कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[
२१५
मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः। तदत्र मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः। तदत्र
पुद्गलानां ग्रहणहेतुत्वाद्बहिरङ्गकारणं योगः, विशिष्टशक्तिस्थितिहेतुत्वादन्तरङ्गकारणं जीवभाव
एवेति।। १४८।।
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।। १४९।।
हेतुश्चतुर्विकल्पोऽष्टविकल्पस्य कारणं भणितम्।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते।। १४९।।
-----------------------------------------------------------------------------
जीवके किसी भी परिणाममें वर्तता हुआ योग कर्मके प्रकृति–प्रदेशका अर्थात् ‘ग्रहण’ का
निमित्त होता है और जीवके उसी परिणाममें वर्तता हुआ मोहरागद्वेषभाव कर्मके स्थिति–अनुभागका
अर्थात् ‘बंध’ का निमित्त होता है; इसलिये मोहरागद्वेषभावको ‘बन्ध’ का अंतरंग कारण [अंतरंग
निमित्त] कहा है और योगको – जो कि ‘ग्रहण’ का निमित्त है उसे–‘बन्ध’ का बहिरंग कारण
[बाह्य निमित्त] कहा है।। १४८।।
इसलिये यहाँ [बन्धमेंं], बहिरंग कारण [–निमित्त] योग है क्योंकि वह पुद्गलोंके ग्रहणका
हेतु है, और अंतरंग कारण [–निमित्त] जीवभाव ही है क्योंकि वह [कर्मपुद्गलोंकी] विशिष्ट शक्ति
तथा स्थितिका हेतु है।। १४८।।
भावार्थः– कर्मबन्धपर्यायके चार विशेष हैंः प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध।
इसमें स्थिति–अनुभाग ही अत्यन्त मुख्य विशेष हैं, प्रकृति–प्रदेश तो अत्यन्त गौण विशेष हैं; क्योंकि
स्थिति–अनुभाग बिना कर्मबन्धपर्याय नाममात्र ही रहती है। इसलिये यहाँ प्रकृति–प्रदेशबन्धका मात्र
‘ग्रहण’ शब्दसे कथन किया है और स्थिति–अनुभागबन्धका ही ‘बन्ध’ शब्दसे कहा है।
गाथा १४९
अन्वयार्थः– [चतुर्विकल्पः हेतुः] [द्रव्यमिथ्यात्वादि] चार प्रकारके हेतु [अष्टविकल्पस्य
कारणम्] आठ प्रकारके कर्मोंके कारण [भणितम्] कहे गये हैं; [तेषाम् अपि च] उन्हें भी
[रागादयः] [जीवके] रागादिभाव कारण हैं; [तेषाम् अभावे] रागादिभावोंके अभावमें [न बध्यन्ते]
जीव नहींं बँधते।
-------------------------------------------------------------------------
हेतु चतुर्विध अष्टविध कर्मो तणां कारण कह्या,
तेनांय छे रागादि, ज्यां रागादि नहि त्यां बंध ना। १४९।