Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 140 (Adhikar 2) Manane Jeetee Indriyone Jeetavee,141 (Adhikar 2),142 (Adhikar 2),143 (Adhikar 2) Samyaktvani Durlabhata,144 (Adhikar 2) Gruhavas Athava Mamatvama Dosh,145 (Adhikar 2) Deh Parthi Mammtvano Tyag,146 (Adhikar 2),147 (Adhikar 2),148 (Adhikar 2) Dehani Malinatanu Kathan,149 (Adhikar 2),150 (Adhikar 2),151 (Adhikar 2),152 (Adhikar 2).

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adhikAr-2 dohA-139 ]paramAtmaprakAsha [ 447
bhAvArthakaDavA jher jevA ane 1kimpAkaphaLanI upamAvALA (arthAt dekhavAmAn
manogna) vidyamAn viShayone ke je alabdhapUrva (pUrve nahi prApta karelA) niruparAg shuddha
AtmatattvanI prAptirUp nishchayadharmanA chor chhe temane
chhoDe chhe, tenI hun pUjA karun chhun. e rIte
shrIyogIndradev viShayatyAgI pratye potAno guNAnurAg darshAve chhe.
vidyamAn viShayanA tyAg upar draShTAnt kahe chhe, jene mAthe TAl chhe te daivathI ja munDAyo chhe.
ahIn, pUrvakALamAn devonun Agaman joIne, sAt RIddhirUp dharmano atishay joIne,
avadhignAn, manaparyayagnAn ane kevaLagnAnanI utpatti joIne ane jemanAn charaNarUpI kamaLane
anek rAjAdhirAjanA maNimukuTanA kiraNo chumban karatAn hatAn (jemanA charaNAravindane moTA
moTA rAjAo namaskAr kare chhe) evA bharat, sagar, rAm, pAnDavAdine jinadharmamAn rat
संता इत्यादि संता विसय कटुकविषप्रख्यान् किंपाकफलोपमानलब्धपूर्वनिरुपराग-
शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भरूपनिश्चयधर्मचौरान् विद्यमानविषयान् जु परिहरइ यः परिहरति बलि
किज्जउं हउं तासु बलिं पूजां करोमि तस्याहमिति
श्रीयोगीन्द्रदेवाः स्वकीयगुणानुरागं
प्रकटयन्ति विद्यमानविषयत्यागे द्रष्टान्तमाह सो दइवेण जि मुंडियउ स दैवेन मुण्डितः
स कः सीसु खडिल्लउ जासु शिरः खल्वाटं यस्येति अत्र पूर्वकाले देवागमनं द्रष्ट्वा
सप्तर्द्धिरूपं धर्मातिशयं द्रष्ट्वा अवधिमनःपर्ययकेवलज्ञानोत्पत्ति द्रष्ट्वा भरतसगररामपाण्डवादि-
भावार्थ :जो देखनेमें मनोज्ञ ऐसा इन्द्राइनिका विषफल उसके समान ये मौजूद
विषय हैं, ये वीतराग शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्तिरूप निश्ययधर्मस्वरूप रत्नके चोर हैं, उनको जो ज्ञानी
छोड़ते हैं, उनकी बलिहारी श्रीयोगीन्द्रदेव करते हैं, अर्थात् अपना गुणानुराग प्रगट करते हैं, जो
वर्तमान विषयोंके प्राप्त होने पर भी उनको छोड़ते हैं, वे महापुरुषोंकर प्रशंसा योग्य हैं, अर्थात्
जिनके सम्पदा मौजूद हैं, वे सब त्यागकर वीतरागके मारगको आराधें, वे तो सत्पुरुषोंसे सदा
ही प्रशंसाके योग्य हैं, और जिसके कुछ भी तो सामग्री नहीं है, परंतु तृष्णासे दुःखी हो रहा
है, अर्थात् जिसके विषय तो विद्यमान नहीं हैं, तो भी उनका अभिलाषी है, वह महानिंद्य है
चतुर्थकालमें तो इस क्षेत्रमें देवोंका आगमन था, उनको देखकर धर्मकी रुचि होती थी, और
नानाप्रकारकी ऋद्धियोंके धारी महामुनियोंका अतिशय देखकर ज्ञानकी प्राप्ति होती थी, तथा
अन्य जीवोंको अवधिमनःपर्यय केवलज्ञानकी उत्पत्ति देखकर सम्यक्त्वकी सिद्धि होती थी,
जिनके चरणारविन्दोंको बड़े
बड़े मुकुटधारी राजा नमस्कार करते थे, ऐसे बड़ेबड़े राजाओंकर
सेवनीक भरत, सगर, राम, पांडवादि अनेक चक्रवर्ती बलभद्र, नारायण तथा मंडलीक
1kimpAk=sanskRit-mahAkAL, hindI-lAl indrAyananun viShaphaL, gujarAtI-rAtAn indrAyaNAn, lAlaindravAraNA.
A jhADanAn phaL dekhAve sundar hoy chhe paN khAvAmAn kaDavAn ane jherI hoy chhe.

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448 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-139
joIne koI paramAtmAnI bhAvanA arthe vidyamAn viShayono tyAg kare ane tenI bhAvanAmAn
rat jIvone dAn-pUjAdik kare temAn Ashcharya nathI, parantu A je
‘‘दैवागमपरिहीणे
कालेऽतिशयवर्जिते केवलोत्पत्तिहीने तु हलचक्रधराज्झिते’’ (arthaA panchamakALamAn devonun
Agaman thatun nathI, koI atishay jovAmAn Avato nathI, kevaLagnAn thatun nathI, ane haLadhar
(baLadev) chakraghar (chakravartI) no abhAv chhe. e pramANe shlokamAn kahelA lakShaNavALA
duShamakALamAn je viShayano tyAg kare chhe te Ashcharya chhe. (arthAt tevA puruShone dhanya chhe)
evo bhAvArtha chhe. 139.
have, manojya (manano jay) karatAn indriyajay thAy chhe, em pragaT kare chhe
कमनेकराजाधिराजमणिमुकुटकिरणकलापचुम्बितपादारविन्दजिनधर्मरतं द्रष्ट्वा च परमात्म-
भावनार्थं केचन विद्यमानविषयत्यागं कुर्वन्ति तद्भावनारतानां दानपूजादिकं च कुर्वन्ति
तत्राश्चर्यं नास्ति इदानीं पुनः ‘‘देवागमपरिहीणे कालेऽतिशयवर्जिते
केवलोत्पत्तिहीने तु
हलचक्रधरोज्झिते ।।’’ इति श्लोककथितलक्षणे दुष्षमकाले यत्कुर्वन्ति तदाश्चर्यमिति
भावार्थः ।।१३९।।
अथ मनोजये कृते सतीन्द्रियजयः कृतो भवतीति प्रकटयति
२७१) पंचहँ णायकु वसिकरहु जेण होंति वसि अण्ण
मूल विणट्ठइ तरु-वरहँ अवसइँ सुक्कहिं पण्ण ।।१४०।।
राजाओंको जिनधर्ममें लीन देखकर भव्यजीवोंको जिनधर्मकी रुचि उपजती थी, तब परमात्म
भावनाके लिए विद्यमान विषयोंका त्याग करते थे और जब तक गृहस्थपनेमें रहते थे, तब
तक दानपूजादि शुभ क्रियायें करते थे, चार प्रकारके संघकी सेवा करते थे इसलिये पहले
समयमें तो ज्ञानोत्पत्तिके अनेक कारण थे, ज्ञान उत्पन्न होनेका अचंभा नहीं था लेकिन इस
पंचमकालमें इतनी सामग्री नहीं हैं ऐसा कहा भी है, कि इस पंचमकालमें देवोंका आगमन
तो बंद हो गया है, और कोई अतिशय नहीं देखा जाता यह काल धर्मके अतिशयसे रहित
है, और केवलज्ञानकी उत्पत्तिसे रहित है, तथा हलधर, चक्रवर्त्ती आदि शलाकापुरुषोंसे रहित
है, ऐसे दुःषमकालमें जो भव्यजीव धर्मको धारण करते हैं, यती श्रावकके व्रत आचरते हैं, यह
अचंभा है
वे पुरुष धन्य हैं, सदा प्रशंसा योग्य हैं ।।१३९।।
आगे मनके जीतनेसे इंन्द्रियोंका जय होता है, जिसने मनको जीता, उसने सब इन्द्रियोंको
जीत लिया, ऐसा व्याख्यान करते हैं

