Panchastikay Sangrah (Hindi). Aasrav padarth ka vyakhyan.

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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
कर्माण्यवगाहते, तत्परिणामनिमित्तलब्धात्मपरिणामैः मूर्तकर्मभिरपि विशिष्टतयाऽवगाह्यते च।
अयं त्वन्योन्यावगाहात्मको जीवमूर्तकर्मणोर्बंधप्रकारः। एवममूर्तस्यापि जीवस्य मूर्तेन पुण्यपापकर्मणा
कथञ्चिद्बन्धो न विरुध्यते।। १३४।।
–इति पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम्।
अथ आस्रवपदार्थव्याख्यानम्।
रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो।
चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।। १३५।।
रागो यस्य प्रशस्तोऽनुकम्पासंश्रितश्च परिणामः।
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति।। १३५।।
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पुनश्च [अमूर्त जीवका मूर्तकर्मोंके साथ बन्धप्रकार इस प्रकार है कि], निश्चयनयसे जो अमूर्त
है ऐसा जीव, अनादि मूर्तकर्म जिसका निमित्त है ऐसे रागादिपरिणाम द्वारा स्निग्ध वर्तता हुआ,
मूर्तकर्मोंको विशिष्टरूपसे अवगाहता है [अर्थात् एक–दूसरेको परिणाममें निमित्तमात्र हों ऐसे
सम्बन्धविशेष सहित मूर्तकर्मोंके क्षेत्रमें व्याप्त होता है] और उस रागादिपरिणामके निमित्तसे जो
अपने [ज्ञानावरणादि] परिणामको प्राप्त होते हैं ऐसे मूर्तकर्म भी जीवको विशिष्टरूपसे अवगाहते हैं
[अर्थात् जीवके प्रदेशोंके साथ विशिष्टतापूर्वक एकक्षेत्रावगाहको प्राप्त होते हैं]। यह, जीव और
मूर्तकर्मका अन्योन्य–अवगाहस्वरूप बन्धप्रकार है। इस प्रकार
अमूर्त ऐसे जीवका भी मूर्त
पुण्यपापकर्मके साथ कथंचित् [–किसी प्रकार] बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होता।। १३४।।
इस प्रकार पुण्य–पापपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब आस्रवपदार्थका व्याख्यान है।
गाथा १३५
अन्वयार्थः– [यस्य] जिस जीवको [प्रशस्तः रागः] प्रशस्त राग है, [अनुकम्पासंश्रितः
परिणामः] अनुकम्पायुक्त परिणाम हैे [च] और [चित्ते कालुष्यं न अस्ति] चित्तमें कलुषताका अभाव
है, [जीवस्य] उस जीवको [पुण्यम् आस्रवति] पुण्य आस्रवित होता है।
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छे रागभाव प्रशस्त, अनुकंपासहित परिणाम छे,
मनमां नहीं कालुष्य छे, त्यां पुण्य–आस्रव होय छे। १३५।