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संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स
संवरणं तस्य तदा शुभाशुभकृतस्य कर्मणः।। १४३।।
विशेषेण संवरस्वरूपाख्यानमेतत्।
यस्य योगिनो विरतस्य सर्वतो निवृत्तस्य योगे वाङ्मनःकायकर्मणि शुभपरिणामरूपं पुण्यमशुभपरिणामरूपं पापञ्च यदा न भवति तस्य तदा शुभाशुभभावकृतस्य द्रव्यकर्मणः संवरः स्वकारणाभावात्प्रसिद्धयति। तदत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंवरो द्रव्यपुण्यपाप–संवरस्य हेतुः प्रधानोऽवधारणीय इति।। १४३।।
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अन्वयार्थः– [यस्य] जिसे [–जिस मुनिको], [विरतस्य] विरत वर्तते हुए [योगे] योगमें [पुण्यं पापं च] पुण्य और पाप [यदा] जब [खलु] वास्तवमें [न अस्ति] नहीं होते, [तदा] तब [तस्य] उसे [शुभाशुभकृतस्य कर्मणाः] शुभाशुभभावकृत कर्मका [संवरणम्] संवर होता है।
टीकाः– यह, विशेषरूपसे संवरका स्वरूपका कथन है।
जिस योगीको, विरत अर्थात् सर्वथा निवृत्त वर्तते हुए, योगमें–वचन, मन और कायसम्बन्धी क्रियामेंं–शुभपरिणामरूप पुण्य और अशुभपरिणामरूप पाप जब नहीं होते, तब उसे शुभाशुभभावकृत द्रव्यकर्मका [–शुभाशुभभाव जिसका निमित्त होता है ऐसे द्रव्यकर्मका], स्वकारणके अभावके कारण संवर होता है। इसलिये यहाँ [इस गाथामें] शुभाशुभ परिणामका निरोध–भावपुण्यपापसंवर– द्रव्यपुण्यपापसंवरका प्रधान हेतु अवधारना [–समझना]।। १४३।।
इस प्रकार संवरपदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ। ------------------------------------------------------------------------- प्रधान हेतु = मुख्य निमित्त। [द्रव्यसंवरमें ‘मुख्य निमित्त’ जीवके शुभाशुभ परिणामका निरोध है। योगका निरोध नहीं है। [ यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि द्रव्यसंवरका उपादान कारण– निश्चय कारण तो पुद्गल स्वयं ही है।]
त्यारे शुभाशुभकृत करमनो थाय संवर तेहने। १४३।