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adhikAr-2 dohA-140 ]paramAtmaprakAsha [ 449
bhAvArthahe bhavyo! tame rAgAdi vikalpa rahit paramAtmAnI bhAvanAthI pratikUL
evA, dekhelA, sAmbhaLelA ane bhogonI AkAnkShAthI mAnDIne samasta anubhavelA apadhyAn janit
vikalpajALarUp ane pAnch gnAnanA pratipakShabhUt pAnch indriyonA manarUpI nAyakane
vishiShTabhedabhAvanArUp ankushanA baLathI svAdhIn karo. jene svAdhIn karavAthI shun thAy chhe? jene
(manane) vash karavAthI anya indriyo vash thAy chhe. draShTAnt kahe chhe. jhADanun mUL naShTa thatAn,
pAndaDAo nakkI sukAI jAy chhe.
ahIn, bhAvArtha em chhe ke nijashuddhAtmatattvanI bhAvanA arthe yenaken prakAreN (koI
पञ्चानां नायकं वशीकुरुत येन भवन्ति वशे अन्यानि
मूले विनष्टे तरुवरस्य अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ।।१४०।।
पंचहं इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते पंचहं पञ्चज्ञानप्रतिपक्षभूतानां
पञ्चेन्द्रियाणां णायकु रागादिविकल्परहितपरमात्मभावनाप्रतिकूलं द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूप-
प्रभृतिसमस्तापध्यानजनितविकल्पजालरूपं मनोनायकं हे भव्याः वसिकरहु विशिष्टभेद-
भावनाङ्कुशबलेन स्वाधीनं कुरुते
येन स्वाधीनेन किं भवति जेण होंति वसि अण्ण
येन वशीकृतेनान्यानीन्द्रियाणि वशीभवन्ति द्रष्टान्तमाह मूलविणट्ठइ तरु-वरहं मूले विनष्टे
तरुवरस्य अवसइं सुक्कहिं पण्ण अवश्यं नियमेन शुष्यन्ति पर्णानि इति अयमत्र
भावार्थः निजशुद्धात्मतत्त्वभावनार्थं येन केनचित्प्रकारेण मनोजयः कर्तव्यः तस्मिन् कृते
गाथा१४०
अन्वयार्थ :[पंचानां नायकं ] पाँच इन्द्रियोंके स्वामी मनको [वशीकुरुत ] तुम
वशमें करो [येन ] जिस मनके वश होनेसे [अन्यानि वशे भवंति ] अन्य पाँच इन्द्रियें वशमें
हो जाती हैं
जैसे कि [तरुवरस्य ] वृक्षकी [मूले विनष्टे ] जड़के नाश हो जानेसे [पर्णानि ]
पत्ते [अवश्यं शुष्यंति ] निश्चयसे सूख जाते हैं
भावार्थ :पाँचवाँ ज्ञान जो केवलज्ञान उससे पराङ्मुख स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु,
क्षोत्र, इन पाँच इन्द्रियोंका स्वामी मन है, जो रागादि विकल्प रहित परमात्माकी भावनासे विमुख
और देखे, सुने, भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप आर्त, रौद्र, खोटे ध्यानोंको आदि लेकर अनेक
विकल्पजालमयी मन है
यह चंचलमनरूपी हस्ती उसको भेदविज्ञानकी भावनारूप अंकुशके
बलसे वशमें करो, अपने आधीन करो जिसके वश करनेसे सब इन्द्रियां वशमें हो सकती
हैं, जैसे जड़के टूट जानेसे वृक्षके पत्ते आप ही सूख जाते हैं इसलिये निज शुद्धात्मकी
भावनाके लिये जिस तिस तरह मनको जीतना चाहिये ऐसा ही अन्य जगह भी कहा है, कि

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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-141
paN prakAre, game te upAye) manojay karavo joIe (manane jItavun joIe) te karatAn
(manane jItavAthI te) jitendriy thavAy chhe. vaLI, kahyun chhe ke
‘‘येनोपायेन शक्यते सन्नियन्तुं
चलं मनः स एवोपासनीयोऽत्र न चैव विरमेत्ततः ।।’’ (arthaje upAyathI chanchaL man
sanyamit karI shakAy te upAy atre upAsyA ja karavo paN em karatAn aTakavun nahi (te
upAy mUkI devo nahi.) 140.
have, he jIv! tun viShayAsakta thaIne keTalo kAL gALIsh? em sambodhe chhe
bhAvArthahe agnAnI jIv! tun shuddhAtmabhAvanAthI utpanna vItarAg paramAnand jharatA
जितेन्द्रियो भवति तथा चोक्त म्‘‘येनोपायेन शक्येत सन्नियन्तुं चलं मनः
एवोपासनीयोऽत्र न चैव विरमेत्ततः ।।’’ ।।१४०।।
अथ हे जीव विषयासक्त : सन् कियन्तं कालं गमिष्यसीति संबोधयति
२७२) विसयासत्तउ जीव तुहुँ कित्तिउ कालु गमीसि
सिव-संगमु करि णिच्चलउ अवसइँ मुक्खु लहीसि ।।१४१।।
विषयासक्त : जीव त्वं कियन्तं कालं गमिष्यसि
शिवसंगमं कुरु निश्चलं अवश्यं मोक्षं लभसे ।।१४१।।
विसय इत्यादि विसयासत्तउ शुद्धात्मभावनोत्पन्नवीतरागपरमानन्दस्यन्दिपारमार्थिक-
सुखानुभवरहितत्वेन विषयासक्तो भूत्वा जीव हे अज्ञानिजीव तुहुं त्वं कित्तिउ कालु गमीसि
उस उपायसे उदास नहीं होना जगत् से उदास और मन जीतनेका उपाय करना ।।१४०।।
आगे जीवको उपदेश देते हैं, कि हे जीव, तू विषयोंमें लीन होकर अनंतकालतक
भटका, और अब भी विषयासक्त है, सो विषयासक्त हुआ कितने कालतक भटकेगा, अब
तो मोक्षका साधन कर, ऐसा संबोधन करते हैं
गाथा१४१
अन्वयार्थ :[जीव ] हे अज्ञानी जीव, [त्वं ] तू [विषयासक्तः ] विषयोंमें आसक्त
होके [कियंतं कालं ] कितना काल [गमिष्यसि ] बितायेगा [शिवसंगमं ] अब तो शुद्धात्माका
अनुभव [निश्चलं ] निश्चलरूप [कुरु ] कर, जिससे कि [अवश्यं ] अवश्य [मोक्षं ] मोक्षको
[लभसे ] पावेगा
भावार्थ :हे अज्ञानी, तू शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परम आनंदरूप

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adhikAr-2 dohA-141 ]paramAtmaprakAsha [ 451
pAramArthik sukhanA anubhavathI rahitapaNe viShayAsakta thaIne keTalo kAL gALIsh?-bahirmukhabhAve
keTalo kAL vitAvIsh?
‘to have shun karun? evA prashnano pratyuttar kahe chhe. ‘shiv’ shabdathI vAchya evo,
kevaLagnAnadarshanasvabhAvI je A nij shuddhAtmA chhe teno, ghor upasarga ane ghor pariShahano
prasang AvI paDavA chhatAn paN, meruvat nishchaLapaNe sansarga kar (nishchaL dhyAn kar), tevA
nishchaLaAtmadhyAnathI tun anantagnAnAdi guNonun sthAn evA mokShane avashya pAmIsh, evun tAtparya
chhe. 141.
have, ‘shiv’ shabdathI vAchya evA svashuddhAtmAnA sansargano tyAg tun na kar, em pharIne
paN sambodhe chhe.
कियन्तं कालं गमिष्यसि बहिर्मुखभावेन नयसि तर्हि किं करोमीत्यस्य प्रत्युत्तरमाह
सिव-संगमु करि शिवशब्दवाच्यो योऽसौ केवलज्ञानदर्शनस्वभावस्वकीयशुद्धात्मा तत्र संगमं
संसर्गं कुरु
कथंभूतम् णिच्चलउ घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि मेरुवन्निश्चलं तेन निश्चलात्म-
ध्यानेन अवसइं मुक्खु लहीसि नियमेनानन्तज्ञानादिगुणास्पदं मोक्षं लभसे त्वमिति
तात्पर्यम्
।।१४१।।
अथ शिवशब्दवाच्यस्वशुद्धात्मसंसर्गत्यागं मा कार्षीस्त्वमिति पुनरपि संबोधयति
२७३) इहु सिव-संगमु परिहरिवि गुरुवड कहिँ वि म जाहि
जे सिव-संगमि लीण णवि दुक्खु सहंता वाहि ।।१४२।।
अविनाशी सुखके अनुभवसे रहित हुआ विषयोंमें लीन होकर कितने कालतक भटकेगा पहले
तो अनंतकालतक भ्रमा, अब भी भ्रमणसे नहीं थका, सो बहिर्मुख परिणाम करके कब तक
भटकेगा ? अब तो केवलज्ञान दर्शनरूप अपने शुद्धात्माका अनुभव कर, निज भावोंका संबंध
कर
घोर उपसर्ग और बाईस परीषहोंकी उत्पत्तिमें भी सुमेरुके समान निश्चल जो आत्मध्यान
उसको धारण कर, उसके प्रभावसे निःसंशय मोक्ष पावेगा जो मोक्षपदार्थ अनंतज्ञान,
अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यादि अनंतगुणोंका ठिकाना है, सो विषयके त्यागसे अवश्य
मोक्ष पावेगा
।।१४१।।
आगे निजस्वरूपका संसर्ग तू मत छोड़, निजस्वरूप ही उपादेय है, ऐसा ही बारबार
उपदेश करते हैं

