Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 128 (Adhikar 2),129 (Adhikar 2) Adhruvabhavana,130 (Adhikar 2),131 (Adhikar 2),132 (Adhikar 2),133 (Adhikar 2) Jivane Shiksha,134 (Adhikar 2),135 (Adhikar 2),136 (Adhikar 2) Pancha Indriyone Jeetavee,137 (Adhikar 2),137*5 (Adhikar 2),138 (Adhikar 2) Indriyasukhanu Anityapanu,139 (Adhikar 2).

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adhikAr-2 dohA-127 ]paramAtmaprakAsha [ 427
Avun kathan sAmbhaLIne koI agnAnI pUchhe chhe ke prAN jIvathI abhinna chhe ke bhinna
chhe? jo abhinna hoy to jem jIvano vinAsh nathI tem prANano paN vinAsh na thAy.
(ane prANano vinAsh na thavAthI hinsA banI shake nahi). have jo prAN (jIvathI) bhinna
hoy to prANano vadh thatAn paN, jIvano vadh thashe nahi (ane tem thavAthI hinsA banI shake
nahi). e rIte A bemAnthI koI paN prakAre jIvanI hinsA ja nathI to pachhI jIvahinsAmAn
pApabandh kevI rIte thAy?
tenun samAdhAAn :prAN jIvathI kathanchit bhinna ane kathanchit abhinna chhe. te A
pramANepotAno prAN haNAtAn, potAne dukh thAy chhe em jovAmAn Ave chhe tethI (e
apekShAe) vyavahAranayathI deh ane AtmA abhed chhe ane te ja dukhotpattine hinsA
kahevAmAn Ave chhe ane tethI pApano bandh thAy chhe. vaLI, jo ekAnte deh ane AtmAno
kevaL bhed ja mAnavAmAn Ave to jevI rIte paranA dehano ghAt thatAn paN dukh na thAy
समीपे दर्शितौ जहिं रुच्चइ तहिं लग्गु हे जीव यत्र रोचते तत्र लग्न भव त्वमिति
कश्चिदज्ञानी प्राह प्राणा जीवादभिन्ना भिन्नावा, यद्यभिन्नाः तर्हि जीववत्प्राणानां विनाशो
नास्ति, अथ भिन्नास्तर्हि प्राणवधेऽपि जीवस्य वधो नास्त्यनेन प्रकारेण जीवहिंसैव नास्ति कथं
जीववधे पापबन्धो भविष्यतीति
परिहारमाह कथंचिद्- भेदाभेदः तथाहिस्वकीयप्राणे हृते
सति दुःखोत्पत्तिदर्शनाद्वयवहारेणाभेदः सैव दुःखोत्पत्तिस्तु हिंसा भण्यते ततश्च पापबन्धः
यदि पुनरेकान्तेन देहात्मनोर्भेद एव तर्हि यथा परकीयदेहघाते दुःखं न भवति तथा
स्वदेहघातेऽपि दुःखं न स्यान्न च तथा
निश्चयेन पुनर्जीवे गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद
परदयास्वरूप अभयदान है, उसके करनेवालोंको स्वर्ग मोक्ष होता है, इसमें संदेह नहीं है
इनमें से जो अच्छा मालूम पड़े उसे करो ऐसी श्रीगुरुने आज्ञा की ऐसा कथन सुनकर
कोई अज्ञानी जीव तर्क करता है, कि जो ये प्राण जीवसे जुदे हैं, कि नहीं ? यदि जीवसे
जुदे नहीं हैं, तो जैसे जीवका नाश नहीं है, वैसे प्राणोंका भी नाश नहीं हो सकता ? अगर
जुदे हैं, अर्थात् जीवसे सर्वथा भिन्न हैं, तो इन प्राणोंका नाश नहीं हो सकता
इसप्रकारसे
जीवहिंसा है ही नहीं, तुम जीवहिंसामें पाप क्यों मानते हो ? इसका समाधानजो ये
इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास और प्राण जीवसे किसी नयकर अभिन्न हैं, भिन्न नहीं
हैं, किसी नयसे भिन्न हैं
ये दोनों नय प्रामाणिक हैं अब अभेद कहते हैं, सो सुनो
अपने प्राणोंका घात होने पर जो व्यवहारनयकर दुःखकी उत्पत्ति वह हिंसा है, उसीसे पापका
बंध होता है
और जो इन प्राणोंको सर्वथा जुदे ही मानें, देह और आत्माका सर्वथा भेद
ही जानें, तो जैसे परके शरीरका घात होने पर दुःख नहीं होता है, वैसे अपने देहके घातमें

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428 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-127
tevI rIte potAnA dehano ghAt thatA paN potAne dukh thavun na joIe, paN tem thatun nathI.
vaLI, nishchayathI jIv (parabhavamAn) javA chhatAn paN tenI sAthe deh jato nathI, e kAraNe
deh ane AtmA judA chhe.
ahIn, agnAnI kahe ke to pachhI kharekhar vyavahArathI hinsA thaI ane pApabandh vyavahArathI
thayo, paN nishchayathI nahi.
guru kahe chhe ke tame sAchun ja kahyun. vyavahArathI pAp tem ja nArakAdi dukh paN
vyavahArathI chhe. jo (nArakAdinun dukh) tamane iShTa hoy to tame hinsA karo (ane nArakAdinun
dukh tamane sArun na lAgatun hoy to tame hinsA na karo.) 127.
have, mokShamArgamAn rati kar evI shrI gurudev shikShA Ape chhe.
एव ननु तथापि व्यवहारेण हिंसा जाता पापबन्धोऽपि न च निश्चयेन इति सत्यमुक्तं
त्वया, व्यवहारेण पापं तथैव नारकादि दुःखमपि व्यवहारेणेति तदिष्टं भवतां चेत्तर्हि हिंसां
कुरु यूयमिति ।।१२७।।
अथ मोक्षमार्गे रतिं कुर्विति शिक्षां ददाति
२५८) मूढा सयलु वि कारिमउ भुल्लउ मं तुस कंडि
सिव-पहि णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छंडि ।।१२८।।
भी दुःख न होना चाहिये, इसलिये व्यवहारनयकर जीवका और देहका एक त्व दिखता है,
परंतु निश्चयसे एकत्व नहीं है
यदि निश्चयसे एकपना होवे, तो देहके विनाश होनेसे
जीवका विनाश हो जावे, सो जीव अविनाशी है जीव इस देहको छोड़कर परभवको जाता
है, तब देह नहीं जाती है इसलिये जीव और देहमें भेद भी है यद्यपि निश्चयनयकर
भेद है, तो भी व्यवहारनयकर प्राणोंके चले जानेसे जीव दुःखी होता है, सो जीवको दुःखी
करना यही हिंसा है, और हिंसासे पापका बंध होता है
निश्चयनयकर जीवका घात नहीं
होता, यह तूने कहा, वह सत्य है, परंतु व्यवहारनयकर प्राणवियोगरूप हिंसा है ही, और
व्यवहारनयकर ही पाप है, और पापका फल नरकादिकके दुःख हैं, वे भी व्यवहारनयकर
ही हैं
यदि तुझे नरकके दुःख अच्छे लगते हैं, तो हिंसा कर, और नरकका भय है, तो
हिंसा मत कर ऐसे व्याख्यानसे अज्ञानी जीवोंका संशय मेटा ।।१२७।।
आगे श्रीगुरु यह शिक्षा देते हैं, कि तू मोक्षमार्गमें प्रीति कर

