Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (English transliteration). Gatha: 153 (Adhikar 2),154 (Adhikar 2) Atmadhin Sukhama Preeti,155 (Adhikar 2),156 (Adhikar 2) Chitta Sthir Karavathi Aatmaswaroopani Prapti,157 (Adhikar 2),158 (Adhikar 2),159 (Adhikar 2),160 (Adhikar 2),161 (Adhikar 2) Nirvikalp Samadhinu Kathan,162 (Adhikar 2),163 (Adhikar 2),164 (Adhikar 2).

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adhikAr-2 dohA-152 ]paramAtmaprakAsha [ 467
‘‘चंडो ण मुयइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेयं तु
किण्हस्स ।।’’ (gommaTasAr jIvakAnD gAthA578)
(arthaje prachanD tIvra krodhI hoy, verane chhoDe nahi, jhaghaDo karavAnA svabhAvavALo
hoy, dayAdharmathI rahit hoy, duShTa hoy, gurujanAdine vash na hoye badhAn lakShaN
kRiShNaleshyAvALA jIvanAn chhe) e pramANe gAthAmAn kahel lakShaNavALI kRiShNaleshyA, dhanadhAnyAdinI
tIvra mUrchchhArUp ane viShayonI AkAnkShArUp nIlaleshyA, raNabhUmimAn maravA ichchhe ane koI
stuti kare to santoSh pAme vagere lakShaNovALI kApotaleshyA
e pramANe traN (ashubh)
leshyAthI mAnDIne samasta vibhAvanA tyAg vaDe dehathI bhinna AtmAne tun bhAv. 152.
have, pharI dehane dukhanun kAraN darshAve chhe
पूर्वोक्त लक्षणमात्मानं त्वं कर्ता पश्येति अयमत्र भावार्थः ‘‘चंडो ण मुयइ वेरं भंडणसीलो
य धम्मदयरहिओ दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स ।।’’ इतिगाथाकथितलक्षणा
कृष्णलेश्या, धनधान्यादितीव्रमूर्च्छाविषयाकांक्षादिरूपा नीललेश्या, रणे मरणं प्रार्थयति स्तूयमानः
संतोषं करोतीत्यादिलक्षणा कापोतलेश्या च, एवं लेश्यात्रयप्रभृतिसमस्तविभावत्यागेन
देहाद्भिन्नमात्मानं भावय इति
।।१५२।।
अथ
२८४) दुक्खहँ कारणु मुणिवि मणि देहु वि एहु चयंति
जित्थु ण पावहिँ परम-सुहु तित्थु कि संत वसंति ।।१५३।।
हँसी उड़ानेमें जिसके शंका न हो, अपनी हँसी होनेका जिसको भय न हो, जिसका
स्वभाव लज्जा रहित हो, दया
धर्मसे रहित हो, और अपनेसे बलवान्के वशमें हो,
गरीबको सतानेवाला हो, ऐसा कृष्णलेश्यावालेका लक्षण कहा नीललेश्यावालेके लक्षण
कहते हैं, सो सुनोजिसके धनधान्यादिककी अति ममता हो, और महा विषयाभिलाषी
हो, इन्द्रियोंके विषय सेवता हुआ तृप्त न हो कापोतलेश्याका धारक रणमें मरना चाहता
है, स्तुति करनेसे अति प्रसन्न होता है ये तीनों कुलेश्याके लक्षण कहे गये हैं, इनको
छोड़कर पवित्र भावोंसे देहसे जुदे जीवको जानकर अपने स्वरूपका ध्यान कर यही
कल्याणका कारण है ।।१५२।।
आगे फि र भी देहको दुःखका कारण दिखलाते हैं

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468 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-153
bhAvArthaA pratyakShagochar dehane paN vItarAg tAttvik AnandarUp shuddhAtma-
sukhathI vilakShaN narakAdinA dukhanun kAraN manamAn jANIne shuddha AtmAmAn sthit thaIne
satpuruSho dehanun mamatva chhoDe chhe, (kAraN ke) je dehamAn panchendriyonA viShayothI rahit
shuddhAtmAnubhUtisampanna param sukh pAmatA nathI te dehamAn satpuruSho shA mATe nivAs kare?
shuddhAtmasukhamAn santoSh chhoDIne te dehamAn shA mATe rati kare? 153.