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452 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-142
bhAvArthaA pratyakSha shivasansargane-‘shiv’ shabdathI vAchya evo anant gnAnAdi
svabhAvavALo svashuddhAtmA teno rAgAdi rahit sambandh chhoDI daIne he tapodhan! tun shuddhAtmabhAvathI
pratipakShabhUt mithyAtva, rAgAdimAn kyAy paN gaman na kar. je koI viShayakaShAyane AdhIn thavAthI
‘shiv’ shabdathI vAchya evA svashuddhAtmAmAn lIn-tanmay-thatA nathI, temane vyAkuLatAnun lakShaN je
chhe evA dukhane sahan karatA tun dekh.
ahIn, nishchayanayathI potAnA dehamAn je kevaLagnAnAdi anantaguNasahit paramAtmA rahyo
chhe te je ‘shiv’ shabdathI sarvatra samajavo, ‘shiv’ shabdathI bIjo koI ‘shiv’ nAmano ek
इमं शिवसंगमं परिहृत्य गुरुवर क्वापि मा गच्छ
ये शिवसंगमे लीना नैव दुःखं सहमानाः पश्य ।।१४२।।
इहु इत्यादि इहु इमं प्रत्यक्षीभूतं सिव-संगमु शिवसंसर्गं शिवशब्दवाच्योऽनन्त-
ज्ञानादिस्वभावः स्वशुद्धात्मा तस्य रागादिरहितं संबन्धं परिहरिवि परिहृत्य त्यक्त्वा गुरुवड हे
तपोधन
कहिं वि म जाहि शुद्धात्मभावनाप्रतिपक्षभूते मिथ्यात्वरागादौ क्वापि गमनं मा कार्षीः
जे सिव-संगमि लीण णवि ये केचन विषयकषायाधीनतया शिवशब्दवाच्ये स्वशुद्धात्मनि
लीनास्तन्मया व भवन्ति
दुक्खु सहंता वाहि व्याकुलत्वलक्षणं दुक्खं सहमानास्सन्तः पश्येति
अत्र स्वकीयदेहे निश्चयनयेन तिष्ठति योऽसौ केवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहितः परमात्मा स एव
गाथा१४२
अन्वयार्थ :[गुरुवर ] हे तपोधन, [शिवसंगमं ] आत्मकल्याणको [परिहृत्य ]
छोड़कर [क्वापि ] तू कहीं भी [मा गच्छ ] मत जा, [ये ] जो कोई अज्ञानी जीव [शिवसंगमे ]
निजभावमें [नैव लीनाः ] नहीं लीन होते हैं, वे सब [दुःखं ] दुःखको [सहमानाः ] सहते हैं,
ऐसा तू [पश्य ] देख
।।
भावार्थ :यह आत्मकल्याण, प्रत्यक्षमें संसारसागरके तैरनेका उपाय है, उसको
छोड़कर हे तपोधन, तू शुद्धात्माकी भावनाके शत्रु जो मिथ्यात्व रागादि हैं, उनमें कभी गमन
मत कर, केवल आत्मस्वरूपमें मगन रह
जो कोई अज्ञानी विषयकषायके वश होकर
शिवसंगम (निजभाव) में लीन नहीं रहते, उनको व्याकुलतारूप दुःख भववनमें सहता देख
संसारी जीव सभी व्याकुल है, दुःखरूप हैं, कोई सुखी नहीं है, एक शिवपद ही परम आनंदका
धाम है
जो अपने स्वभावमें निश्चयनयकर ठहरनेवाला केवलज्ञानादि अनंतगुण सहित परमात्मा
उसीका नाम शिव है, ऐसा सब जगह जानना अथवा निर्वाणका नाम शिव है, अन्य कोई
शिव नामका पदार्थ नहीं है, जैसा कि नैयायिक वैशेषिकोंने जगत्का कर्त्ता-हर्त्ता कोई शिव

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adhikAr-2 dohA-143 ]paramAtmaprakAsha [ 453
jagatvyApI jagatkartA na samajavo, evo bhAvArtha chhe. 142.
have, samyaktvanun durlabhapaNun darshAve chhe
bhAvArthaatItakAL anAdi chhe, jIv paN anAdi chhe ane sansArarUpI samudra te
paN anAdi-anant chhe. e rIte anAdi kALamAn mithyAtva, rAgAdinI AdhInatAthI
nijashuddhAtmAthI chyut jIvane A be vastu maLI nathI. be kaI? (1) anantagnAnAdi-
शिवशब्दत्वेन सर्वत्र ज्ञातव्यो नान्यः कोऽपि शिवनामा व्याप्येको जगत्कर्तेति भावार्थः ।।१४२।।
अथ सम्यक्त्वदुर्लभत्वं दर्शयति
२७४) कालु अणाइ अणाइ जिउ भव-सायरु वि अणंतु
जीविं बिण्णि ण पत्ताइँ जिणु सामिउ सम्मत्तु ।।१४३।।
कालः अनादिः अनादिः जीवः भवसागरोऽपि अनन्तः
जीवेन द्वे न प्राप्त जिनस्वामी सम्यक्त्वम् ।।१४३।।
कालु इत्यादि कालु अणाइ गतकालो अनादिः अणाइ जिउ जीवोऽप्यनादिः
भव-सायरु वि अणंतु भवः संसारस्य एव समुद्रः सोऽप्यनादिरनन्तश्च जीविं बिण्णि ण पत्ताइ
एवमनादिकाले मिथ्यात्वरागाद्यधीनतया निजशुद्धात्मभावनाच्युतेन जीवेन द्वयं न लब्धम् द्वये
माना है, ऐसा तू मत मान तू अपने स्वरूपको अथवा केवलज्ञानियोंको अथवा मोक्षपदको
शिव समझ यही श्रीवीतरागदेवकी आज्ञा हैं ।।१४२।।
आगे सम्यग्दर्शनको दुर्लभ दिखलाते हैं
गाथा१४३
अन्वयार्थ :[कालः अनादिः ] काल भी अनादि है, [जीवः अनादिः ] जीव भी
अनादि हैं, और [भवसागरोडिप ] संसारसमुद्र भी [अनंतः ] अनादि अनंत है लेकिन
[जीवेन ] इस जीवने [जिनः स्वामी सम्यक्त्वम् ] जिनराजस्वामी और सम्यक्त्व [द्वे ] ये दो
[न प्राप्ते ] नहीं पाये
भावार्थ :काल, जीव और संसार ये तीनों अनादि हैं, उसमें अनादिकालसे भटकते
हुए इस जीवने मिथ्यात्वरागादिकके वश होकर शुद्धात्मस्वरूप अपना न देखा, न जाना यह
संसारी जीव अनादिकालसे आत्मज्ञानकी भावनासे रहित है इस जीवने स्वर्ग, नरक, राज्यादि