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adhikAr-2 dohA-128 ]paramAtmaprakAsha [ 429
bhAvArthahe mUDh jIv! shuddha AtmA sivAy anya pAnch indriyanA viShayarUp
badhun ja vinashvar chhe, bhrAnti pAmIne photarAnne khAnD nahi. e rIte vinashvar jANIne, ‘shiv’
shabdathI vAchya evA vishuddhagnAn-darshanasvabhAvavALA mukta AtmAnI prAptino upAy je nij
shuddha AtmAnA samyakshraddhAn, samyaggnAn, ane samyag-anuShThAnarUp mArga chhe te rAgAdi
rahit hovAthI nirmaL chhe. evA mokSha ane mokShamArgamAn tun prIti kar; pUrvokta mokShamArgathI
pratipakShabhUt ghar, parijanAdikane shIghra chhoD. 128.
मूढ सकलमपि कृत्रिमं भ्रान्तः मा तुषं कण्डय
शिवपथे निर्मले कुरु रतिं गृहं परिजनं लघु त्यज ।।१२८।।
मूढा इत्यादि मूढा सयलु वि कारिमउ हे मूढजीव शुद्धात्मानं विहायान्यत्
पञ्चेन्द्रियविषयरूपं समस्तमपि कृत्रिमं विनश्वरं भुल्लउ मं तुस कंडि भ्रान्तो भूत्वा तुषकण्डनं
मा कुरु
एवं विनश्वरं ज्ञात्वा सिव-पहि णिम्मलि शिवशब्दवाच्यविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावो मुक्तात्मा
तस्य प्राप्त्युपायः पन्था निजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपः स च रागादिरहितत्वेन निर्मलः
करहि रइ इत्थंभूते मोक्षे मोक्षमार्गे च रतिं प्रीतिं कुरु घरु परियणु लहु छंडि
पूर्वोक्त मोक्षमार्गप्रतिपक्षभूतं गृहं परिजनादिकं शीघ्रं त्यजेति तात्पर्यम्
।।१२८।।
गाथा१२८
अन्वयार्थ :[मूढ ] हे मूढ जीव, [सकलमपि ] शुद्धात्माके सिवाय अन्य सब
विषयादिक [कृत्रिमं ] विनाशवाले हैं, तू [भ्रांतः ] भ्रम (भूल) से [तुषं मा कंडय ] भूसेका
खंडन मत कर
तू [निर्मले ] परमपवित्र [शिवपथे ] मोक्षमार्गमें [रतिं ] प्रीति [कुरु ] कर,
[गृहं परिजनं ] और मोक्षमार्गका उद्यमी होके घर, परिवार आदिको [लघु ] शीघ्र ही [त्यज ]
छोड़
भावार्थ :हे मूढ़, शुद्धात्मस्वरूपके सिवाय अन्य सब पंचेन्द्री विषयरूप पदार्थ
नाशवान् हैं, तू भ्रमसे भूला हुआ असार भूसेके कूटनेकी तरह कार्य न कर, इस सामग्रीको
विनाशीक जानकर शीघ्र ही मोक्ष
मार्गके घातक घर, परिवार आदिकको छोड़कर, मोक्षमार्गका
उद्यमी होके, ज्ञानदर्शनस्वभावको रखनेवाले शुद्धात्माकी प्राप्तिका उपाय जो सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप मोक्षका मार्ग है, उसमें प्रीति कर
जो मोक्षमार्ग रागादिकसे रहित
होनेसे महा निर्मल है ।।१२८।।

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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-129
have, pharI paN adhruv anuprekShAnun vyAkhyAn kare chhe
bhAvArthahe yogI! TankotkIrNa gnAyak ekasvabhAvI, akRutrim, vItarAganityAnand ja
jenun ek svarUp chhe evA paramAtmAthI anya man, vachan, kAyanA vyApArarUp je kAI chhe
te badhuy vinashvar chhe, A sansAramAn pUrvokta paramAtmAnI sadrash kaIpaN nitya nathI. A
artha draDh karavA mATe draShTAnt kahe chhe. shuddhaAtmatattvanI bhAvanAthI rahit, mithyAtva, viShay,
kaShAyamAn Asakta jIve je karmo upArjyAn chhe te karmo sahit jIv bIjA bhavamAn jatAn ‘kuDi’
अथ पुनरप्यध्रुवानुप्रेक्षां प्रतिपादयति
२५९) जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ण कोइ
जीविं जंतिं कुडि ण गय इहु पडिछंदा जोइ ।।१२९।।
योगिन् सकलमपि कृत्रिमं निःकृत्रिमं न किमपि
जीवेन यातेन देहो न गतः इमं द्रष्टान्तं पश्य ।।१२९।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् सयलु वि कारिमउ टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैक-
स्वभावादकृत्रिमाद्वीतरागनित्यानन्दैकस्वरूपात् परमात्मनः सकाशाद् यदन्यन्मनोवाक्कायव्यापाररूपं
तत्समस्तमपि कृत्रिमं विनश्वरं
णिक्कारिमउ ण कोइ अकृत्रिमं नित्यं पूर्वोक्त परमात्मस
द्रशं संसारे
किमपि नास्ति अस्मिन्नर्थे द्रष्टान्तमाह जीविं जंतिं कुडि ण गय शुद्धात्मतत्त्वभावनारहितेन
आगे फि र भी अनित्यानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हैं
गाथा१२९
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [सकलमपि ] सभी [कृत्रिमं ] विनश्वर हैं,
[निःकृत्रिमं ] अकृत्रिम [किमपि ] कोई भी वस्तु [न ] नहीं है, [जीवेन यातेन ] जीवके जाने
पर उसके साथ [देहो न गतः ] शरीर भी नहीं जाता, [इमं दृष्टांतं ] इस दृष्टान्तको [पश्य ]
प्रत्यक्ष देखो
भावार्थ :हे योगी, टंकोत्कीर्ण (अघटित घाटबिना टाँकीका गढ़ा) अमूर्तीक
पुरुषाकार आत्मा केवल ज्ञायकस्वभाव अकृत्रिम वीतराग परमानंदस्वरूप, उससे जुदे जो मन,
वचन, कायके व्यापार उनको आदि ले सभी कार्य-पदार्थ विनश्वर हैं
इस संसारमें देहादि
समस्त सामग्री अविनाशी नहीं है, जैसा शुद्ध-बुद्ध परमात्मा अकृत्रिम है, वैसा देहादिमेंसे कोई
भी नहीं है, सब क्षणभंगुर हैं
शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित जो मिथ्यात्व विषयकषाय हैं उनसे

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adhikAr-2 dohA-130 ]paramAtmaprakAsha [ 431
shabdathI vAchya evo deh tenI sAthe jato nathI. he jIv! A draShTAntane tun dekh(jAN).
ahIn, A badhun adhruv jANIne dehanA mamatvathI mAnDIne sarva vibhAv rahit nij-shuddha
-AtmapadArthanI bhAvanA karavI joie, evo abhiprAy chhe. 129.
have, munirAj prati adhruv anuprekShAne kahe chhe
मिथ्यात्वविषयकषायासक्ते न यान्युपार्जितानि कर्माणि तत्कर्मसहितेन जीवेन भवान्तरं प्रति
गच्छतापि कुडिशब्दवाच्यो देहः सहैव न गत इति हे जीव
इहु पडिछंदा जोइ इमं
द्रष्टान्तं
पश्येति अत्रेदमध्रुवं ज्ञात्वा देहममत्वप्रभृतिविभावरहितनिजशुद्धात्मपदार्थभावना कर्तव्या
इत्यभिप्रायः ।।१२९।।
अथ तपोधनं प्रत्यध्रुवानुप्रेक्षां प्रतिपादयति
२६०) देउलु देउ वि सत्थु गुरु तित्थु वि वेउ वि कव्वु
वच्छु जु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होसइ सव्वु ।।१३०।।
देवकुलं देवोऽपि शास्त्रं गुरुः तीर्थमपि वेदोऽपि काव्यम्
वृक्षः यद् द्रश्यते कुसुमितं इन्धनं भविष्यति सर्वम् ।।१३०।।
आसक्त होके जीवने जो कर्म उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंसे जब यह जीव परभवमें गमन करता
है, तब शरीर भी साथ नहीं जाता
इसलिये इस लोकमें इन देहादिक सबको विनश्वर जानकर
देहादिकी ममता छोड़ना चाहिये, और सकल विभाव रहित निज शुद्धात्म पदार्थकी भावना
करनी चाहिये
।।१२९।।
आगे मुनिराजोंको देवल आदि सभी सामग्री अनित्य दिखलाते हुए अध्रुवानुप्रेक्षाको
कहते हैं
गाथा१३०
अन्वयार्थ :[देवकुलं ] अरहंतदेवकी प्रतिमाका स्थान जिनालय [देवोऽपि ]
श्रीजिनेंद्रदेव [शास्त्रं ] जैनशास्त्र [गुरुः ] दीक्षा देनेवाले गुरु [तीर्थमपि ] संसारसागरसे तैरनेके
कारण परमतपस्वियोंके स्थान सम्मेदशिखर आदि [वेदोऽपि ] द्वादशांगरूप सिद्धांत [काव्यम् ]
गद्य
पद्यरूप रचना इत्यादि [यद् द्रश्यते कुसुमितं ] जो वस्तु अच्छी या बुरी दिखनेमें आती
हैं, वे [सर्वम् ] सब [इंधनं ] कालरूपी अग्निका ईंधन [भविष्यति ] हो जावेगी ।।