दुःखस्य कारणं मत्वा मनसि देहमपि इमं त्यजन्ति
यत्र न प्राप्नुवन्ति परमसुखं तत्र किं सन्तः वसन्ति ।।१५३।।
दुक्खहं इत्यादि दुक्खहं कारणु वीतरागतात्त्विकानन्दरूपात् शुद्धात्मसुखाद्विलक्षणस्य
नारकादिदुःखस्य कारणं मुणिवि मत्वा क्व मणि मनसि कम् देहु वि देहमपि एहु इमं
प्रत्यक्षीभूतं चयंति देहममत्वं शुद्धात्मनि स्थित्वा त्यजन्ति जित्थु ण पावहिं यत्र देहे न प्राप्नुवन्ति
किम् परम-सुहु पञ्चेन्द्रियविषयातीतं शुद्धात्मानुभूतिसंपन्नं परमसुखं तित्थु कि संत वसंति तत्र
देहे सन्तः सत्पुरुषाः किं वसन्ति शुद्धात्मसुखसंतोषं मुक्त्वा तत्र किं रतिं कुर्वन्ति इति
भावार्थः
।।१५३।।
गाथा१५३
अन्वयार्थ :[दुःखस्य कारणं ] नरकादि दुःखका कारण [इमं देहमपि ] इस
देहको [मनसि ] मनमें [मत्वा ] जानकर ज्ञानीजीव [त्यजंति ] इसका ममत्व छोड़ देते हैं,
क्योंकि [यत्र ] जिस देहमें [परमसुखं ] उत्तम सुख [न प्राप्नुवंति ] नहीं पाते, [तत्र ] उसमें
[संतः ] सत्पुरुष [किं वसंति ] कैसे रह सकते हैं ?
भावार्थ :वीतराग परमानंदरूप जो आत्मसुख उससे विपरीत नरकादिकके
दुःख, उनका कारण यह शरीर, उसको बुरा समझकर ज्ञानी जीव देहकी ममता छोड़ देते
हैं, और शुद्धात्मस्वरूपका सेवन करते हैं, निजस्वरूपमें ठहरकर देहादि पदार्थोंमें प्रीति
छोड़ देते हैं
इस देहमें कभी सुख नहीं पाते, सदा आधिव्याधिसे पीड़ित ही रहते हैं
पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित जो शुद्धात्मानुभूतिरूप परमसुख वह देहके ममत्व करनेसे कभी
नहीं मिल सकता
महा दुःखके कारण इस शरीरमें सत्पुरुष कभी नहीं रह सकते देहसे
उदास होके संसारकी आशा छोड़ सुखका निवास जो सिद्धपद उसको प्राप्त होते हैं और
जो आत्मभावनाको छोड़कर संतोषसे रहित होके देहादिकमें राग करते हैं, वे अनंत भव
धारण करते हैं, संसारमें भटकते फि रते हैं ।।१५३।।

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adhikAr-2 dohA-154 ]paramAtmaprakAsha [ 469
have, tun AtmAdhIn (svAdhIn) sukhamAn rati (prIti) kar, em darshAve chhe
bhAvArthaanya dravyothI nirapekSha hovAthI AtmAdhIn chhe evun je shuddhAtmAnA
samvedanathI utpanna sukh tenAthI jatenA anubhavathI jasantoSh kar. he vatsa-mitra! parAdhIn
-indriyAdhIn-sukhanA chintavanArane hRudayano antardAh maTato nathI.
