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] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सण्णाओ य तिलेस्सा इंदियवसदा य अट्टरुद्दाणि।
णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होंति।। १४०।।
संज्ञाश्च त्रिलेश्या इन्द्रियवशता चार्तरौद्रे।
ज्ञानं च दुःप्रयुक्तं मोहः पापप्रदा भवन्ति।। १४०।।
पापास्रवभूतभावप्रपञ्चाख्यानमेतत्।
तीव्रमोहविपाकप्रभवा आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाः, तीव्रकषायोदयानुरंजितयोगप्रवृत्ति–रूपाः
कृष्णनीलकापोतलेश्यास्तिस्रः, रागद्वेषोदयप्रकर्षादिन्द्रियाधीनत्वम्,
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कारणभूत हैं इसलिये ‘द्रव्यपापास्रव’ के प्रसंगका १अनुसरण करके [–अनुलक्ष करके] वे अशुभ भाव
भावपापास्रव हैं और वे [अशुभ भाव] जिनका निमित्त हैं ऐसे जो योगद्वारा प्रविष्ट होनेवाले
पुद्गलोंके अशुभकर्मपरिणाम [–अशुभकर्मरूप परिणाम] वे द्रव्यपापास्रव हैं।। १३९।।
गाथा १४०
अन्वयार्थः– [संज्ञाः च] [चारों] संज्ञाएँ, [त्रिलेश्या] तीन लेश्याएँ, [इन्द्रियवशता च]
इन्द्रियवशता, [आर्तरौद्रे] आर्त–रौद्रध्यान, [दुःप्रयुक्तं ज्ञानं] दुःप्रयुक्त ज्ञान [–दुष्टरूपसे अशुभ
कार्यमें लगा हुआ ज्ञान] [च] और [मोहः] मोह–[पापप्रदाः भवन्ति] यह भाव पापप्रद है।
टीकाः– यह, पापास्रवभूत भावोंके विस्तारका कथन है।
तीव्र मोहके विपाकसे उत्पन्न होनेवाली आहार–भय–मैथुन–परिग्रहसंज्ञाएँ; तीव्र कषायके
उदयसे २अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप कृष्ण–नील–कापोत नामकी तीन लेश्याएँ;
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१। असातावेदनीयादि पुद्गलपरिणामरूप द्रव्यपापास्रवका जो प्रसंग बनता है उसमें जीवके अशुभ भाव
निमित्तकारण हैं इसलियेे ‘द्रव्यपापास्रव’ प्रसंगके पीछे–पीछे उनके निमित्तभूत अशुभ भावोंको भी
‘भावपापास्रव’ ऐसा नाम है।
२। अनुरंजित = रंगी हुई। [कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति वह लेश्या है। वहाँ, कृष्णादि तीन लेश्याएँ
तीव्र कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप है।]
संज्ञा, त्रिलेश्या, इन्द्रिवशता, आर्तरौद्र ध्यान बे,
वळी मोह ने दुर्युक्त ज्ञान प्रदान पाप तणुं करे। १४०।