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432 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-130
bhAvArthanirdoSh paramAtmAnI sthApanArUp pratimAnA rakShaNArthe banAvelun devAlay
athavA mithyAtvanA poShak kudevAlay, te ja nirdoSh paramAtmAnA anantagnAnAdi guNanA smaraNArthe
athavA dharma prabhAvanA arthe pratimAsthApanArUp dev athavA pratimArUp rAgAdirUpe pariNat
mithyAdev, vItarAg nirvikalpa AtmatattvathI mAnDIne samasta padArthanun pratipAdak shAstra ane
mithyA shAstra, lokAlokanA prakAshak kevaLagnAn Adi guNothI samRuddha evA paramAtmAno prachchhAdak
je mithyAtva, rAgAdirUpe pariNatirUp je agnAnarUpI andhakArano darpa jenA vachanarUpI sUryanA
kiraNothI vidArit thayo thako kShaNamAtramAn nAsh pAme chhe evA jinadIkShA denAr shrIguru athavA
tenAthI viparIt mithyAguru, sansArasamudranA taravAnA upAyabhUt nij shuddha AtmatattvanI
bhAvanArUp nishchayatIrtha, tenA svarUpamAn rat tapodhananA AvAsabhUt tIrthakShetro paN athavA
देउलु इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते देउलु निर्दोषिपरमात्मस्थापना-
प्रतिमाया रक्षणार्थं देवकुलं मिथ्यात्वदेवकुलं वा, देउ वि तस्यैव परमात्मनोऽनन्तज्ञानादि-
गुणस्मरणार्थं धर्मप्रभावनार्थं वा प्रतिमास्थापनारूपो देवो रागादिपरिणतदेवताप्रतिमारूपो वा,
सत्थ
वीतरागनिर्विकल्पात्मतत्त्वप्रभृतिपदार्थप्रतिपादकं शास्त्रं मिथ्याशास्त्रं वा,
गुरु लोकालोकप्रकाशक-
केवलज्ञानादिगुणसमृद्धस्य परमात्मनः प्रच्छादको मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपो महाऽज्ञानान्ध-
कारदर्पः तद्व्यापियद्वचनदिनकरकिरणविदारितः सन् क्षणमात्रेण च विलयं गतः स
जिनदीक्षादायकः श्रीगुरुः तद्विपरीतो मिथ्यागुरुर्वा,
तित्थु वि संसारतरणोपायभूतनिजशुद्धात्म-
तत्त्वभावनारूपनिश्चयतीर्थं तत्स्वरूपरतः परमतपोधनानां आवासभूतं तीर्थकदम्बकमपि मिथ्या-
तीर्थसमूहो वा,
वेउ वि निर्दोषिपरमात्मोपदिष्टवेदशब्दवाच्यः सिद्धान्तोऽपि परकल्पितवेदो वा कव्वु
शुद्धजीवपदार्थादीनां गद्यपद्याकारेण वर्णकं काव्यं लोकप्रसिद्धविचित्रकथाकाव्यं वा,
वच्छ
भावार्थ :निर्दोषि परमात्मा श्रीअरहंतदेव उनको प्रतिमाके पधरानेके लिये जो
गृहस्थोंने देवालय [जैनमंदिर ] बनाया है, वह विनाशीक हैं, अनंत ज्ञानादिगुणरूप
श्रीजिनेन्द्रदेवकी प्रतिमा धर्मकी प्रभावनाके अर्थ भव्यजीवोंने देवालयमें स्थापन की है, उसे देव
कहते हैं, वह भी विनश्वर है
यह तो जिनमंदिर और जिनप्रतिमाका निरूपण किया, इसके
सिवाय अन्य देवोंके मंदिर और अन्यदेवकी प्रतिमायें सब ही विनश्वर हैं, वीतराग-निर्विकल्प
जो आत्मतत्त्व उसको आदि ले जीव अजीवादि सकल पदार्थ उनका निरूपण करनेवाला जो
जैनशास्त्र वह भी यद्यपि अनादि प्रवृत्तिकी अपेक्षा नित्य है, तो भी वक्ता-श्रोता पुस्तकादिककी
अपेक्षा विनश्वर ही है, और जैन सिवाय जो सांख्य पातंजल आदि परशास्त्र हैं, वे भी विनाशीक
हैं
जिनदीक्षाके देनेवाले लोकालोकके प्रकाशक केवलज्ञानादि गुणोंकर पूर्ण परमात्माके
रोकनेवाला जो मिथ्यात्व रागादि परिणत महा अज्ञानरूप अंधकार उसके दूर करनेके लिए सूर्यके

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adhikAr-2 dohA-130 ]paramAtmaprakAsha [ 433
mithyAtIrthasamUh, nirdoSh paramAtmAe upadeshelA evA vedashabdathI vAchya siddhAnto paN ane
parakalpit vedo, shuddha jIvAdi padArthonun gadya-padyAkAre varNan karanArun kAvya ane lokaprasiddha
vichitra kathAkAvya, paramAtmabhAvanAthI rahit jIve je vanaspatinAmakarma upArjyun chhe tenA udayathI
thayelAn vRukSho ke je phUlovALun dekhAy chhe e badhuy kALarUpI agninun indhan thaI jashe
nAsh
pAmashe.
ahI, (sarva sansAr kShaNabhangur chhe em jANIne) pratham to pAnch indriyonA viShayomAn
moh na karavo. prAthamikone dharmatIrthAdi pravartananA nimitto je devAlay ane devapratimAdi chhe
परमात्मभावनारहितेन जीवेन यदुपार्जितं वनस्पतिनामकर्म तदुदयजनितंवृक्षकदम्बकं जो दीसइ
कुसुमियउ यद्
द्रश्यते कुसुमितं पुष्पितं इंधणु होसइ सव्वु तत्सर्वं कालाग्नेरिन्धनं भविष्यति
विनाशं यास्तीत्यर्थः अत्र तथा तावत् पञ्चेन्द्रियविषये मोहो न कर्तव्यः प्राथमिकानां यानि
समान जिनके वचनरूपी किरणोंसे मोहांधकार दूर हो गया है, ऐसे महामुनि गुरु हैं, वे भी
विनश्वर हैं, और उसके आचरणसे विपरीत जो अज्ञान तापस मिथ्यागुरु वे भी क्षणभंगुर हैं
संसार - समुद्रके तरनेका कारण जो निज शुद्धात्मतत्त्व उसकी भावनारूप जो निश्चयतीर्थ उसमें
लीन परमतपोधनका निवासस्थान, सम्मेदशिखर, गिरनार आदि तीर्थ वे भी विनश्वर हैं, और
जिनतीर्थके सिवाय जो पर यतियोंका निवास वे परतीर्थ वे भी विनाशीक हैं
निर्दोष परमात्मा
जो सर्वज्ञ वीतरागदेव उनकर उपदेश किया गया जो द्वादशांग सिद्धांत वह वेद है, वह यद्यपि
सदा सनातन है, तो भी क्षेत्रकी अपेक्षा विनश्वर है, किसी समय है, किसी क्षेत्रमें पाया जाता
है, किसी समय नहीं पाया जाता, भरतक्षेत्र ऐरावत क्षेत्रमें कभी प्रगट हो जाता है, कभी विलय
हो जाता है, और महाविदेहक्षेत्रमें यद्यपि प्रवाहकर सदा शाश्वता है, तो भी वक्ता
श्रोताव्याख्यानकी अपेक्षा विनश्वर है, वे ही वक्ता-श्रोता हमेशा नहीं पाये जाते, इसलिए
विनश्वर है, और पर मतियोंकर कहा गया जो हिंसारूप वेद वह भी विनश्वर है
शुद्ध जीवादि
पदार्थोंका वर्णन करनेवाली संस्कृत प्राकृत छटारूप गद्य व छंदबंधरूप पद्य उस स्वरूप और
जिसमें विचित्र कथायें हैं, ऐसे सुन्दर काव्य कहे जाते हैं, वे भी विनश्वर हैं
इत्यादि जो
जो वस्तु सुन्दर और खोटे कवियोंकर प्रकाशित खोटे काव्य भी विनश्वर हैं इत्यादि जो
जो वस्तु सुन्दर और असुन्दर दिखती हैं, वे सब कालरूपी अग्निका ईंधन हो जावेंगी तात्पर्य
यह है, कि सब भस्म हो जावेंगी, और परमात्माकी भावनासे रहित जो जीव उसने उपार्जन
किया जो वनस्पतिनामकर्म उसके उदयसे वृक्ष हुआ, सो वृक्षोंके समूह जो फू ले
फाले दिखते
हैं, वे सब ईंधन हो जावेंगे संसारका सब ठाठ क्षणभंगुर है, ऐसा जानकर पंचेंद्रियोंके विषयोंमें
मोह नहीं करना, विषय का राग सर्वथा त्यागना योग्य है प्रथम अवस्थामें यद्यपि धर्मतीर्थकी