ahIn, adhyAtmanI rati (prIti) svAdhIn chhe ane vichchhed tathA vighnonA samUhathI rahit
chhe; ane bhogonI prIti parAdhIn chhe tathA jevI rIte indhanathI agni shAnt thato nathI, hajAro
अथात्मायत्तसुखे रतिं कुर्विति दर्शयति
२८५) अप्पायत्तउ जं जि सुहु तेण जि करि संतोसु
पर सुहु वढ चिंतंताहँ हियइ ण फि ट्टइ सोसु ।।१५४।।
आत्मायत्तं यदेव सुखं तेनैव कुरु संतोषम्
परं सुखं वत्स चिन्तयतां हृदये न नश्यति शोषः ।।१५४।।
अप्पायत्तउ इत्यादि अप्पायत्तउ अन्यद्रव्यनिरपेक्षत्वेनात्माधीनं जं जि सुहु यदेव
शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नं सुखं तेण जि करि संतोसु तेनैव तदनुभवेनैव संतोषं कुरु पर
सुहु वढ चिंतंताहं इन्द्रियाधीनं परसुखं चिन्तयतां वत्स मित्र हियइ ण फि ट्टइ सोस
हृदये न नश्यति शोषोऽन्तर्दाह इति
अत्राध्यात्मरतिः स्वाधीना विच्छेदविघ्नौघरहिता च,
भोगरतिस्तु पराधीना वह्नेरिन्धनैरिव समुद्रस्य नदीसहस्रैरिवातृप्तिकरा च एवं ज्ञात्वा
आगे यह उपदेश करते हैं, कि तू आत्मसुखमें प्रीति कर
गाथा१५४
अन्वयार्थ :[वत्स ] हे शिष्य, [यदेव जो आत्मायत्तं सुखं ] परद्रव्यसे रहित
आत्माधीन सुख है, [तेनैव ] उसीमें [संतोषम् ] संतोष [कुरु ] कर, [परं सुखं ] इन्द्रियाधीन
सुखको [चिंतयतां ] चिन्तवन करनेवालोंके [हृदये ] चित्तका [शोषः ] दाह [न नश्यति ] नहीं
मिटता
भावार्थ :आत्माधीन सुख आत्माके जाननेसे उत्पन्न होता है, इसलिये तू आत्माके
अनुभवसे संतोष कर, भोगोंकी वाँछा करनेसे चित्त शान्त नहीं होता जो अध्यात्मकी प्रीति
है, वह स्वाधीनता है, इसमें कोई विघ्न नहीं है, और भोगोंका अनुराग वह पराधीनता है भोगोंको
भोगते कभी तृप्ति नहीं होती जैसे अग्नि ईंधनसे तृप्त नहीं होती, और सैकड़ों नदियोंसे समुद्र

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470 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-154
nadIothI samudra tRupta thato nathIe, atRuptikar chhe em jANIne bhogonA sukhane chhoDIne ane
‘‘एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होदि णिच्चमेदम्हि एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सुक्खं ।।’’ (shrI
samayasAr gAthA 206). (arthahe bhavya prANI! tun AtmAmAn (gnAnamAn) nitya rat arthAt
prItivALo thA, AmAn nitya santuShTa thA ane AnAthI tRupta thA; (Am karavAthI) tane uttam sukh
thashe.) e pramANe gAthAthI kahel lakShaNavALA adhyAtmasukhamAn sthit thaIne bhAvanA (AtmabhAvanA)
karavI, evun tAtparya chhe. vaLI kahyun paN chhe ke
‘‘तिण क ट्ठेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं
ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदुं कामभोगेहिं ।।’’ (arthajevI rIte tRuN, kAShTha Adi indhanathI agni
shAnt thato nathI, hajAro nadIonA pANIthI lavaNasamudra chhalakAto nathI tevI rIte A jIv
kAmabhogothI tRupta thaI shakato nathI).
adhyAtmashabdanI vyutpatti karavAmAn Ave chhe‘‘mithyAtva, viShay, kaShAyAdi bAhya
padArthonA nirAlambapaNe (Alamban vinA) AtmAmAn anuShThAn (karavun, Takavun, pravartavun) te adhyAtma
chhe. 154.