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yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-143
chatuShTayasahit, kShudhAdi aDhAr doSh rahit jinasvAmI ke je param-ArAdhya chhe. (2) ‘samyaktva’
shabdathI nishchayathI shuddhAtmAnubhUtilakShaN vItarAg-samyaktva ane vyavahArathI vItarAg sarvagnapraNIt
satdravyAdinA shraddhAnarUp sarAg samyaktva, em bhAvArtha chhe.
[जिणु सामिउ सम्मतु] ne badale
‘शिवसंगमु सम्मत्तु [(1) shivano sang ane (2) samyaktva] e pAThAntaramAn te ja jinasvAmI
ja) ‘shiv’ shabdathI vAchya chhe, bIjo koI puruSh visheSh nahi. 143.
किम् जिणु सामिउ सम्मत्तु अनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहितः क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितो जिनस्वामी
परमाराध्यः ‘सिवसंगमु सम्मत्तु’ इति पाठान्तरे स एव शिवशब्दवाच्यो न चान्यः पुरुषविशेषः,
सम्यक्त्वशब्देन तु निश्चयेन शुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागसम्यक्त्वम्, व्यवहारेण तु
वीतरागसर्वज्ञप्रणीतसद्द्रव्यादिश्रद्धानरूपं सरागसम्यक्त्वं चेति भावार्थः
।।१४३।।
सब पाये, परंतु ये दो वस्तुयें न मिलीं, एक तो सम्यग्दर्शन न पाया, दूसरे श्रीजिनराजस्वामी
न पाये
यह जीव अनादिका मिथ्यादृष्टी है, और क्षुद्र देवोंका उपासक है श्रीजिनराज
भगवान्की भक्ति इसके कभी नहीं हुई, अन्य देवोंका उपासक हुआ सम्यग्दर्शन नहीं हुआ
यहाँ कोई प्रश्न करे, कि अनादिका मिथ्यादृष्टी होनेसे सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ, यह तो ठीक
है, परन्तु जिनराजस्वामी न पाये, ऐसा नहीं हो सकता ? क्योंकि ‘‘भवि भवि जिण पुज्जिउ
वंदिउ’’ ऐसा शास्त्रका वचन है, अर्थात् भव भवमें इस जीवने जिनवर पूजे और गुरू वंदे
परंतु तुम कहते हो, कि इस जीवने भववनमें भ्रमते जिनराजस्वामी नहीं पाये, उसका
समाधानजो भावभक्ति इसके कभी न हुई, भावभक्ति तो सम्यग्दृष्टीके ही होती है, और
बाह्यलौकिकभक्ति इसके संसारके प्रयोजनके लिये हुई वह गिनतीमें नहीं ऊ परकी सब बातें
निःसार (थोथी) हैं, भाव ही कारण होते हैं, सो भावभक्ति मिथ्यादृष्टीके नहीं होती ज्ञानी
जीव ही जिनराजके दास हैं, सो सम्यक्त्व बिना भावभक्ति मिथ्यादृष्टीके नहीं होती ज्ञानी
जीव ही जिनराजके दास हैं, सो सम्यक्त्व बिना भावभक्तिके अभावसे जिनस्वामी नहीं पाये,
इसमें संदेह नहीं है जो जिनवरस्वामीको पाते, तो उसीके समान होते, ऊ परी लोगदिखावारूप
भक्ति हुई, तो किस कामकी, यह जानना अब श्रीजिनदेवका और सम्यग्दर्शनका स्वरूप
सुनो अनंत ज्ञानादि चतुष्टय सहित और क्षुधादि अठारह दोष रहित हैं वे जिनस्वामी हैं, वे
ही परम आराधने योग्य हैं, तथा शुद्धात्मज्ञानरूप निश्चयसम्यक्त्व (वीतराग सम्यक्त्व) अथवा
वीतराग सर्वज्ञदेवके उपदेशे हुए षट् द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ और पाँच अस्तिकाय उनका
श्रद्धानरूप सराग सम्यक्त्व यह निश्चय व्यवहार दो प्रकारका सम्यक्त्व है
निश्चयका नाम
वीतराग है, व्यवहारका नाम सराग है एक तो चौथे पदका यह अर्थ है, और दूसरे ऐसा
‘‘सिवसंगमु सम्मत्तु’’ इसका अर्थ ऐसा है, कि शिव जो जिनेन्द्रदेव उनका संगम अर्थात् भाव

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adhikAr-2 dohA-144 ]paramAtmaprakAsha [ 455
have, shuddha AtmAnA samvedananun sAdhak je tapashcharaN tenAthI pratipakShabhUt gRuhavAsane doSh
de chhe (gRuhavAsano doSh batAve chhe)
bhAvArthaahIn ‘gRuh’ shabdathI mukhyapaNe strI levI. vaLI, kahyun paN chhe ke‘न गृहं
गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते ’’ (arthagRuhane gRuh kahetA nathI, gRuhiNIne gRuh kahevAy chhe. he
jIv! tun gharavAsanestrIvAsane AtmAnA hitarUp na jAN, A gRuhavAs samasta pAponun
nivAsasthAn chhe. agnAnI jIvone bAndhavA mATe kRutAnt nAmanA karme shuddhAtmatattvanI bhAvanAthI
अथ शुद्धात्मसंवित्तिसाधकतपश्चरणप्रतिपक्षभूतं गृहवासं दूषयति
२७५) घर-वासउ मा जाणि जिय दुक्किय-वासउ एहु
पासु कयंतेँ मंडियउ अविचलु णिस्संदेहु ।।१४४।।
गृहवासं मा जानीहि जीव दुष्कृतवास एषः
पाशः कृतान्तेन मण्डितः अविचलः निस्सन्देहम् ।।१४४।।
घरवासउ इत्यादि घर-वासउ गृहवासम् अत्र गृहशब्देन वासमुख्यभूता स्त्री ग्राह्या
तथा चोक्त म्‘‘न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते ।।’’ मा जाणि जिय हे जीव
त्वमात्महितं मा जानीहि कथंभूतो गृहवासः दुक्किय-वासउ एहु समस्तदुष्कृतानां पापानां
वासः स्थानमेषः, पासु कयंतें मंडियउ अज्ञानिजीवबन्धनार्थं पाशो मण्डितः केन
सेवन इस जीवको नहीं हुआ, और सम्यक्त्व नहीं उत्पन्न हुआ सम्यक्त्व होवे तो परमात्माका
भी परिचय होवे ।।१४३।।
आगे शुद्धात्मज्ञानका साधक जो तपश्चरण उसके शत्रुरूप गृहवासको दोष देते हैं
गाथा१४४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, तू इसको [गृहवासं ] घर वास [मा जानीहि ] मत
जान, [एषः ] यह [दृष्कृतवासः ] पापका निवासस्थान है, [कृतांतेन ] यमराजने (कालने)
अज्ञानी जीवोंके बाँधनेके लिये यह [पाशःमंडितः ] अनेक फाँसोंसे मंडित [अविचलः ] बहुत
मजबूत बंदीखाना बनाया है, इसमें [निस्संदेहम् ] सन्देह नहीं है
भावार्थ :यहाँ घर शब्दसे मुख्यरूप स्त्री जानना, स्त्री ही घरका मूल है, स्त्री
बिना गृहवास नहीं कहलाता ऐसा ही दूसरे शास्त्रोंमें भी कहा है, कि घरको घर मत
जानो, स्त्री ही घर है, जिन पुरुषोंने स्त्रीका त्याग किया, उन्होंने घरका त्याग किया

