कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
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गुणपर्यायास्त्वन्वयव्य–तिरेकित्वाद्ध्रौव्योत्पत्तिविनाशान् सुचयन्ति, नित्यानित्यस्वभावं परमार्थं
सच्चोपलक्षयन्तीति।।१०।।
उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो।
विगमुप्पादधवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।। ११।।
उत्पत्तिर्वो विनाशो द्रव्यस्य च नास्त्यस्ति सद्भावः।
विगमोत्पादधुव्रत्वं कुर्वन्ति तस्यैव पर्यायाः।। ११।।
अत्रोभयनयाभ्यां द्रव्यलक्षणं प्रविभक्तम्।
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व्यतिरेकवाली होनेसे [१] ध्रौव्यको और उत्पादव्ययको सूचित करते हैं तथा [२]
नित्यानित्यस्वभाववाले पारमार्थिक सत्को बतलाते हैं।
भावार्थः– द्रव्यके तीन लक्षण हैंः सत् उत्पादव्ययध्रौव्य और गुणपर्यायें। ये तीनों लक्षण परस्पर
अविनाभावी हैं; जहाँ एक हो वहाँ शेष दोनों नियमसे होते ही हैं।। १०।।
गाथा ११
अन्वयार्थः– [द्रव्यस्य च] द्रव्यका [उत्पत्तिः] उत्पाद [वा] या [विनाशः] विनाश [न अस्ति]
नहीं है, [सद्भावः अस्ति] सद्भाव है। [तस्य एव पर्यायाः] उसीकी पर्यायें [विगमोत्पादध्रुवत्वं]
विनाश, उत्पाद और ध्रुवता [कुर्वन्ति] करती हैं।
टीकाः– यहाँ दोनोें नयों द्वारा द्रव्यका लक्षण विभक्त किया है [अर्थात् दो नयोंकी अपेक्षासे
द्रव्यके लक्षणके दो विभाग किये गये हैं]।
सहवर्ती गुणों और क्रमवर्ती पर्यायोंके सद्भावरूप, त्रिकाल–अवस्थायी [ त्रिकाल स्थित
रहनेवाले], अनादि–अनन्त द्रव्यके विनाश और उत्पाद उचित नहीं है। परन्तु उसीकी पर्यायोंके–
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नहि द्रव्यनो उत्पाद अथवा नाश नहि, सद्भाव छे;
तेना ज जे पर्याय ते उत्पाद–लय–ध्रुवता करे। ११।