have, gnAn AtmAno svabhAv chhe, em darshAve chhe
भोगसुखं त्यक्त्वा ‘‘एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होदि णिच्चमेदम्हि एदेण होहि तित्तो
होहदि तुह उत्तमं सुक्खं ।।’’ इति गाथाकथितलक्षणे अध्यात्मसुखे स्थित्वा च भावना
कर्तव्येति तात्पर्यम् तथा चोक्त म्‘‘तिणकट्ठेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं
ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदुं कामभोगेहिं ।।’’ अध्यात्मशब्दस्य व्युत्पत्तिः क्रियते
मिथ्यात्वविषयकषायादिबहिर्द्रव्ये निरालम्बनत्वेनात्मन्यनुष्ठानमध्यात्मम् ।।१५४।।
अथात्मनो ज्ञानस्वभावं दर्शयति
तृप्त नहीं होता है ऐसा ही समयसारमें कहा है, कि हंस (जीव) तू इस आत्मस्वरूपमें ही
सदा लीन हो, और सदा इसीमें संतुष्ट हो इसीसे तू तृप्त होगा और इसीसे ही तुझे उत्तम सुखकी
प्राप्ति होगी इस कथनसे अध्यात्मसुखमें ठहरकर निजस्वरूपकी भावना करनी चाहिये, और
कामभोगोंसे कभी तृप्ति नहीं हो सकती ऐसा कहा भी है, कि जैसे तृण, काठ आदि ईंधनसे
अग्नि तृप्त नही होती और हजारों नदियोंसे लवणसमुद्र तृप्त नहीं होता, उसी तरह यह जीव काम
भोगोंसे तृप्त नहीं होता
इसलिये विषयसुखोंको छोड़कर अध्यात्मसुखका सेवन करना
चाहिये अध्यात्मशब्दका शब्दार्थ करते हैंमिथ्यात्व विषय कषाय आदि बाह्य पदार्थोंका
अवलम्बन (सहारा) छोड़ना और आत्मामें तल्लीन होना वह अध्यात्म है ।।१५४।।
आगे आत्माका ज्ञानस्वभाव दिखलाते हैं

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adhikAr-2 dohA-155 ]paramAtmaprakAsha [ 471
bhAvArthavItarAg svasamvedanarUp gnAn sivAy svashuddhAtmAno gnAnathI bhinna svabhAv
nathI. AtmAno A shuddhAtmagnAn svabhAv jANIne he yogI! paramAn-AtmAthI vilakShaN par evAn
dehamAn, rAgAdi na kar.
ahIn, AtmAnun shuddhAtmagnAnasvarUp jANIne ane rAgAdino tyAg karIne nirantar bhAvanA
(AtmabhAvanA) karavI joIe, evo abhiprAy chhe. 155.
have, nij AtmAnI prApti mATe chittane sthir karavAno param upadesh pAnch gAthAothI
darshAve chhe
२८६) अप्पहँ णाणु परिच्चयवि अण्णु ण अत्थि सहाउ
इउ जाणेविणु जोइयहु परहँ म बंधउ राउ ।।१५५।।
आत्मनः ज्ञानं परित्यज्य अन्यो न अस्ति स्वभावः
इदं ज्ञात्वा योगिन् परस्मिन् मा बधान रागम् ।।१५५।।
अप्पहं इत्यादि अप्पहं शुद्धात्मनः णाणु परिच्चयवि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं त्यक्त्वा
अण्णु ण अत्थि सहाउ अन्यो ज्ञानाद्विभिन्नः स्वभावो नास्ति इउ जाणेविणु इदमात्मनः
शुद्धात्मज्ञानं स्वभावं ज्ञात्वा
जोइयहु भो योगिन् परहं म बंधउ राउ परस्मिन् शुद्धात्मनो
विलक्षणे देहे रागादिकं मा कुरु तस्मात्
अत्रात्मनः शुद्धात्मज्ञानस्वरूपं ज्ञात्वा रागादिकं