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456 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-144
pratipakShabhUt mohanA bandhanathI draDh bAndhato hovAthI je avichaL chhe evo avichaL pAsh rachyo
chhe, emAn sandeh karavA yogya nathI.
vishuddhagnAn, vishuddha darshan jeno svabhAv chhe evA paramAtmapadArthanI bhAvanAthI
pratipakShabhUt kaShAy-indriyo vaDe man vyAkuL thAy chhe, mananI shuddhi vinA gRuhasthone tapodhananI
mAphak shuddhAtmabhAvanA karavAnun banI shakatun nathI. vaLI, kahyun paN chhe ke
‘‘कषायैरिन्द्रियैर्दुष्टैर्व्याकुलीक्रियते मनः यतः कर्तुं न शक्येत भावना गृहमेधिभिः ।।’’ (artha
duShTa kaShAy ane indriyothI man vyAkuL bane chhe, tethI gRuhastho AtmabhAvanA karI shakatA
nathI.) ।।144.
have, gharanun mamatva chhoDAvyA pachhI dehanA mamatvano tyAg darshAve chhe (dehanun mamatva chhoDAve
chhe.)
कृतान्तनाम्ना कर्मणा कथंभूतः अविचलु शुद्धात्मतत्त्वभावनाप्रतिपक्षभूतेन मोहबन्धनेना-
बद्धत्वादविचलः णिस्संदेहु संदेहो न कर्तव्य इति अयमत्र भावार्थः विशुद्धज्ञानदर्शन-
स्वभावपरमात्मपदार्थभावनाप्रतिपक्षभूतैः कषायेन्द्रियैः व्याकुलक्रियते मनः, मनःशुद्धयभावे
गृहस्थानां तपोधनवत् शुद्धात्मभावना कर्तुं नायातीति
तथा चोक्त म्‘‘कषायैरिन्द्रियै-
र्दुष्टैर्व्याकुलीक्रियते मनः यतः कर्तुं न शक्येत भावना गृहमेधिभिः ।।’’ ।।१४४।।
अथ गृहममत्वत्यागानन्तरं देहममत्वत्यागं दर्शयति
२७६) देहु वि जित्थु ण अप्पणउ तहिँ अप्पणउ किं अण्णु
पर-कारणि मण गुरुव तुहुँ सिव-संगमु अवगण्णु ।।१४५।।
यह घर मोहके बँधनसे अति दृढ़ बँधा हुआ है, इसमें संदेह नहीं है यहाँ तात्पर्य ऐसा
है, कि शुद्धात्मज्ञान दर्शन शुद्ध भावरूप जो परमात्मपदार्थ उसकी भावनासे विमुख जो
विषय कषाय हैं, उनसे यह मन व्याकुल होता है
इसलिये मनका शुद्धिके बिना
गृहस्थके यतिकी तरह शुद्धात्माका ध्यान नहीं होता इस कारण घर का त्याग करना
योग्य है, घरके बिना त्यागे मन शुद्ध नहीं होता ऐसी दूसरी जगह भी कहा है, कि
कषायोंसे और इन दुष्ट इन्द्रियोंसे मन व्याकुल होता है, इसलिये गृहस्थ लोग आत्म
भावना कर नहीं सकते ।।१४४।।
आगे घरकी ममता छुड़ाकर शरीरका ममत्व छुड़ाते हैं

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adhikAr-2 dohA-145 ]paramAtmaprakAsha [ 457
bhAvArthajyAn deh paN potAno nathI tyAn anya padArtho shun potAnA thAy?
em jANIne dehathI bahirbhUt strI, vastra, AbharaN, upakaraN Adi evA parigrahanA
nimitte tun moh na kar. he tapodhan! ‘shiv’ shabdathI vAchya evA shuddhAtmAnI bhAvanAno
tyAg na kar.
amUrta, vItarAgasvabhAvI nijashuddhAtmAnI sAthe vyavahArathI dUdh-pANInI jem ekamek
thaIne je A deh rahe chhe te paN jIvanun svarUp nathI, em jANIne bAhya padArthanun mamatva
chhoDIne ane shuddha AtmAnI anubhUtilakShaN vItarAg nirvikalpa samAdhimAn sthit thaIne
sarvatAtparyathI bhAvanA karavI joIe, e abhiprAy chhe. 145.
देहोऽपि यत्र नात्मीयः तत्रात्मीयं किमन्यत्
परकारणे मा मुह्य (?) त्वं शिवसंगमं अवगण्य ।।१४५।।
देहुवि इत्यादि देहु वि जित्थु ण अप्पणउ देहोऽपि यत्र नात्मीयः तहिं अप्पणउ
किं अण्णु तत्रात्मीयाः किमन्ये पदार्था भवन्ति, किं तु नैव एवं ज्ञात्वा पर-कारणि
परस्य देहस्य बहिर्भूतस्य स्त्रीवस्त्राभरणोपकरणादिपरिग्रहनिमित्तेन मण गुरुव तुहुं सिव-संगम
अवगण्णु हे तपोधन शिवशब्दवाच्यशुद्धात्मभावनात्यागं मा कार्षीरिति
तथाहि अमूर्तेन
वीतरागस्वभावेन निजशुद्धात्मना सह व्यवहारेण क्षीरनीरवदेकीभूत्वा तिष्ठति योऽसौ देहः
सोऽपि जीवस्वरूपं न भवति इति ज्ञात्वा बहिःपदार्थे ममत्वं त्यक्त्वा शुद्धात्मानुभूति-
लक्षणवीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च सर्वतात्पर्येण भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः
।।१४५।।
गाथा१४५
अन्वयार्थ :[यत्र ] जिस संसारमें [देहोऽपि ] शरीर भी [आत्मीयः न ] अपना नहीं
है, [तत्र ] उसमें [अन्यत् ] अन्य [आत्मीयं किं ] क्या अपना हो सकता है ? [त्वं ] इस कारण
तू [शिवसंगमं ] मोक्षका संगम [अवगण्य ] छोड़कर [परकारणे ] पुत्र, स्त्री, वस्त्र, आभूषण
आदि उपकरणोंमें [मा मुह्य ] ममत्व मत कर
भावार्थ :अमूर्त वीतराग भावरूप जो निज शुद्धात्मा उससे व्यवहारनयकर दूध-पानी
की तरह यह देह एकमेक हो रही है, ऐसी देह, जीवका स्वरूप नहीं है, तो पुत्र-कलत्रादि
धन
धान्यादि अपने किस तरह हो सकेंगे ? ऐसा जानकर बाह्य पदार्थोंमें ममता छोड़कर
शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप जो वीतराग निर्विकल्पसमाधि उसमें ठहरकर सब प्रकारसे
शुद्धोपयोगकी भावना करनी चाहिये
।।१४५।।

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458 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-146
have, pharI te ja arthane bIjA prakAre pragaT kare chhe
bhAvArthahe yogI! tun kevaL ek ‘shiv’ shabdathI vAchya, shuddha, buddha ja jeno ek
svabhAv chhe evA mAtra ek nijashuddhAtmAnI bhAvanAno sansarga kar, ke je svashuddhAtmAnA
sansargamAn akShay, anantasukh prApta thAy chhe, je kAraNathI-bAhya-chintAthI avyAbAdh
sukhAdi-
svarUp mokSha maLato nathI evI svasvabhAvathI anya chintA tun na kar, e tAtparya chhe. 146.
अथ तमेवार्थं पुनरपि प्रकारान्तरेण व्यक्तीकरोति
२७७) करि सिव-संगमु एक्कु पर जहिँ पाविज्जइ सुक्खु
जोइय अण्णु म चिंति तुहुँ जेण ण लब्भइ मुक्खु ।।१४६।।
कुरु शिवसंगमं एकं परं यत्र प्राप्यते सुखम्
योगिन् अन्यं मा चिन्तय त्वं येन न लभ्यते मोक्षः ।।१४६।।
करि इत्यादि करि कुरु कम् सिवसंगमु शिवशब्दवाच्यशुद्धबुद्धैकस्वभावनिज-
शुद्धात्मभावनासंसर्गं एक्कु पर तमेवैकं ज्ाहिं पाविज्जइ सुक्खु यत्र स्वशुद्धात्मसंसर्गे प्राप्यते
किम् अक्षयानन्तसुखम् जोइय अण्णु म चिंति तुहुं हे योगिन् स्वभावत्वादन्यचिन्तां मा
कार्षीस्त्वं जेण ण लब्भइ येन कारणेन बहिश्चिन्तया न लभ्यते कोऽसौ मुक्खु
अव्याबाधसुखादिलक्षणो मोक्ष इति तात्पर्यम् ।।१४६।।
आगे इसी अर्थको फि र भी दूसरी तरह प्रगट करते हैं
गाथा१४६
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी हंस, [त्वं ] तू [एकं शिवसंगमं ] एक निज
शुद्धात्माकी ही भावना [परं ] केवल [कुरु ] कर, [यत्र ] जिसमें कि [सुखम् प्राप्येत ]
अतीन्द्रिय सुख पावे, [अन्यं मा ] अन्य कुछ भी मत [चिंतय ] चिंतवन कर, [येन ] जिससे
कि [मोक्षः न लभ्यते ] मोक्ष न मिले
भावार्थ :हे जीव, तू शुद्ध अखंड स्वभाव निज शुद्धात्माका चिन्तवन कर, यदि तू
शिवसंग करेगा तो अतीन्द्रिय सुख पावेगा जो अनंत सुखको प्राप्त हुए वे केवल आत्मज्ञानसे
ही प्राप्त हुए, दूसरा कोई उपाय नहीं है इसलिये हे योगी, तू अन्य कुछ भी चिन्तवन मत
कर, परके चिंतवनसे अव्याबाध अनंत सुखरूप मोक्षको नहीं पावेगा इसलिये निजस्वरूपका
ही चिन्तवन कर ।।१४६।।

