कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक–मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः। तदत्र मोहनीयविपाकसंपादितविकार इत्यर्थः। तदत्र पुद्गलानां ग्रहणहेतुत्वाद्बहिरङ्गकारणं योगः, विशिष्टशक्तिस्थितिहेतुत्वादन्तरङ्गकारणं जीवभाव एवेति।। १४८।।
तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बज्झंति।। १४९।।
तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यन्ते।। १४९।।
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इसलिये यहाँ [बन्धमेंं], बहिरंग कारण [–निमित्त] योग है क्योंकि वह पुद्गलोंके ग्रहणका हेतु है, और अंतरंग कारण [–निमित्त] जीवभाव ही है क्योंकि वह [कर्मपुद्गलोंकी] विशिष्ट शक्ति तथा स्थितिका हेतु है।। १४८।।
भावार्थः– कर्मबन्धपर्यायके चार विशेष हैंः प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध। इसमें स्थिति–अनुभाग ही अत्यन्त मुख्य विशेष हैं, प्रकृति–प्रदेश तो अत्यन्त गौण विशेष हैं; क्योंकि स्थिति–अनुभाग बिना कर्मबन्धपर्याय नाममात्र ही रहती है। इसलिये यहाँ प्रकृति–प्रदेशबन्धका मात्र ‘ग्रहण’ शब्दसे कथन किया है और स्थिति–अनुभागबन्धका ही ‘बन्ध’ शब्दसे कहा है।
जीवके किसी भी परिणाममें वर्तता हुआ योग कर्मके प्रकृति–प्रदेशका अर्थात् ‘ग्रहण’ का निमित्त होता है और जीवके उसी परिणाममें वर्तता हुआ मोहरागद्वेषभाव कर्मके स्थिति–अनुभागका अर्थात् ‘बंध’ का निमित्त होता है; इसलिये मोहरागद्वेषभावको ‘बन्ध’ का अंतरंग कारण [अंतरंग निमित्त] कहा है और योगको – जो कि ‘ग्रहण’ का निमित्त है उसे–‘बन्ध’ का बहिरंग कारण [बाह्य निमित्त] कहा है।। १४८।।
अन्वयार्थः– [चतुर्विकल्पः हेतुः] [द्रव्यमिथ्यात्वादि] चार प्रकारके हेतु [अष्टविकल्पस्य कारणम्] आठ प्रकारके कर्मोंके कारण [भणितम्] कहे गये हैं; [तेषाम् अपि च] उन्हें भी [रागादयः] [जीवके] रागादिभाव कारण हैं; [तेषाम् अभावे] रागादिभावोंके अभावमें [न बध्यन्ते] जीव नहींं बँधते। -------------------------------------------------------------------------
तेनांय छे रागादि, ज्यां रागादि नहि त्यां बंध ना। १४९।