त्यक्त्वा च निरन्तरं भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ।।१५५।।
अथ स्वात्मोपलम्भनिमित्तं चित्तस्थिरीकरणरूपेण परमोपदेशं पञ्चकलेन दर्शयति
गाथा१५५
अन्वयार्थ :[आत्मनः ] आत्माका निजस्वभाव [ज्ञानं परित्यज्य ] वीतराग
स्वसंवेदनज्ञानके सिवाय [अन्यः स्वभावः ] दूसरा स्वभाव [न अस्ति ] नहीं है, आत्मा
केवलज्ञानस्वभाव है, [इदं ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर [योगिन् ] हे योगी, [परस्मिन् ] परवस्तुसे
[रागम् ] प्रीति [मा बधान ] मत बाँध
भावार्थ :पर जो शुद्धात्मासे भिन्न देहादिक उनमें राग मत कर, आत्माका
ज्ञानस्वरूप जानकर रागादिक छोड़के निरंतर आत्माकी भावना करनी चाहिये ।।१५५।।
आगे आत्माकी प्राप्तिके लिय चित्तको स्थिर करता, ऐसा परम उपदेश श्रीगुरु दिखलाते
हैं
1. pAThAntaraशुद्धात्मनः = स्वशुद्धात्मनः

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472 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-156
bhAvArthagnAnAvaraNAdi ATh karmarUpI jaLachar jIvothI vyApta (bharel)
sansArasAgaramAn, nirviShay ane niShkaShAyarUp (viShayakaShAyarahit) shuddha AtmatattvathI pratipakShabhUt
viShayakaShAyarUp mahAvAt vaDe je bhavyavar punDarikanun manarUpI prachur jaL kShobh pAmatun nathI, tenun
anAdikALarUp mahApAtALamAn paDelun AtmarUpI ratnavisheSh rAgAdi maLanA tyAg vaDe shIghra
nirmaL thAy chhe. he vatsa! mAtra nirmaL thAy chhe eTalun ja nahi paN, shuddhAtmAne param
kahevAmAn Ave chhe te paramanI kaLA-anubhUti te param kaLA, te paramakaLArUpI draShTi vaDe ja je
२८७) विसय-कसायहिँ मण-सलिलु णवि डहुलिज्जइ जासु
अप्पा णिम्मलु होइ लहु वढ पच्चक्खु वि तासु ।।१५६।।
विषयकषायैः मनःसलिलं नैव क्षुभ्यति यस्य
आत्मा निर्मलो भवति लघु वत्स प्रत्यक्षोऽपि तस्य ।।१५६।।
विसय इत्यादि विसय-कसायहिं मण-सलिलु ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मजलचराकीर्णसंसार-
सागरे निर्विषयकषायरूपात् शुद्धात्मतत्त्वात् प्रतिपक्षभूतैर्विषयकषायमहावातैर्मनः प्रचुरसलिलं
णवि डहुलिज्जइ नैव क्षुभ्यति जासु यस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य अप्पा णिम्मलु होइ लह
आत्मा रत्नविशेषोऽनादिकालरूपमहापाताले पतितः सन् रागादिमलपरिहारेण लघु शीघ्रं
निर्मलो भवति
वढ वत्स न केवलं निर्मलो भवति पच्चक्खु वि शुद्धात्मा परम
इत्युच्यते तस्य परमस्य कला अनुभूतिः परमकला एव द्रष्टिः परमकलाद्रष्टिः तया
गाथा१५६
अन्वयार्थ :[यस्य ] जिसका [मनः सलिलं ] मनरूपी जल [विषयकषायैः ]
विषयकषायरूप प्रचंड पवनसे [नैव क्षुभ्यते ] नहीं चलायमान होता है, [तस्य ] उसी भव्य
