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भावणिमित्तो बंधो भावो रदिरागदोसमोहजुदो।। १४८।।
भावनिमित्तो बन्धो भावो रतिरागद्वेषमोहयुतः।। १४८।।
बहिरङ्गान्तरङ्गबन्धकारणाख्यानमेतत्। ग्रहणं हि कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशवर्तिकर्मस्कन्धानुप्रवेशः। तत् खलु योगनिमित्तम्। योगो वाङ्मनःकायकर्मवर्गणालम्बन आत्मप्रदेशपरिस्पन्दः। बन्धस्तु कर्मपुद्गलानां विशिष्ट– शक्तिपरिणामेनावस्थानम्। स पुनर्जीवभावनिमित्तः। जीवभावः पुना रतिरागद्वेषमोहयुतः,
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अन्वयार्थः– [योगनिमित्तं ग्रहणम्] ग्रहणका [–कर्मग्रहणका] निमित्त योग है; [योगः मनोवचनकायसंभूतः] योग मनवचनकायजनित [आत्मप्रदेशपरिस्पंद] है। [भावनिमित्तः बन्धः] बन्धका निमित्त भाव है; [भावः रतिरागद्वेषमोहयुतः] भाव रतिरागद्वेषमोहसे युक्त [आत्मपरिणाम] है।
टीकाः– यह, बन्धके बहिरंग कारण और अन्तरंग कारणका कथन है।
ग्रहण अर्थात् कर्मपुद्गलोंका जीवप्रदेशवर्ती [–जीवके प्रदेशोंके साथ एक क्षेत्रमें स्थित] कर्मस्कन्धोमें प्रवेश; उसका निमित्त योग है। योग अर्थात् वचनवर्गणा, मनोवर्गणा, कायवर्गणा और कर्मवर्गणाका जिसमें आलम्बन होता है ऐसा आत्मप्रदेशोंका परिस्पन्द [अर्थात् जीवके प्रदेशोंका कंपन।
बंध अर्थात् कर्मपुद्गलोंका विशिष्ट शक्तिरूप परिणाम सहित स्थित रहना [अर्थात् कर्मपुद्गलोंका अमुक अनुभागरूप शक्ति सहित अमुक काल तक टिकना]; उसका निमित्त जीवभाव हैे। जीवभाव रतिरागद्वेषमोहयुक्त [परिणाम] है अर्थात् मोहनीयके विपाकसे उत्पन्न होनेवाला विकार है। -------------------------------------------------------------------------
छे भावहेतुक बंध, ने मोहादिसंयुत भाव छे। १४८।