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adhikAr-2 dohA-147 ]paramAtmaprakAsha [ 459
have, bhedAbhed ratnatrayanI bhAvanAthI rahit manuShyabhav nakAmo chhe, em nakkI kare chhe
bhAvArthahAthInA sharIramAn dAnt, chamarIgAyanA sharIramAn vAL ityAdi sArapaNun
tiryanchanA sharIramAn jovAmAn Ave chhe, paN manuShyanA sharIramAn kaIpaN sArapaNun nathI, em
jANIne ghuNathI khAvAmAn AvelA nakAmA thayelA sAnThAno, vAvavAmAn bIj tarIke upayog
karI asArane sAr karavAmAn Ave chhe. tevI rIte manuShyajanmane asAr hovA chhatAn sArabhUt
karavAmAn Ave chhe. kevI rIte? jevI rIte ghuNabhakShit sheraDInA sAnThAno bIj tarIke upayog
अथ भेदाभेदरत्नत्रयभावनारहितं मनुष्यजन्म निस्सारमिति निश्चिनोति
२७८) बलि किउ माणुस-जम्मडा देक्खंतहँ पर सारु
जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ।।१४७।।
बलिः क्रियते मनुष्यजन्म पश्यतां परं सारम्
यदि अवष्टभ्यते ततः क्वथति अथ दह्यते तर्हि क्षारः ।।१४७।।
बलि किउ इत्यादि बलि किउ बलिः क्रियते मस्तकस्योपरितनभागेनावताऽनं
क्रियते किम् माणुस-जम्मडा मनुष्यजन्म किंविशिष्टम् देक्खंतहँ पर सारु बहिर्भागे
व्यवहारेण पश्यतामेव सारभूतम् कस्मात् जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ यद्यवष्टभ्यते भूमौ
निक्षिप्यते ततः कुत्सितरूपेण परिणमति अह डज्झइ तो छारु अथवा दह्यते तर्हि
आगे भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनासे रहित जीवका मनुष्यजन्म निष्फल है, ऐसा कहते
हैं
गाथा१४७
अन्वयार्थ :[मनुष्यजन्म ] इस मनुष्यजन्मको [बलिः क्रियते ] मस्तकके ऊ पर
वार डालो, जो कि [पश्यतां परं सारम् ] देखनेमें केवल सार दीखता है, [यदि अवष्टभ्यते ]
जो इस मनुष्य
देहको भूमि में गाड़ दिया जावे, [ततः ] तो [क्वथति ] सड़कर दुर्गन्धरूप
परिणमे, [अथ ] और जो [दह्यते ] जलाईये [तर्हि ] तो [क्षारः ] राख हो जाता है
भावार्थ :इस मनुष्यदेहको व्यवहारनयसे बाहरसे देखो तो सार मालूम होता है,
यदि विचार करो तो कुछ भी सार नहीं है तिर्यञ्चोंके शरीरमें तो कुछ सार भी दिखता है,
जैसे हाथीके शरीरमें दाँत सार है, सुरह गौके शरीर में बाल सार हैं इत्यादि परन्तु मनुष्य
देहमें सार नहीं है, घुनके खाये हुए गन्नेकी तरह मनुष्यदेहको असार जानकर परलोकका बोज

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460 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-147
karavAmAn AvatAn, ghaNI sheraDIno lAbh thAy chhe tevI rIte asAr sharIranA AdhArathI ek
(kevaL) vItarAgasahajAnandarUp svashuddhAtmasvabhAvanAn samyak shraddhAn, samyag gnAn ane
samyag anucharaNarUp nishchayaratnatrayanI bhAvanAnA baLathI ane te nishchayaratnatrayanA
sAdhak vyavahAraratnatrayanI bhAvanAnA baLathI svarga ane mokShanun phaL maLe chhe, e tAtparya
chhe. 147.
have, dehanun ashuchipaNun ane anityapaNun vagerenA pratipAdanarUpe chha dohAsUtrothI vyAkhyAn
kare chhe. te A pramANe
भम्म भवति तद्यथा हस्तिशरीरे दन्ताश्चमरीशरीरे केशा इत्यादि सारत्व तिर्यक्शरीरे
द्रश्यते, मनुष्यशरीरे किमपि सारत्वं नास्तीति ज्ञात्वा घुणभक्षितेक्षुदण्डवत्परलोकबीजं कृत्वा
निस्सारमपि सारं क्रियते कथमिति चेत् यथा घुणभक्षितेक्षुदण्डे बीजे कृते सति
विशिष्टेक्षूणां लाभो भवति तथा निःसारशरीराधारेण वीतरागसहजानन्दैकस्वशुद्धात्मस्वभाव-
सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनिश्चयरत्नत्रयभावनाबलेनतत्साधकव्यवहाररत्नत्रयभावनाबलेन च
स्वर्गापवर्गफलं गृह्यत इति तात्पर्यम्
।।१४७।।
अथ देहस्याशुचित्वानित्यत्वादिप्रतिपादनरूपेण व्याख्यानं करोति षट्कलेन तथाहि
२७९) उव्वलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सु-मिट्ठाहार
देहहँ सयल णिरत्थ गय जिमु दुज्जणि उवयार ।।१४८।।
करके सार करना चाहिये जैसे घुनोंका खाया हुआ ईख किसी कामका नहीं है, एक बीजके
कामका है, सो उसको बोकर असारसे सार किया जाता है, उसी प्रकार मनुष्यदेह किसी
कामका नहीं, परंतु परलोकका बोजकर असारको सार करना चाहिये इस देहसे परलोक
सुधारना ही श्रेष्ठ है जैसे घुनेसे खाये गये ईखको बोनेसे अनेक ईखोंका लाभ होता है, वैसे
ही इस असार शरीरके आधारसे वीतराग परमानंद शुद्धात्मस्वभावका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान
आचरणरूप निश्चयरत्नत्रयकी भावनाके बलसे मोक्ष प्राप्त किया जाता है, और निश्चयरत्नत्रयका
साधक जो व्यवहाररत्नत्रय उसकी भावनाके बलसे स्वर्ग मिलता है, तथा परम्परासे मोक्ष होता
है
यह मनुष्यशरीर परलोक सुधारनेके लिये होवे तभी सार है, नहीं तो सर्वथा असार
है ।।१४७।।
आगे देहको अशुचि, अनित्य आदि दिखानेका छह दोहोंमें व्याख्यान करते हैं

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adhikAr-2 dohA-148 ]paramAtmaprakAsha [ 461
bhAvArthajoke A sharIr khal (durjan) chhe to paN thoDAk koLiyA ApIne
(k kbhojan ApIne) asthir evA dehathI sthir mokShasukhanun grahaN karAy chhe. sAt
dhAtumay hovAthI ashuchimay chhe evA sharIrathI paN shuchibhUt shuddhAtmasvarUpanun grahaN thAy
chhe, nirguN hovA chhatAn sharIrathI paN kevaLagnAnAdi guNono samUh sAdhavAmAn Ave chhe. vaLI
(shrIrAmasinh dohApAhuD gAthA 19mAn) kahyun paN chhe
‘‘अथिरेण थिरा मलिणेण णिम्मला
णिगुणेण गुणसार काएण जा विढप्पइ सा किरिया किण्ण कायव्वा ।। (arthaasthir, malin
उद्वर्तय म्रक्षय चेष्टां कुरु देहि सुमृष्टाहारान्
देहस्य सकलं निरर्थ गतं यथा दुर्जने उपकाराः ।।१४८।।
उव्वलि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते उव्वलि उद्वर्तय कुरु चोप्पडि
तैलादिम्रक्षणं कुरु, चिट्ठ करि मण्डनरूपां चेष्टां कुरु, देहि सु-मिट्ठाहार देहि सुमृष्टाहारान्
कस्य देहहं देहस्य सयल णिरत्थ गय सकला अपि विशिष्टाहारादयो निरर्थका गताः
केन द्रष्टान्तेन जिमु दुज्जणि उवयार दुर्जने यथोपकारा इति तद्यथा यद्यप्ययं कायः
खलस्तथापि किमपि ग्रासादिकं दत्त्वा अस्थिरेणापि स्थिरं मोक्षसौख्यं गृह्यते सप्तधातु-
मयत्वेनाशुचिभूः तेनापि शुचिभूतं शुद्धात्मस्वरूपं गृह्यते निर्गुणेनापि केवलज्ञानादिगुणसमूहः
साध्यत इति भावार्थः
तथा चोक्त म्‘‘अथिरेण थिरा मलिणेण णिम्मला णिग्गुणेण
गाथा१४८
अन्वयार्थ :[देहस्य ] इस देहका [उद्वर्तय ] उबटना करो, [म्रक्षय ] तैलादिकका
मर्दन करो, [चेष्टां कुरु ] श्रृंगार आदि से अनेक प्रकार सजाओ, [सुमृष्टाहारान् ] अच्छेअच्छे
मिष्ट आहार [देहि ] दो, लेकिन [सकलं ] ये सब [निरर्थ गतं ] यत्न व्यर्थ हैं, [यथा ] जैसे
[दुर्जने ] दुर्जनोंका [उपकाराः ] उपकार करना वृथा है
भावार्थ :जैसे दुर्जन पर अनेक उपकार करो वे सब वृथा जाते हैं, दुर्जनसे कुछ
फायदा नहीं, उसी तरह शरीरके अनेक यत्न करो, इसको अनेक तरहसे पोषण करो, परंतु यह
अपना नहीं हो सकता
इसलिये यही सार है कि इसको अधिक पुष्ट नहीं करना कुछ थोड़ासा
ग्रासादि देकर स्थिर करके मोक्ष साधन करना; सात धातुमयी यह अशुचि शरीर है, इससे पवित्र
शुद्धात्मस्वरूपकी आराधना करना
इस महा निर्गुण शरीरसे केवलज्ञानादि गुणोंका समूह साधना
चाहिये यह शरीर भोगके लिये नहीं है, इससे योगका साधनकर अविनाशी पदकी सिद्धि
करनी ऐसा कहा भी है, कि इस क्षणभंगुर शरीरसे स्थिरपद मोक्षकी सिद्धि करनी चाहिये,
यह शरीर मलिन है, इससे निर्मल वीतरागकी सिद्धि करना, और यह शरीर ज्ञानादि गुणोंसे रहित