जीवकी [आत्मा ] आत्मा [वत्स ] हे बच्चे, [निर्मलो भवति ] निर्मल होती है, और [लघु ]
शीघ्र ही [प्रत्यक्षोऽपि ] प्रत्यक्ष हो जाती है
भावार्थ :ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मरूपी जलचर मगरमच्छादि जलके जीव उनसे
भरा जो संसारसागर उसमें विषयकषायरूप प्रचंड पवन जो कि शुद्धात्मतत्त्वसे सदा पराङ्मुख
हैं, उसी प्रचंड पवनसे जिसका चित्त चलायमान नहीं हुआ, उसीका आत्मा निर्मल होता है
आत्मा रत्नके समान है, अनादिकालका अज्ञानरूपी पातालमें पड़ा है, सो रागादि मलके
छोड़नेसे शीघ्र ही निर्मल हो जाता है, हे बच्चे, आत्मा उन भव्य जीवोंका निर्मल होता है, और
प्रत्यक्ष उनको आत्माका दर्शन होता है
परमकला जो आत्माकी अनुभूति वही हुई निश्चयदृष्टि

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adhikAr-2 dohA-157 ]paramAtmaprakAsha [ 473
परमकलाद्रष्टया यावदवलोकनं सूक्ष्मनिरीक्षणं तेन प्रत्यक्षोऽपि स्वसंवेदनग्राह्योऽपि भवति
कस्य तासु यस्य पूर्वोक्त प्रकारेण निर्मलं मनस्तस्येति भावार्थः ।।१५६।।
अथ
२८८) अप्पा परहँ ण मेलविउ मणु मारिवि सहस त्ति
सो वढ जाएँ किं करइ जासु ण एही सत्ति ।।१५७।।
आत्मा परस्य न मेलितः मनो मारयित्वा सहसेति
स वत्स योगेन किं करोति यस्य न ईद्रशी शक्ति : ।।१५७।।
अप्पा इत्यादि अप्पा अयं प्रत्यक्षीभूतः सविकल्प आत्मा परहं ख्यातिपूजा-
लाभप्रभृतिसमस्तमनोरथरूपविकल्पजालरहितस्य विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्य परमात्मनः ण मेलविउ
उससे आत्मस्वरूपका अवलोकन होता है आत्मा स्वसंवेदनज्ञान करके ही ग्रहण करने योग्य
है जिसका मन विषयसे चंचल न हो, उसीको आत्माका दर्शन होता है ।।१५६।।
आगे यह कहते हैं, कि जिसने शीघ्र ही मनको वशकर आत्माको परमात्मासे नहीं
मिलाया, जिसमें ऐसी शक्ति नहीं है, वह योगसे क्या कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर
सकता
गाथा१५७
अन्वयार्थ :[सहसा मनः मारयित्वा ] जिसने शीघ्र ही मनको वशमें करके
[आत्मा ] यह आत्मा [परस्य न मेलितः ] परमात्मामें नहीं मिलाया, [वत्स ] हे शिष्य,
[यस्य ] जिसकी [ईदृशी ] ऐसी [शक्तिः ] शक्ति [न ] नहीं है, [सः ] वह [योगेन ] योगसे
[किं करोति ] क्या कर सकता है ?
।।
भावार्थ :यह प्रत्यक्षरूप संसारी जीव विकल्प सहित है दशा जिसकी, उसको
समस्त विकल्पजाल रहित निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्मासे नहीं मिलाया मिथ्यात्व
avalokan-sUkShma nirIkShaN tenA vaDe pratyakSha paNsvasamvedanagrAhya paNthAy chhe. kone? pUrvokta
prakAre jenun man nirmaL chhe tene, evo bhAvArtha chhe. 156.
vaLI, (have kahe chhe ke jeNe manane shIghra ja vash karIne AtmAne paramAtmAnI sAthe
nathI joDyo, jemAn evI shakti nathI te yogathI shun karI shake?)