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434 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-131
temanA pratye paN shuddhAtmabhAvanAnA kALe moh kartavya nathI, evo sambandh chhe. 130.
have, ‘shuddha AtmadravyathI je anya chhe te badhuy adhruv chhe’, em pragaT kare chhe
bhAvArthajevI rIte anek vRukShanA bhedathI bhinna hovA chhatAn jAti-apekShAe (ek)
van kahevAy chhe tevI rIte shuddhasangrahanayathI jAti-apekShAe (ek) shuddha jIvadravyathI kahevAy
धर्मतीर्थवर्तनादिनिमित्तानि देवकुलप्रतिमादीनि तत्रापि शुद्धात्मभावना काले मोहो न कर्तव्येति
संबंधः
।।१३०।।
अथ शुद्धात्मद्रव्यादन्यत्सर्वमध्रुवमिति प्रकटयति
२६१) एक्कु जि मेल्लिवि बंभु परु भुवणु वि एहु असेसु
पुहविहिँ णिम्मउ भंगुरउ एहउ बुज्झि विसेसु ।।१३१।।
एकं मेव मुक्त्वा ब्रह्म परं भुवनमपि एतद् अशेषम्
पृथिव्यां निर्मापितं भंगुरं एतद् बुध्यस्व विशेषम् ।।१३१।।
एक्कु जि इत्यादि एक्कु जि एकमेव मेल्लिवि मुक्त्वा किम् बंभु परु
परमब्रह्मशब्दवाच्यं नानावृक्षभेदभिन्नवनमिव नानाजीवजातिभेदभिन्नं शुद्धसंग्रहनयेन शुद्ध-
प्रवृत्तिका निमित्त जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्म तथा जैनधर्मी इनमें प्रेम करना योग्य है, तो
भी शुद्धात्माकी भावनाके समय वह धर्मानुराग भी नीचे दरजेका गिना जाता है, वहाँ पर केवल
वीतरागभाव ही है
।।१३०।।
आगे शुद्धात्मस्वरूपसे अन्य जो सामग्री है, वह सभी विनश्वर हैं, ऐसा व्याख्यान करते
हैं
गाथा१३१
अन्वयार्थ :[एकं परं ब्रह्म एव ] एक शुद्ध जीवद्रव्यरूप परब्रह्मको [मुक्त्वा ]
छोड़कर [पृथिव्यां ] इस लोकमें [इदं अशेषम् भुवनमपि निर्मापितं ] इस समस्त लोकके
पदार्थोंकी रचना है, वह सब [भंगुरं ] विनाशीक है, [एतद् विशेषम् ] इस विशेष बातको तू
[बुध्यस्व ] जान
भावार्थ :शुद्धसंग्रहनयकर समस्त जीवराशि एक है जैसे नाना प्रकारके वृक्षोंकर
भरा हुआ वन एक कहा जाता है, उसी तरह नाना प्रकारके जीवजाति करके एक कहे जाते

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adhikAr-2 dohA-132 ]paramAtmaprakAsha [ 435
chhe. evA ‘parabrahma’ shabdathI vAchya shuddhajIvadravya sivAy A pratyakSha samasta vishva ke je pRithvI
par lokamAn rachAyelun chhe te vinashvar chhe. he prabhAkarabhaTTa! tun A visheSh jAN.
ahIn, A bhAvArtha chhe ke vishuddhagnAnadarshan svabhAvavALA ‘paramabrahma’ shabdathI vAchya evA
shuddhajIvatattva sivAy anya samasta pAnch indriyonA viShayabhUt padArtho vinashvar chhe. 131.
have, pUrvokta adhruvapaNun jANIne dhan ane yauvananI tRuShNA na karavI joIe, em kahe
chhe
जीवद्रव्यं भुवणु वि एहु इदं प्रत्यक्षीभूतम् कतिसंख्योपेतम् असेसु अशेषं समस्तमपि
कथंभूतमिदं सर्वं पुहविहिं णिम्मउ पृथिव्यां लोके निर्मापितं भंगुरउ विनश्वरं एहउ बुज्झि
विसेसु इमं विशेषं बुध्यस्व जानीहि त्वं हे प्रभाकरभट्ट
अयमत्र भावार्थः
विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परब्रह्मशब्दवाच्यं शुद्धजीवतत्त्वं मुक्त्वान्यत्पञ्चेन्द्रियविषयभूतं
विनश्वरमिति
।।१३१।।
अथ पूर्वोक्त मध्रुवत्वं ज्ञात्वा धनयौवनयोस्तृष्णा न कर्तव्येति कथयति
२६२) जे दिट्ठा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिट्ठ
तेँ कारणिं वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ।।१३२।।
ये द्रष्टाः सूर्योद्गमने ते अस्तगमने न द्रष्टाः
तेन कारणेन वत्स धर्मं कुरु धने यौवने का तृष्णा ।।१३२।।
हैं वे सब जीव अविनाशी हैं, और सब देहादिकी रचना विनाशीक दिखती है शुभअशुभ
कर्मकर जो देहादिक इस जगत्में रची गई हैं, वह सब विनाशीक हैं, हे प्रभाकरभट्ट, ऐसा विशेष
तू जान, देहादिको अनित्य जान और जीवोंको नित्य जान
निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव परब्रह्म
[शुद्ध जीवतत्त्व ] उससे भिन्न जो पाँच इंद्रियोंका विषयवन वह क्षणभंगुर जानो ।।१३१।।
आगे पूर्वोक्त विषयसामग्रीको अनित्य जानकर धन, यौवन और विषयोंमें तृष्णा नहीं
करनी चाहिये, ऐसा कहते हैं
गाथा१३२
अन्वयार्थ :[वत्स ] हे शिष्य, [ये ] जो कुछ पदार्थ [सूर्योद्गमने ] सूर्यके उदय
होने पर [दृष्टाः ] देखे थे, [ते ] वे [अस्तगमने ] सूर्यके अस्त होनेके समय [न दृष्टाः ] नहीं
देखे जाते, नष्ट हो जाते हैं [तेन कारणेन ] इस कारण तू [धर्मं ] धर्मको [कुरु ] पालन कर

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436 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-132
bhAvArthasUryodayanA kALe je manuShyone, dhan, dhAnya Adi padArtho jovAmAn AvyA
hatA te sUryAsta kALe jovAmAn AvatA nathI. evun tenun adhruvapaNun jANIne te kAraNe tun sAgAr
-aNagAr dharmanun pAlan kar, dhan ane yauvanamAn tRuShNA shA mATe kare chhe?
prashna :gRuhasthIe dhananI tRuShNA na karavI, to shun karavun?
uttar :bhedAbhed ratnatrayanA ArAdhakone sarva tAtparyathI (pUrepUrA anurAgathI)
AhArAdi chAr prakAranun dAn devun. athavA to sarvasangano parityAg karIne nirvikalpa param
samAdhimAn sthir rahevun. yauvanamAn paN tRuShNA na karavI. yauvan-avasthAmAn yauvananA udrekajanit
viShayano rAg chhoDI daIne ane viShayathI pratipakShabhUt vItarAg chidAnand jeno ek svabhAv chhe
जे दिट्ठा इत्यादि जे दिट्ठा ये केचन द्रष्टाः क्व सूरुग्गमणि सूर्योदये ते अत्थवणि
ण दिट्ठ ते पुरुषा गृहधनधान्यादिपदार्था वा अस्तगमने न द्रष्टाः, एवमध्रुवत्वं ज्ञात्वा ें
कारणिं वढ धम्मु करि तेन कारणेन वत्स पुत्र सागारानगारधर्मं कुरु धणि जोव्वणि कउ
तिट्ठ धने यौवने वा का तृष्णा न कापीति तद्यथा गृहस्थेन धने तृष्णा न कर्तव्या तर्हि
किं कर्तव्यम् भेदाभेदरत्नत्रयाराधकानां सर्वतात्पर्येणाहारादिचतुर्विधं दानं दातव्यम् नो चेत्
सर्वसंगपरित्यागं कृत्वा निर्विकल्पपरमसमाधौ स्थातव्यम् यौवनेऽपि तृष्णा न कर्तव्या,
यौवनावस्थायां यौवनोद्रेकजनितविषयरागं त्यक्त्वा विषयप्रतिपक्षभूते वीतरागचिदानन्दैकस्वभावे
[धने यौवने ] धन और यौवन अवस्थामें [का तृष्णा ] क्या तृष्णा कर रहा है
भावार्थ :धन, धान्य, मनुष्य, पशु, आदिक पदार्थ जो सबेरेके समय देखे थे, वे
शामके समयमें नहीं दिखते, नष्ट हो जाते हैं, ऐसा जगत्का ठाठ विनाशिक जानकर इन
पदार्थोंकी तृष्णा छोड़ और श्रावकका तथा यतीका धर्म स्वीकार कर, धन यौवनमें क्या तृष्णा
कर रहा है
ये तो जलके बूलबूलेके समान क्षणभंगुर हैं यहाँ कोई प्रश्न करे, कि गृहस्थी
धनकी तृष्णा न करे तो क्या करे ? उसका उत्तरनिश्चय-व्यवहाररत्नत्रयके आराधक जो
यति उनकी सब तरह गृहस्थको सेवा करनी चाहिये, चार प्रकारका दान देना, धर्मकी इच्छा
रखनी, धनकी इच्छा नहीं करनी
जो किसी दिन प्रत्याख्यानकी चौकड़ीके उदयसे श्रावकके
व्रतमें भी है, तो देव पूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, दान, शील, उपवासादि अणुव्रतरूप धर्म
करे, और जो बड़ी शक्ति होवे, तो सब परिग्रह त्यागकर यतीके व्रत धारण करके निर्विकल्प
परमसमाधिमें रहे
यतीको सर्वथा धनका त्याग और गृहस्थको धनका प्रमाण करना योग्य
है विवेकी गृहस्थ धनकी तृष्णा न करें धन यौवन असार है, यौवन अवस्थामें विषय तृष्णा
न करें, विषयका राग छोड़कर विषयोंसे पराङ्मुख जो वीतराग निजानंद एक अखंड

