Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 142.

< Previous Page   Next Page >


Page 204 of 264
PDF/HTML Page 233 of 293

 

background image
२०४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इन्द्रियकषायसंज्ञा निगृहीता यैः सुष्ठु मार्गे।
यावत्तावतेषां पिहितं पापास्रवछिद्रम्।। १४१।।
अनन्तरत्वात्पापस्यैव संवराख्यानमेतत्।
मार्गो हि संवरस्तन्निमित्तमिन्द्रियाणि कषायाः संज्ञाश्च यावतांशेन यावन्तं वा कालं निगृह्यन्ते
तावतांशेन तावन्तं वा कालं पापास्रवद्वारं पिधीयते। इन्द्रियकषायसंज्ञाः भावपापास्रवो
द्रव्यपापास्रवहेतुः पूर्वमुक्तः। इह तन्निरोधो भावपापसंवरो द्रव्यपापसंवरहेतुरवधारणीय इति।।१४१।।
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व सव्वदव्वेसु।
णासवदि
सुहं असुहं समसुहदुक्खस्स भिक्खुस्स।। १४२।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १४१
अन्वयार्थः– [यैः] जो [सुष्ठु मार्गे] भली भाँति मार्गमें रहकर [इन्द्रियकषायसंज्ञाः] इन्द्रियाँ,
कषायों और संज्ञाओंका [यावत् निगृहीताः] जितना निग्रह करते हैं, [तावत्] उतना
[पापास्रवछिद्रम्] पापास्रवका छिद्र [तेषाम्] उनको [पिहितम्] बन्ध होता है।
टीकाः– पापके अनन्तर होनेसेे, पापके ही संवरका यह कथन है [अर्थात् पापके कथनके
पश्चात तुरन्त होनेसेे, यहाँ पापके ही संवरका कथन किया गया है]।
मार्ग वास्तवमें संवर है; उसके निमित्तसे [–उसके लिये] इन्द्रियों, कषायों तथा संज्ञाओंका
जितने अंशमें अथवा जितने काल निग्रह किया जाता है, उतने अंशमें अथवा उतने काल
पापास्रवद्वारा बन्ध होता है।
इन्द्रियों, कषायों और संज्ञाओं–भावपापास्रव––को द्रव्यपापास्रवका हेतु [–निमित्त] पहले
[१४० वीं गाथामें] कहा था; यहाँ [इस गाथामें] उनका निरोध [–इन्द्रियों, कषायों और संज्ञाओंका
निरोध]–भावपापसंवर–द्रव्य–पापसंवरका हेतु अवधारना [–समझना]।। १४१।।
-------------------------------------------------------------------------
सौ द्रव्यमां नहि राग–द्वेष–विमोह वर्ते जेहने,
शुभ–अशुभ कर्म न आस्रवे समदुःखसुख ते भिक्षुने। १४२।