Panchastikay Sangrah (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२०५
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा सर्वद्रव्येषु।
नास्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः।। १४२।।
सामान्यसंवरस्वरूपाख्यानमेतत्।
यस्य रागरूपो द्वेषरूपो मोहरूपो वा समग्रपरद्रव्येषु न हि विद्यते भावः तस्य
निर्विकारचैतन्यत्वात्समसुखदुःखस्य भिक्षोः शुभमशुभञ्च कर्म नास्रवति, किन्तु संव्रियत एव। तदत्र
मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः। तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां
पुद्गलानां द्रव्यसंवर इति।। १४२।।
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गाथा १४२
अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [सर्वद्रव्येषु] सर्व द्रव्योंके प्रति [रागः] राग, [द्वेषः] द्वेष [वा] या
[मोहः] मोह [न विद्यते] नहीं है, [समसुखदुःखस्य भिक्षोः] उस समसुखदुःख भिक्षुको [–
सुखदुःखके प्रति समभाववाले मुनिको] [शुभम् अशुभम्] शुभ और अशुभ कर्म [न आस्रवति]
आस्रवित नहीं होते।
टीकाः– यह, सामान्यरूपसे संवरके स्वरूपका कथन है।
जिसे समग्र परद्रव्योंके प्रति रागरूप, द्वेषरूप या मोहरूप भाव नहीं है, उस भिक्षुको – जो
कि निर्विकारचैतन्यपनेके कारण समसुखदुःख है उसेे–शुभ और अशुभ कर्मका आस्रव नहीं होता,
परन्तु संवर ही होता है। इसलिये यहाँ [ऐसा समझना कि] मोहरागद्वेषपरिणामका निरोध सो
भावसंवर है, और वह [मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध] जिसका निमित्त है ऐसा जो योगद्वारा
प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभाशुभकर्मपरिणामका [शुभाशुभकर्मरूप परिणामका] निरोध सो
द्रव्यसंवर है।। १४२।।
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१। समसुखदुःख = जिसे सुखदुःख समान है ऐसेः इष्टानिष्ट संयोगोमें जिसे हर्षशोकादि विषम परिणाम नहीं होते
ऐसे। [जिसे रागद्वेषमोह नहीं है, वह मुनि निर्विकारचैतन्यमय है अर्थात् उसका चैतन्य पर्यायमें भी
विकाररहित है इसलिये समसुखदुःख है।]