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adhikAr-2 dohA-133 ]paramAtmaprakAsha [ 437
evA shuddha AtmasvarUpamAn sthit thaIne nirantar AtmabhAvanA karavI, evo bhAvArtha chhe. 132.
have, dharma ane tapashcharaN rahitano janma vRuthA chhe, em kahe chhe
bhAvArthachAmaDAthI banel manuShyasharIrarUpI vRukShathI je gRuhasthe athavA tapodhane
dharmasanchay na karyo, tap na karyun, (gRuhasthe) gRuhasthAvasthAmAn samyaktvapUrvak dAn, shIl, pUjA,
upavAs Adi gRuhasthadharmanun AcharaN na karyun, darshanapratimA, vratapratimA Adi agiyAr prakAranA
शुद्धात्मस्वरूपे स्थित्वा च निरन्तरं भावना कर्तव्येति भावार्थः ।।१३२।।
अथ धर्मतपश्चरणरहितानां मनुष्यजन्म वृथेति प्रतिपादयति
२६३) धम्मु ण संचिउ तउ ण किउ रुक्खेँ चम्ममएण
खज्जिवि जर-उद्देहियए णरइ पडिव्वउ तेण ।।१३३।।
धर्मो न संचितः तपो न कृतं वृक्षेण चर्ममयेन
खादयित्वा जरोद्रेहिकया नरके पतितव्यं तेन ।।१३३।।
धम्मु इत्यादि धम्मु ण संचिउ धर्मसंचयो न कृतः गृहस्थावस्थायां दानशील-
पूजोपवासादिरूपसम्यक्त्वपूर्वको गृहिधर्मो न कृतः, दर्शनिकव्रतिकाद्येकादशविधश्रावकधर्मरूपो
वा
तउ ण किउ तपश्चरणं न कृतं तपोधनेन तु समस्तबहिर्द्रव्येच्छानिरोधं कृत्वा अनशनादि-
स्वभावरूप शुद्धात्मा उसमें लीन होकर हमेशा भावना करनी चाहिये ।।१३२।।
आगे जो धर्मसे रहित हैं, और तपश्चरण भी नहीं करते हैं, उनका मनुष्यजन्म वृथा
है, ऐसा कहते हैं
गाथा१३३
अन्वयार्थ :[येन ] जिसने [चर्ममयेन वृक्षेण ] मनुष्य शरीररूपी चर्ममयी वृक्षको
पाकर उससे [धर्मः न कृतः ] धर्म नहीं किया, [तपो न कृतं ] और तप भी नहीं किया,
उसका शरीर [जरोद्रेहिकया खादयित्वा ] बुढ़ापारूपी दीमकके कीड़ेकर खाया जायगा, फि र
[तेन ] उसको मरणकर [नरके ] नरकमें [पतितव्यं ] पड़ना पड़ेगा
भावार्थ :गृहस्थ अवस्थामें जिसने सम्यक्त्वपूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप
गृहस्थका धर्म नहीं किया, दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमाके भेदरूप श्रावकका
धर्म नहीं धारण किया, तथा मुनि होकर सब पदार्थोंकी इच्छाका निरोध कर अनशन वगैरः

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438 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-133
shrAvakadharmanun AcharaN na karyun ane tapodhane bAhya samasta dravyonI ichchhAno nirodh karIne
anashanAdi bAr prakAranA tapashcharaNanA baLathI nijashuddhAtmAnA dhyAnamAn sthit thaIne nirantar
AtmabhAvanA na karI-e rIte je gRuhasthe ke tapodhane na karyun, tenun sharIr jarArUp UdhaIthI khavAI
jashe, ane narakamAn paDavun paDashe.
ahIn, tAtparya em chhe ke gRuhasthe abhedaratnatrayasvarUpane upAdey karIne bhedaratnatrayAtmak
shrAvakadharma pALavo ane yatie nishchayaratnatrayamAn sthit thaIne vyAvahArik ratnatrayanA baLathI
vishiShTa tapashcharaN karavun joIe, nahitar (shrAvakano ke yatino dharma na pALyo to) paramparAe
pAmelo durlabh evo manuShyajanma niShphaL chhe. 133.
have, he jIv! jineshvarapadanI param bhakti kar evI shrI gurudev shikShA Ape chhe
द्वादशविधतपश्चरणबलेन निजशुद्धात्मध्याने स्थित्वा निरन्तरं भावना न कृता के न कृत्वा रुक्खें
चम्ममएण वृक्षेण मनुष्यशरीरचर्मनिर्वृत्तेन येनैवं न कृतं गृहस्थेन तपोधनेन वा णरइ पडिव्वउ
तेण नरके पतितव्यं तेन किं कृत्वा खज्जिवि भक्षयित्वा कया कर्तृभूतया जरउद्देहियए
जरोद्रेहिकया इदमत्र तात्पर्यम् गृहस्थेनाभेदरत्नत्रयस्वरूपमुपादेयं कृत्वा भेदरत्नत्रयात्मकः
श्रावकधर्मः कर्तव्यः, यतिना तु निश्चयरत्नत्रये स्थित्वा व्यावहारिकरत्नत्रयबलेन विशिष्टतपश्चरणं
कर्तव्यं नो चेत् दुर्लभपरंपरया प्राप्तं मनुष्यजन्म निष्फलमिति
।।१३३।।
अथ हे जीव जिनेश्वरपदे परमभक्तिं कुर्विति शिक्षां ददाति
२६४) अरि जिय जिण-पइ भत्ति करि सुहि सज्जणु अवहेरि
तिं बप्पेण वि कज्जु णवि जो पाडइ संसारि ।।१३४।।
बारह प्रकारका तप नहीं किया, तपश्चरणके बलसे शुद्धात्माके ध्यानमें ठहरकर निरंतर भावना
नहीं की, मनुष्यके शरीररूप चर्ममयी वृक्षको पाकर यतीका व श्रावकका धर्म नहीं किया,
उनका शरीर वृद्धावस्थारूपी दीमकके कीड़े खावेंगे, फि र वह नरकमें जावेगा
इसलिये
गृहस्थको तो यह योग्य है, कि निश्चयरत्नत्रयकी श्रद्धाकर निजस्वरूप उपादेय जान, व्यवहार
रत्नत्रयरूप श्रावकका धर्म पालना
और यतीको यह योग्य है, कि निश्चयरत्नत्रयमें ठहरकर
व्यवहाररत्नत्रयके बलसे महा तप करना अगर यतीका व श्रावकका धर्म नहीं बना, अणुव्रत
नहीं पाले, तो महा दुर्लभ मनुष्यदेहका पाना निष्फल है, उससे कुछ फायदा नहीं ।।१३३।।
आगे श्रीगुरु शिष्यको यह शिक्षा देते हैं, कि तू मुनिराजके चरणारविंदकी परमभक्ति
कर,