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462 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-149
ane nirguN sharIrathI jo sthir, nirmaL ane sArabhUt guNavALI kriyA vadhI shake chhe to
te kriyA shA mATe na karavI? (avashya karavI.) arthAt A vinAshI, malin ane nirguN
sharIrane sthir, nirmaL ane guNayukta AtmAnA dhyAnamAn lagADavun joIe. 148.
vaLI, have sharIrane ashuchi darshAvIne mamatva chhoDAve chhe
bhAvArthajevI rIte narakagRuh senkaDo chhidravALun jarjarit chhe tevI rIte sharIrarUpI ghar
paN navadvArarUpI chhidrovALun hovAthI shatajIrNa chhe (taddan jIrNa chhe) ane paramAtmA janma, jarA,
गुणसारं काएण जा विढप्पइ सा किरिया किण्ण कायव्वा ।।’’ ।।१४८।।
अथ
२८०) जेहउ जज्जरु णरय-घरु तेहउ जोइय काउ
णरइ णिरंतरु पूरियउ किम किज्जइ अणुराउ ।।१४९।।
यथा जर्जरं नरकगृहं तथा योगिन् कायः
नरके निरन्तरं पूरितं किं क्रियते अनुरागः ।।१४९।।
जेहउ इत्यादि जेहउ जज्जरु यथा जर्जरं शतजीर्णं णरय-घरु नरकगृहं तेहउ
जोइउ काउ तथा हे योगिन् कायः यतः किम् णरइ णिरंतरु पूरियउ नरके निरन्तरं
है, इसके निमित्तसे सारभूत ज्ञानादि गुण सिद्धि करने योग्य हैं इस शरीरसे तप संयमादिका
साधन होता है, और तप संयमादि क्रियासे सारभूत गुणोंकी सिद्धि होती है जिस क्रियासे ऐसे
गुण सिद्ध हों, वह क्रिया क्यों नहीं करनी, अवश्य करनी चाहिये ।।१४८।।
आगे शरीरको अशुचि दिखलाकर ममत्व छुड़ाते हैं
गाथा१४९
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [यथा ] जैसा [जर्जरं ] सैकड़ों छेदोंवाला
[नरकगृहं ] नरकघर है, [तथा ] वैसा यह [कायः ] शरीर [नरके ] मलमूत्रादिसे
[निरंतरं ] हमेशा [पूरितं ] भरा हुआ है ऐसे शरीरसे [अनुरागः ] प्रीति [किं क्रियते ] कैसे
की जावे ? किसी तरह भी यह प्रीतिके योग्य नहीं हैं
भावार्थ :जैसे नरकका घर अति जीर्ण जिसके सैकड़ों छिद्र हैं, वैसे यह कायरूपी
घर साक्षात् नरकका मन्दिर है, नव द्वारोंसे अशुचि वस्तु झरती है और आत्माराम जन्ममरणादि

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adhikAr-2 dohA-150 ]paramAtmaprakAsha [ 463
maraNAdirUp chhidronA doShathI rahit chhe. sharIr to maL-mUtrAdi narakathI bharelun chhe ane bhagavAn
shuddha AtmA bhAvakarma, dravyakarma ane nokarmanA maLathI rahit chhe.
ahIn, A bhAvArtha chhe ke A pramANe deh ane AtmAno bhed jANIne, dehanun mamatva
chhoDIne ane vItarAganirvikalpa-samAdhimAn sthit thaIne nirantar bhAvanA (AtmabhAvanA)
karavI joIe. 149.
have, pharI dehanI malinatA darshAve chhe
पूरितम् एवं ज्ञात्वा किम् किज्जइ अणुराउ कथं क्रियते अनुरागो न कथमपीति
तद्यथायथा नरकगृहं शतजीर्णं तथा कायगृहमपि नवद्वारछिद्रितत्वात् शतजीर्णं, परमात्मा
तु जन्मजरामरणादिच्छिद्रदोषरहितः कायस्तु गूथमूत्रादिनरकपूरितः, भगवान् शुद्धात्मा तु
भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्ममलरहित इति अयमत्र भावार्थः एवं देहात्मनो भेदं ज्ञात्वा
देहममत्वं त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च निरन्तरं भावना कर्तव्येति ।।१४९।।
अथ
२८१) दुक्खइँ पावइँ असुचियइँ ति-हुयणि सयलइँ लेवि
एयहिँ देहु विणिम्मियउ विहिणा वइरु मुणेवि ।।१५०।।
दुःखानि पापानि अशुचीनि त्रिभुवने सकलानि लात्वा
एतैः देहः विनिर्मितः विधिना वैरं मत्वा ।।१५०।।
छिद्र आदि दोष रहित है, भगवान् शुद्धात्मा भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्ममलसे रहित हैं, यह शरीर
मल
मूत्रादि नरकसे भरा हुआ है ऐसा शरीरका और जीवका भेद जानकर देहसे ममता छोड़के
वीतराग निर्विकल्प समाधिमें ठहरके निरन्तर भावना करनी चाहिये ।।१४९।।
आगे फि र भी देहकी मलिनता दिखलाते हैं
गाथा१५०
अन्वयार्थ :[त्रिभुवने ] तीन लोकमें [दुःखानि पापानि अशुचीनि ] जितने
दुःख है, पाप हैं, और अशुचि वस्तुयें हैं, [सकलानि ] उन सबको [लात्वा ] लेकर
[एतैः ] इन मिले हुओंसे [विधिना ] विधाताने [वैरं ] वैर [मत्वा ] मानकर [देहः ] शरीर
[निर्मितः ] बनाया है

