिय जीवो। ११७।