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adhikAr-2 dohA-134 ]paramAtmaprakAsha [ 439
bhAvArthahe AtmA! anAdikALathI durlabh, vItarAgasarvagnapraNIt, rAg-dveSh-moharahit,
jIvapariNAmasvarUp, shuddhopayogarUp, nishchayadharmamAn ane chha AvashyakAdi vyavahAradharmamAn ane
gRuhasthanI apekShAe dAnapUjAdirUp athavA shubhopayogasvarUp vyavahAradharmamAn rati kar. A dharmamAn
je pratikUL hoy te manuShya potAnA gotramAn janmelo hoy topaN teno tyAg kar, dharmasanmukh temAn
(dharmamAn) anukUL hoy tene paragotramAn janmelo hoy topaN, potAno kar.
ahIn, bhAvArtha em chhe ke jIv viShayasukhane mATe jevo anurAg kare chhe tevo
अरे जीव जिनपदे भक्तिं कुरु सुखं स्वजनं अपहर
तेन पित्रापि कार्यं नैव यः पातयति संसारे ।।१३४।।
अरि जिय इत्यादि अरि जिय अहो भव्यजीव जिण-पइ भत्ति करि जिनपदे भक्तिं
कुरु गुणानुरागवचननिमित्तं जिनेश्वरेण प्रणीतश्रीधर्मे रतिं कुरु सुहि सज्जणु अवहेरि
संसारसुखसहकारिकारणभूतं स्वजनं गोत्रमप्यपहर त्यज
कस्मात् तिं बप्पेण वि तेन
स्नेहितपित्रापि कज्जु णवि कार्यं नैव यः किं करोति जो पाडइ यः पातयति क्व
संसारि संसारसमुद्रे तथाच हे आत्मन्, अनादिकाले दुर्लभे वीतरागसर्वज्ञप्रणीते रागद्वेष-
मोहरहिते जीवपरिणामलक्षणे शुद्धोपयोगरूपे निश्चयधर्मे व्यवहारधर्मे च पुनः षडावश्यकादि-
लक्षणे गृहस्थापेक्षया दानपूजादिलक्षणे व शुभोपयोगस्वरूपे रतिं कुरु
इत्थंभूते धर्मे प्रतिकूलो
यः तं मनुष्यं स्वगोत्रजमपि त्यज धर्मसन्मुखं तदनुकूलं परगोत्रजमपि स्वीकृर्विति अत्रायं
गाथा१३४
अन्वयार्थ :[अरे जीव ] हे भव्य जीव, तू [जिनपदे ] जिनपदमें [भक्तिं कुरु ]
भक्तिकर, और जिनेश्वरके कहे हुए जिनधर्ममें प्रीति कर, [सुखं ] संसार सुखके निमित्तकारण
[स्वजनं ] जो अपने कुटुम्बके जन उनको [अपहर ] त्याग, अन्यकी तो बात क्या है ? [तेन
पित्रापि नैव कार्यं ] उसे महास्नेहरूप पितासे भी कुछ काम नहीं है, [यः ] जो [संसारे ]
संसार
समुद्रमें इस जीवको [पातयति ] पटक देवे
भावार्थ :हे आत्माराम, अनादिकालसे दुर्लभ जो वीतराग सर्वज्ञका कहा हुआ राग
-द्वेष-मोहरहित शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म और शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म, उनमें भी छह
आवश्यकरूप यतीका धर्म, तथा दान पूजादि श्रावकका धर्म, यह शुभाचाररूप दो प्रकार धर्म
उसमें प्रीति कर
इस धर्मसे विमुख जो अपने कुलका मनुष्य उसे छोड़, और इस धर्मके
सन्मुख जो पर कुटुम्बका भी मनुष्य हो उससे प्रीति कर तात्पर्य यह है, कि यह जीव जैसे
विषयसुखसे प्रीति करता है, वैसे जो जिनधर्म से करे तो संसारमें नहीं भटके ऐसा दूसरी

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440 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-135
jo anurAg jinadharmamAn kare to jIv sansAramAn na paDe. vaLI, kahyun chhe ke ‘‘विसयहं
कारणि सव्वु जणु जिम अणराउ करेइ तिम जिणभासिए धम्मि जइ ण उ संसारि पडेइ ।।,
(arthaviShayonA kAraNomAn sarva jano jevo anurAg kare chhe tevo anurAg jin-bhAShit
dharmamAn kare to te jano sansAramAn paDe nahi. 134.
have, jeNe chittanI shuddhi karIne tapashcharaN na karyun teNe potAnA AtmAne chhetaryo
evo abhiprAy manamAn dhArIne (lakShamAn rAkhIne) A sUtra kahe chhe
bhAvArthaparamparAe durlabh evo manuShyabhav ane tapashcharaN paN prApta thatAn nirvikalpa
भावार्थः विषयसुखनिमित्तं यथानुरागं करोति जीवस्तथा यदि जिनधर्मं करोति तर्हि संसारे
न पततीति तथा चोक्त म्‘‘विसयहं कारणि सव्वु जणु जिम अणुराउ करेइ तिम
जिणभासिए धम्मि जइ ण उ संसारि पडेइ ।।’’ ।।१३४।।
अथ येन चित्तशुद्धिं कृत्वा तपश्चरणं न कृतं तेनात्मा वञ्चित इत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा
सूत्रमिदं प्रतिपादयति
२६५) जेण ण चिण्णउ तव-यरणु णिम्मलु चित्तु करेवि
अप्पा वंचिउ तेण पर माणुस-जम्मु लहेवि ।।१३५।।
येन न चीर्णं तपश्चरणं निर्मलं चित्तं कृत्वा
आत्मा वञ्चितः तेन परं मनुष्यजन्म लब्ध्वा ।।१३५।।
जेण इत्यादि जेण येन जीवेन ण चिण्णउ न चीर्णं न चरितं न कृतम्
जगह भी कहा है, कि जैसे विषयोंके कारणोंमें यह जीव बारम्बार प्रेम करता है, वैसे जो
जिनधर्ममें करे, तो संसारमें भ्रमण न करे
।।१३४।।
आगे जिसने चित्तकी शुद्धता करके तपश्चरण नहीं किया, उसने अपना आत्मा ठग
लिया, यह अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं
गाथा१३५
अन्वयार्थ :[येन ] जिस जीवने [तपश्चरणं ] बाह्याभ्यन्तर तप [न चीर्णं ] नहीं
किया, [निर्मलं चित्तं ] महा निर्मल चित्त [कृत्वा ] करके [तेन ] उसने [मनुष्यजन्म ]
मनुष्यजन्मको [लब्ध्वा ] पाकर [परं ] केवल [आत्मा वंचितः ] अपना आत्मा ठग लिया
भावार्थ :महान् दुर्लभ इस मनुष्यदेहको पाकर जिसने विषयकषाय सेवन किये