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464 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-150
bhAvArthatraN lokamAn jeTalAn dukho chhe teTalAn dukhothI banel hovAthI A deh
dukharUp chhe ane paramAtmA to vyavahArathI dehamAn rahelo hovA chhatAn paN nishchayathI dehathI
bhinna hovAthI anAkuLatA jenun lakShaN chhe evA sukhasvabhAvavALo chhe. traN lokamAn jeTalAn
pApo chhe teTalAn pApothI banel hovAthI A deh pAparUp chhe, ane shuddha AtmA to
vyavahArathI dehamAn rahevA chhatAn paN nishchayathI pAparUp dehathI bhinna hovAthI atyant pavitra
chhe. traN lokamAn jeTalA ashuchi padArtho chhe teTalA ashuchi padArthothI banel hovAthI A deh
ashuchirUp chhe ane shuddha AtmA to vyavahArathI dehamAn rahelo hovA chhatAn paN nishchayathI
dehathI pRuthakbhUt (alag, bhinna, judo) hovAthI atyant nirmaL chhe.
ahIn, e pramANe dehanI sAthe shuddha AtmAno bhed jANIne nirantar (Atma) bhAvanA
karavI joIe, evun tAtparya chhe. 150.
दुक्खइं इत्यादि दुक्खइं दुःखानि पावइं पापानि असुचियइं अशुचिद्रव्याणि
ति-हुयणि सयलइं लेवि भुवनत्रयमध्ये समस्तानि गृहीत्वा एयहिं देहविणिम्मियउ एतैर्देहो
विनिर्मितः
केन कर्तृभूतेन विहिणा विधिशब्दवाच्येन कर्मणा कस्मादेवंभूतो देहः कृतः
वइरु मुणेवि वैरं मत्वेति तथाहि त्रिभुवनस्थदुःखैर्निर्मितत्वात् दुःखरूपोऽयं देहः,
परमात्मा तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन देहाद्भिन्नत्वादनाकुलत्वलक्षणसुखस्वभावः
त्रिभुवनस्थपापैर्निर्मितत्वात् पापरूपोऽयं देहः, शुद्धात्मा तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन
पापरूपदेहाद्भिन्नत्वादत्यन्तपवित्रः
त्रिभुवनस्थाशुचिद्रव्यैर्निर्मितत्वादशुचिरूपोऽयं देहः, शुद्धात्मा
तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन देहात्पृथग्भूतत्वादत्यन्तनिर्मल इति अत्रैवं देहेन सह
शुद्धात्मनो भेदं ज्ञात्वा निरन्तरं भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।।१५०।।
अथ
भावार्थ :तीन लोकमें जितने दुःख हैं, उनसे यह देह रचा गया है, इससे दुःखरूप
है, और आत्मद्रव्य व्यवहारनयकर देहमें स्थित है, तो भी निश्चयनयकर देहसे भिन्न
निराकुलस्वरूप सुखरूप है, तीन लोकमें जितने पाप हैं, उन पापोंसे यह शरीर बनाया गया
है, इसलिये यह देह पापरूप ही है, इससे पाप ही उत्पन्न होता है, और चिदानंद चिद्रूप जीव
पदार्थ व्यवहारनयसे देहमें स्थित है, तो भी देहसे भिन्न अत्यंत पवित्र है, तीन जगत्में जितने
अशुचि पदार्थ हैं, उनको इकट्ठेकर यह शरीर निर्माण किया है, इसलिये महा अशुचिरूप है,
और आत्मा व्यवहारनयकर देहमें विराजमान है, तो भी देहसे जुदा परम पवित्र है
इसप्रकार
देहका और जीवका अत्यंत भेद जानकर निरन्तर आत्माकी भावना करनी चाहिये ।।१५०।।
आगे फि र भी देहको अपवित्र दिखलाते हैं

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adhikAr-2 dohA-151 ]paramAtmaprakAsha [ 465
have, pharI dehane apavitra darshAve chhe
bhAvArthahe yogI! A deh to jugupsAyukta chhe. jugupsA rahit paramAtmAne
chhoDIne dehamAn ramaN karatAn tane lajjA kem AvatI nathI? tyAre hun shun karun? evA
prashnano pratyutar Ape chhe. he vishiShTa bhedagnAnI! vItarAg sadAnand jeno ek svabhAv
chhe tevA paramAtmAne ArtaraudrAdi samasta vikalpanA tyAg vaDe nirmaL karato thako tun
‘nishchayadharma’ shabdathI vAchya evA vItarAg chAritra dvArA (chAritrane karIne, chAritra vaDe
athavA chAritramAn) prIti kar. 151.
२८२) जोइय देहु घिणावणउ लज्जहि किं ण रमंतु
णाणिय धम्में रइ करहि अप्पा विमलु करंतु ।।१५१।।
योगिन् देहः घृणास्पदः लज्जसे किं न रममाणः
ज्ञानिन् धर्मेण रतिं कुरु आत्मानं विमलं कुर्वन् ।।१५१।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् देहु घिणावणउ देहो घृणया दुगुञ्छया सहितः
लज्जहि किं ण रमंतु दुगुच्छारहितं परमात्मानं मुक्त्वा देहं रममाणो लज्जां किं न करोषि तर्हि
किं करोमीति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति णाणिय हे विशिष्टभेदज्ञानिन् धम्में निश्चयधर्मशब्दवाच्येन
वीतरागचारित्रेण कृत्वा रइ करहि रतिं प्रीतिं कुरु किं कुर्वन् सन् अप्पा
वीतरागसदानन्दैकस्वभावपरमात्मानं विमलु करंतु आर्तरौद्रादिसमस्तविकल्पत्यागेन विमलं निर्मलं
कुर्वन्निति तात्पर्यम्
।।१५१।।
गाथा१५१
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [देहः ] यह शरीर [धृणास्पदः ] घिनावना है,
[रममाणः ] इस देहसे रमता हुआ तू [किं न लज्जसे ] क्यों नहीं शरमाता ? [ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी,
तू [आत्मानं ] आत्माको [विमलं कुर्वन् ] निर्मल करता हुआ [धर्मे ] धर्मसे [रतिं ] प्रीति
[कुरु ] कर
भावार्थ :हे जीव, तू सब विकल्प छोड़कर वीतरागचारित्ररूप निश्चयधर्ममें प्रीति
कर आर्त रौद्र आदि समस्त विकल्पोंको छोड़कर आत्माको निर्मल करता हुआ वीतराग
भावोंसे प्रीति कर ।।१५१।।
1 pAThAntaraदुगुच्छया = जुगुप्सया

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466 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-152
have, dehathI sneh chhoDAve chhe
bhAvArthahe yogI! shuchi dehavALA arthAt pavitra svarUpavALA, nitya-Anand
jeno ek svabhAv chhe evA shuddhAtmadravyathI vilakShaN dehane tun chhoD, kAraN ke deh samIchIn
nathI.
‘to hun shun karun?’ evo prashna karavAmAn AvatAn, pratyuttar Ape chhe. kevaLagnAnanI sAthe
avinAbhUt anantaguNamay evA gnAnathI rachAyel, pUrvokta lakShaNavALA AtmAne tun dekh.
अथ
२८३) जोइय देहु परिच्चयहि देहु ण भल्लउ होइ
देह-विभिण्णउ णाणमउ सो तुहुँ अप्पा जोइ ।।१५२।।
योगिन् देहं परित्यज देहो न भद्रः भवति
देहविभिन्नं ज्ञानमयं तं त्वं आत्मानं पश्य ।।१५२।।
जोइय इत्यादि जोइय हे योगिन् देहु परिच्चयहि शुचिदेहान्नित्यानन्दैकस्वभावात्
शुद्धात्मद्रव्याद्विलक्षणं देहं परित्यज कस्मात् देहु ण भल्लउ होइ देहो भद्रः समीचीनो न
भवति तर्हि किं करोमीति प्रश्ने कृते प्रत्युत्तरं ददाति देह-विभिण्णउ देहविभिन्नं णाणमउ
ज्ञानेन निर्वृत्तं ज्ञानमयं केवलज्ञानाविनाभूतानन्तगुणमयं सो तुहुं अप्पा जोइ तं
आगे देहके स्नेहसे छुड़ाते हैं
गाथा१५२
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, [देहं ] इस शरीरसे [परित्यज ] प्रीति छोड़,
क्योंकि [देहः ] यह देह [भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, इसलिये [देहविभिन्नं ] देहसे भिन्न
[ज्ञानमयं ] ज्ञानादि गुणमय [तं आत्मानं ] ऐसे आत्माको [त्वं ] तू [पश्य ] देख
भावार्थ :नित्यानंद अखंड स्वभाव जो शुद्धात्मा उससे जुदा और दुःखका मूल
तथा महान् अशुद्ध जो शरीर उससे भिन्न आत्माको पहचान, और कृष्ण, नील, कापोत
इन तीन अशुभ लेश्याओंको आदि लेकर सब विभावभावोंको त्यागकर, निजस्वरूपका
ध्यान कर
ऐसा कथन सुनकर शिष्यने पूछा, कि हे प्रभो, इन खोटी लेश्याओंका क्या
स्वरूप है ? तब श्रीगुरु कहते हैंकृष्णलेश्याका धारक वह है, जो अधिक क्रोधी होवे,
कभी बैर न छोड़े, उसका बैर पत्थरकी लकीरकी तरह हो, महा विषयी हो, परजीवोंकी