कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
रागद्वेषोद्रेकात्प्रिय–संयोगाप्रियवियोगवेदनामोक्षणनिदानाकांक्षणरूपमार्तम्, कषायक्रूराशयत्वाद्धिंसाऽसत्यस्तेयविषय–संरक्षणानंदरूपं रौद्रम्, नैष्कर्म्यं तु शुभकर्मणश्चान्यत्र दुष्टतया प्रयुक्तं ज्ञानम्, सामान्येन दर्शन–चारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपो मोहः, –एषः भावपापास्रवप्रपञ्चो द्रव्यपापास्रवप्रपञ्चप्रदो भवतीति।। १४०।।
अथ संवरपदार्थव्याख्यानम्।
जावत्तावत्तेसिं पिहिदं पावासवच्छिद्दं।। १४१।।
----------------------------------------------------------------------------- रागद्वेषके उदयके १प्रकर्षके कारण वर्तता हुआ इन्द्रियाधीनपना; रागद्वेषके २उद्रेकके कारण प्रियके संयोगकी, अप्रियके वियोगकी, वेदनासे छुटकाराकी तथा निदानकी इच्छारूप आर्तध्यानः कषाय द्वारा ३क्रूर ऐसे परिणामके कारण होनेवाला हिंसानन्द, असत्यानन्द, स्तेयानन्द एवं विषयसंरक्षणानन्दरूप रौद्रध्यान; निष्प्रयोजन [–व्यर्थ] शुभ कर्मसे अन्यत्र [–अशुभ कार्यमें] दुष्टरूपसे लगा हुआ ज्ञान; और सामान्यरूपसे दर्शनचारित्र मोहनीयके उदयसे उत्पन्न अविवेकरूप मोह;– यह, भावपापास्रवका विस्तार द्रव्यपापास्रवके विस्तारको प्रदान करनेवाला है [अर्थात् उपरोक्त भावपापास्रवरूप अनेकविध भाव वैसे–वैसे अनेकविध द्रव्यपापास्रवमें निमित्तभूत हैं]।। १४०।।
इस प्रकार आस्रवपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
अब, संवरपदार्थका व्याख्यान है। -------------------------------------------------------------------------
२। उद्रेक = बहुलता; अधिकता ।
मार्गे रही संज्ञा–कषायो–इन्द्रिनो निग्रह करे,
पापासरवनुं छिद्र तेने तेटलुं रूंधाय छे। १४१।