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adhikAr-2 dohA-135 ]paramAtmaprakAsha [ 441
samAdhinA baLathI rAgAdinA tyAg vaDe chittashuddhi karavI joIe. jeNe chittashuddhi na karI te
Atmavanchak chhe. vaLI, kahyun paN chhe ke
1
‘‘चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को त्ति णत्थि संदेहो अप्पा
विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते’’ (arthachitta bandhAtAn (chitta dhan, dhAnyAdi parigrahamAn
Asakta thatAn) bandhAy chhe, ane chitta parigrahathI, AshAtRuShNAthI alag thatAn, mUkAy chhe, emAn
sandeh nathI. AtmA vimaLasvabhAvI chhe paN te chitta malin thatAn malin thAy chhe. 135.)
ahIn, pAnch indriyono vijay darshAve chhe
किम् तवयरणु बाह्याभ्यन्तरतपश्चरणम् किं कृत्वा णिम्मलु चित्तु करेवि काम-
क्रोधादिरहितं वीतरागचिदानन्दैकसुखामृततृप्तं निर्मलं चित्तं कृत्वा अप्पा वंचिउ तेण पर
आत्मा वञ्चितः तेन परं नियमेन किं कृत्वा लहेवि लब्ध्वा किम् माणुसजम्म
मनुष्यजन्मेति तथाहि दुर्लभपरंपरारूपेण मनुष्यभवे लब्धे तपश्चरणेऽपि, च
निर्विकल्पसमाधिबलेन रागादिपरिहारेण चित्तशुद्धिः कर्तव्येति येन चित्तशुद्धिर्न कृता स
आत्मवञ्चक इति भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘चित्ते बद्धे बद्धो मुक्के मुक्को त्ति णत्थि
संदेहो अप्पा विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते ।।’’ ।।१३५।।
अत्र पञ्चेन्द्रियविजयं दर्शयति
और क्रोधादि रहित वीतराग चिदानंद सुखरूपी अमृतकर प्राप्त अपना निर्मल चित्त करके
अनशनादि तप न किया, वह आत्मघाती है, अपने आत्माका ठगनेवाला है
एकेंद्री पर्यायसे
विकलत्रय होना दुर्लभ है, विकलत्रयसे असैनी पंचेंद्री होना, असैनी पंचेंद्रियसे सैनी होना, सैनी
तिर्यंचसे मनुष्य, होना दुर्लभ है
मनुष्यमें भी आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, दीर्घ आयु, सतसंग,
धर्मश्रवण, धर्मका धारण और उसे जन्मपर्यन्त निभाना ये सब बातें दुर्लभ हैं, सबसे दुर्लभ
(कठिन) आत्मज्ञान है, जिससे कि चित्त शुद्ध होता है
ऐसी महादुर्लभ मनुष्यदेह पाकर
तपश्चरण अंगीकार करके निर्विकल्प समाधिके बलसे रागादिका त्याग कर परिणाम निर्मल
करने चाहिये, जिन्होंने चित्तको निर्मल नहीं किया, वे आत्माको ठगनेवाले हैं
ऐसा दूसरी जगह
भी किया है, कि चित्तके बँधनसे यह जीव कर्मोंसे बँधता है जिनका चित्त परिग्रहसे धन
धान्यादिकसे आसक्त हुआ, वे ही कर्मबंधनसे बँधते हैं, और जिनका चित्त परिग्रहसे छूटा आशा
(तृष्णा) से अलग हुआ, वे ही मुक्त हुए
इसमें संदेह नहीं है यह आत्मा निर्मल स्वभाव
है, सो चित्तके मैले होनेसे मैला होता है ।।१३५।।
आगे पाँच इंद्रियोंका जीतना दिखलाते हैं
1. anagAr dharmAmRut adhyAy 6, gAthA 41nI sanskRit TIkAmAn A shlok chhe.
स = स आत्मा

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442 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-136
bhAvArthahe mUDh jIv! Indriyone atIndriy sukhanA AsvAdarUp svashuddhAtma-
bhAvanAthI utpanna, vItarAg paramAnand jenun ek rUp chhe evA sukhathI parAngmukh thaIne
svechchhAe charavA na de (vashamAn rAkh), kAraN ke teo pahelAn pAnch indriyanA viShayarUpI vananun
bhakShaN karIne pachhI jIvane nisansAr evA shuddha AtmAthI pratipakShabhUt pAnch prakAranA sansAramAn
pADe chhe, e abhiprAy chhe. 136.
२६६) ए पंचिंदिय-करहडा जिय मोक्कला म चारि
चरिवि असेसु वि विसय-वणु पुणु पाडहिँ संसारि ।।१३६।।
एते पञ्चेन्द्रियकरभकाः जीव मुक्तान् मा चारय
चरित्वा अशेषं अपि विषयवनं पुनः पातयन्ति संसारे ।।१३६।।
ए इत्यादि एते प्रत्यक्षीभूताः पंचिंदिय-करहडा अतीन्द्रियसुखास्वादरूपात्परमात्मनः
सकाशात् प्रतिपक्षभूताः पञ्चेन्द्रियकरहटा उष्ट्राः जिय हे मूढजीव मोक्कला म चारि
स्वशुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दैकरूपसुखपराङ्मुखो भूत्वा स्वेच्छया मा चारय व्याघुट्टय
यतः किं कुर्वन्ति पाडहिं पातयन्ति कम् जीवम् क्व संसारे निःसंसारशुद्धात्मप्रतिपक्षभूते
पञ्चप्रकारसंसारे पुणु पश्चात् किं कृत्वा पूर्वम् चरिवि चरित्वा भक्षणं कृत्वा किम्
विसय-वणु पञ्चेन्द्रियविषयवनमित्यभिप्रायः ।।१३६।।
गाथा१३६
अन्वयार्थ :[एते ] ये प्रत्यक्ष [पंचेन्द्रियकरभकाः ] पाँच इंद्रियरूपी ऊँट हैं, उनको
[स्वेच्छया ] अपनी इच्छासे [मा चारय ] मत चरने दे, क्योंकि [अशेषं ] सम्पूर्ण [विषयवनं ]
विषय
वनको [चारयित्वा ] चरके [पुनः ] फि र ये [संसारे ] संसारमें ही [पातयंति ] पटक
देंगे
भावार्थ :ये पाँचों इंद्री अतींद्रियसुखके आस्वादनरूप परमात्मामें पराङ्मुख हैं,
उनको हे मूढ़जीव, तू शुद्धात्मा की भावना से पराङ्मुख होकर इनको स्वच्छंद मतकर, अपने
वशमें रख, ये तुझे संसारमें पटक देंगे, इसलिये इनको विषयोंसे पीछे लौटा
संसारसे रहित
जो शुद्ध आत्मा उससे उलटा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पाँच प्रकारका संसार उसमें
ये पंचेन्द्रीरूपी ऊँट स्वच्छंद हुए विषय
वनको चरके जगतके जीवोंको जगतमें ही पटक देंगे,
यह तात्पर्य जानना ।।१३६।।

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adhikAr-2 dohA-137 ]paramAtmaprakAsha [ 443
have, dhyAnanI viShamatAnun (kaThinatAnun) kathan kare chhe
bhAvArthahe yogI! yoganI gati viSham chhe kAraN ke atyant chapaL markaT jevun man
nijashuddhAtmAmAn sthiratA pAmatun nathI, te paN eTalA mATe ke pAnch indriyonA viShayasukho chhe
temAn ja vItarAg param AhlAdamay, samarasIbhAvarUp paramasukhathI rahit, anAdikALathI
vAsanAmAn vAsit ane pAnch indriyonA viShayasukhanA AsvAdamAn Asakta jIvonun man pharI pharIne
jAy chhe, e bhAvArtha chhe. 137.
अथ ध्यानवैषम्यं कथयति
२६७) जोइय विसमी जोय-गइ मणु संठवण ण जाइ
इंदिय-विसय जि सुक्खडा तित्थु जि वलि वलि जाइ ।।१३७।।
योगिन् विषमा योगगतिः मनः संस्थापयितुं न याति
इन्द्रियविषयेषु एव सुखानि तत्र एव पुनः पुनः याति ।।१३७।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् विसमी जोय-गइ विषमा योगगतिः कस्मात् मणु
संठवण ण जाइ निजशुद्धात्मन्यतिचपलं मर्कटप्रायं मनो धर्तुं न याति तदपि कस्मात्
इंदिय-विसय जि सुक्खडा इन्द्रियविषयेषु यानि सुखानि वलि वलि तित्थु जि जाइ वीतराग-
परमाह्लादसमरसीभावपरमसुखरहितानां अनादिवासनावासितपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वादासक्तानां पुनः
पुनः तत्रैव गच्छतीति भावार्थः
।।१३७।।
आगे ध्यानकी कठिनता दिखलाते हैं
गाथा१३७
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [योगगतिः ] ध्यानकी गति [विषमा ] महाविषम
है, क्योंकि [मनः ] चित्तरूपी बन्दर चपल होनेसे [संस्थापयितुं न याति ] निज शुद्धात्मामें
स्थिरताको नहीं प्राप्त होता
क्योंकि [इंद्रियविषयेषु एव ] इन्द्रियके विषयोंमें ही [सुखानि ] सुख
मान रहा है, इसलिये [तत्र एव ] उन्हीं विषयोंमें [पुनः पुनः ] फि र फि र अर्थात् बार बार
[याति ] जाता है
भावार्थ :वीतराग परम आनंद समरसी भावरूप अतींद्रिय सुखसे रहित जो यह
संसारी जीव है, उसका मन अनादिकालकी अविद्याकी वासनामें बस रहा है, इसलिये
पंचेन्द्रियोंके विषय
सुखोंमें आसक्त है, इन जगत्के जीवोंका मन बारम्बार विषयसुखोंमें जाता
है, और निजस्वरूपमें नहीं लगता है, इसलिये ध्यानकी गति विषम (कठिन) है ।।१३७।।

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444 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-137
5
have, sthaLagaNatarIthI bAhya prakShepakanun kathan kare chhe
bhAvArthapanch parameShThInI bhAvanAthI pratipakShabhUt, panchamagatinA (mokShanA) sukhanI
vinAshak evI pAnch indriyothI bahirbhUt thaIne (alag rahIne) paramArtha shabdathI vAchya evA
vishuddha darshanagnAn svabhAvathI paramAtmAne dhyAvato thako je nijashuddhAtmadravyanA samyakshraddhAn,
samyaggnAn ane samyaganucharaNarUp nishchayaratnatrayane pALe chhe-rakShe chhe te yogI
dhyAnI
kahevAy chhe.
अथ स्थलसंख्याबाह्यं प्रक्षेपकं कथयति
२६८) सो जोइउ जो जोगवइ दंसणु णाणु चरित्तु
होयवि पंचहँ बाहिरउ झायंतउ परमत्थु ।।१३७।।
स योगी यः पालयति (?) दर्शनं ज्ञानं चारित्रम्
भूत्वा पञ्चभ्यः बाह्यः ध्यायन् परमार्थम् ।।१३७।।
सो इत्यादि सो जोइउ स योगी ध्यानी भण्यते यः किं करोति जो जोगवइ यः कर्ता
प्रतिपालयति रक्षति किम् दंसणु णाणु चरित्तु निजशुद्धात्मद्रव्यसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपं
निश्चयरत्नत्रयम् किं कृत्वा होयवि भूत्वा कथंभूतः बाहिरउ बाह्यः केभ्यः पंचह
पञ्चपरमेष्ठिभावनाप्रतिपक्षभूतेभ्यः पञ्चमगतिसुखविनाशकेभ्यः पञ्चेन्द्रियेभ्यः किं कुर्वाणः
झायंतउ ध्यायन् सन् कम् परमत्थु परमार्थशब्दवाच्यं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं परमात्मानमिति
आगे स्थलसंख्याके बाह्य जो प्रक्षेपक दोहे हैं, उनको कहते हैं
गाथा१३७
अन्वयार्थ :[स योगी ] वही ध्यानी है, [यः ] जो [पंचभ्यः बाह्यः ] पंचेंद्रियोंसे
बाहर (अलग) [भूत्वा ] होकर [परमार्थम् ] निज परमात्माका [ध्यायन् ] ध्यान करता हुआ
[दर्शनं ज्ञानं चारित्रम् ] दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रय को [पालयति ] पालता है, रक्षा करता
है
भावार्थ :जिसके परिणाम निज शुद्धात्मद्रव्यका सम्यक्श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप
निश्चयरत्नत्रयमें ही लीन है, जो पंचमगतिरूपी मोक्षके सुखको विनाश करनेवाली और
पांचपरमेष्ठीकी भावनासे रहित ऐसी पंचेंद्रियोंसे जुदा हो गया है, वही योगी है, योग शब्दका
अर्थ ऐसा है, कि अपना मन चेतनमें लगाना वह योग जिसके हो, वही योगी है, वही ध्यानी

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adhikAr-2 dohA-138 ]paramAtmaprakAsha [ 445
yog shabdano artha kahevAmAn Ave chhe‘युज्’ arthAt samAdhimAn chittane joDavun. evA
samAdhinA arthavALA dhAtuthI niShpanna yogashabdathI vItarAganirvikalpa samAdhi kahevAy chhe athavA
anantagnAnAdirUp svashuddhAtmAmAn joDAvun
pariNamavun te paN yog chhe. Avo yog jene chhe te yogI
-dhyAnI-tapodhan chhe. e pramANe artha chhe. 1375.
have, pAnch indriyasukhanun anityapaNun darshAve chhe
bhAvArthanirviShay nitya ane vItarAg paramAnand jeno ek svabhAv chhe evA
paramAtmasukhathI pratikUL viShayasukho be divas rahenArAn chhe. pachhI-be divas pachhI-AtmasukhathI
तात्पर्यम् योगशब्दस्यार्थं कथ्यते‘युज्’ समाधौ इति धातुनिष्पन्नेन योगशब्देन
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिरुच्यते अथवानन्तज्ञानादिरूपे स्वशुद्धात्मनि योजनं परिणमनं योगः, स
इत्थंभूतो योगो यस्यास्तीति स तु योगी ध्यानी तपोधन इत्यर्थः ।।१३७।।
अथ पञ्चेन्द्रियसुखस्यानित्यत्वं दर्शयति
२६९) विसय-सुहइँ बे दिवहडा पुणु दुक्खहँ परिवाडि
भुल्लउ जीव म वाहि तुहुँ अप्पण खंधि कुहाडि ।।१३८।।
विषयसुखानि द्वे दिवसे पुनः दुःखानां परिपाटी
भ्रान्त जीव मा वाहय त्वं आत्मनः स्कन्धे कुठारम् ।।१३८।।
विसय इत्यादि विसय-सुहइं निर्विषयान्नित्याद्वीतरागपरमानन्दैकस्वभावात् परमात्म-
सुखात्प्रतिकूलानि विषयसुखानि बे दिबहडा दिनद्वयस्थायीनि भवन्ति पुणु पुनः
है, वही तपोधन है, वह निःसंदेह जानना ।।१३७।।
आगे पंचेन्द्रियोंके सुखको विनाशीक बतलाते हैं
गाथा१३८
अन्वयार्थ :[विषयसुखानि ] विषयोंके सुख [द्वे दिवसे ] दौ दिनके हैं, [पुनः ]
फि र बादमें [दुःखानां परिपाटी ] ये विषय दुःखकी परिपाटी हैं, ऐसा जानकर [भ्रांत जीव ]
हे भोले जीव, [त्वं ] तू [आत्मनः स्कंधे ] अपने कंधे पर [कुठारम् ] आपही कुल्हाड़ीको
[मा वाहय ] मत चलावे
।।
भावार्थ :ये विषय क्षणभंगुर हैं, बारम्बार दुर्गतिके दुःखके देनेवाले हैं, इसलिए
विषयोंका सेवन अपने कंधे पर कुल्हाड़ीका मारना है, अर्थात् नरकमें अपनेको डुबोना है, ऐसा

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446 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-139
bahirmukh, viShayAsakta jIve je pApo upArjyAn chhe tenA udayajanit evAn narakAdi dukhonI
paripATI ja
prastAv jaAve chhe, em jANIne he bhrAnt jIv! tun potAnA ja khambhA upar
kuhADo na mAr (arthAt viShayonun sevan na kar.)
ahIn, A vyAkhyAn jANIne viShayasukh chhoDIne ane vItarAgaparamAtma sukhamAn sthit
thaIne nirantar AtmabhAvanA karavI joIe, evo bhAvArtha chhe. 138.
have, AtmabhAvanA arthe je vidyamAn viShayone tyAge chhe, tenI prashansA kare chhe
पश्चाद्दिनद्वयानन्तरं दुक्खहं परिवाडि आत्मसुखबहिर्मुखेन, विषयासक्ते न जीवेन
यान्युपार्जितानि पापानि तदुदयजनितानां नारकादिदुःखानां पारिपाटी प्रस्तावः एवं ज्ञात्वा
भुल्लउ जीव हे भ्रांत जीव म वाहि तुहुं मा निक्षिप त्वम्
कम् कुहाडि कुठारम्
क्व अप्पण खंधि आत्मीयस्कन्धे अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा विषयसुखं त्यक्त्वा वीतराग-
परमात्मसुखे च स्थित्वा निरन्तरं भावना कर्तव्येति भावार्थः ।।१३८।।
अथात्मभावनार्थं योऽसौ विद्यमानविषयान् त्यजति तस्य प्रशंसां करोति
२७०) संता विसय जु परिहरइ बलि किज्जउँ हउँ तासु
सो दइवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ।।१३९।।
सतः विषयान् यः परिहरति बलिं करोमि अहं तस्य
स दैवेन एव मुण्डितः शीर्षं खल्वाटं यस्य ।।१३९।।
व्याख्यान जानकर विषयसुखोंको छोड़, वीतराग परमात्मसुखमें ठहरकर निरन्तर
शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये ।।१३८।।
आगे आत्मभावनाके लिये जो विद्यमान विषयोंको छोड़ता है, उसकी प्रशंसा करते
हैं
गाथा१३९
अन्वयार्थ :[यः ] जो कोई ज्ञानी [सतः विषयान् ] विद्यमान विषयोंको
[परिहरति ] छोड़ देता है, [तस्य ] उसकी [अहं ] मैं [बलिं ] पूजा [करोमि ] करता हूँ,
क्योंकि [यस्य शीर्षं ] जिसका शिर [खल्वाटं ] गंजा है, [सः ] वह तो [दैवेन एव ] दैवकर
ही [मुंडितः ] मूड़ा हुआ है, वह मुंडित नहीं कहा जा सकता