bhAvArthajeNe mithyAtva, viShay, kaShAyAdi vikalpa samUhamAn pariNamelA manane
vItarAg nirvikalpa samAdhirUp shastrathI sahasA haNIne, A pratyakSharUp savikalpa AtmAne, khyAti,

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474 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-158
न योजितः किं कृत्वा मणु मारिवि मिथ्यात्वविषयकषायादिविकल्पसमूहपरिणतं मनो
वीतरागनिर्विकल्पसमाधिशस्त्रेण मारयित्वा सहस त्ति झटिति सो वढ जोएं किं करइ स पुरुषः
वत्स योगेन किं करोति
स कः जासु ण एही सत्ति यस्येद्रशी मनोमारणशक्ति र्नास्तीति
तात्पर्यम् ।।१५७।।
अथ
२८९) अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु जे झायहिँ झाणु
वढ अण्णाण-वियंभियहँ कउ तहँ केवल-णाणु ।।१५८।।
आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यद् ये ध्यायन्ति ध्यानम्
वत्स अज्ञानविजृम्भितानां कुतः तेषां केवलज्ञानम् ।।१५८।।
विषय कषायादि विकल्पोंके समूहकर परिणत हुआ जो मन उसको वीतराग निर्विकल्प
समाधिरूप शस्त्रसे शीघ्र ही मारकर आत्माको परमात्मासे नहीं मिलाया, वह योगी योगसे क्या
कर सकता है ? कुछ भी नहीं कर सकता
जिसमें मन मारनेकी शक्ति नहीं है, वह योगी
कैसा ? योगी तो उसे कहते हैं, कि जो बड़ाई पूजा (अपनी महिमा) और लाभ आदि सब
मनोरथरूप विकल्प
जालोंसे रहित निर्मल ज्ञान दर्शनमयी परमात्माको देखे, जाने, अनुभव करे
ऐसा मनके मारे बिना नहीं हो सकता, यह निश्चय जानना ।।१५७।।
आगे ज्ञानमयी आत्माको छोड़कर जो अन्य पदार्थका ध्यान करते हैं, वे अज्ञानी हैं,
उनको केवलज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है ? ऐसा निरूपण करते हैं
गाथा१५८
अन्वयार्थ :[ज्ञानमयं ] जो महा निर्मल केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप [आत्मानं ]
आत्मद्रव्यको [मुक्त्वा ] छोड़कर [अन्यद् ] जड़ पदार्थ परद्रव्य उनका [ये ध्यानम् ध्यायंति ]
ध्यान लगाते हैं, [वत्स ] हे वत्स, वे अज्ञानी हैं, [तेषां अज्ञान विजृंभितानां ] उन शुद्धात्माके
ज्ञानसे विमुख, कुमति, कुश्रुत, कुअवधिरूप अज्ञानसे परिणत हुए जीवोंको [केवलज्ञानम्
pUjA, lAbh Adi samasta manoratharUp vikalpajALathI rahit, vishuddhagnAn, vishuddhadarshan jeno
svabhAv chhe evA paramAtmAmAn nathI joDyo te puruSh
ke jene manane mAravAnI AvI shakti nathI
te puruShhe vatsa! yogathI shun karashe? .157.
vaLI (have gnAnamay AtmAne chhoDIne jeo anya padArthanun dhyAn kare chhe teo agnAnI
chhe, temane kevaLagnAn kevI rIte utpanna thAy? em nirUpaN kare chhe)

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adhikAr-2 dohA-158 ]paramAtmaprakAsha [ 475
अप्पा इत्यादि अप्पा स्वशुद्धात्मानं मेल्लिवि मुक्त्वा कथंभूतमात्मानम् णाणमउ
सकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणनिर्वृत्तं अण्णु अन्यद्बहिर्द्रव्यालम्बनं े ये केचन झायहिं
ध्यायन्ति
किम् झाणु ध्यानं वढ वत्स मित्र अण्णाण-वियंभियहं शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणा-
ज्ञानविजृम्भितानां परिणतानां कउ तहं केवल-णाणु कथं तेषां केवलज्ञानं किंतु नैवेति अत्र
यद्यपि प्राथमिकानां सविकल्पावस्थायां चित्तस्थितिकरणार्थं विषयकषायरूपदुर्ध्यानवञ्चनार्थं च
जिनप्रतिमाक्षरादिकं ध्येयं भवतीति तथापि निश्चयध्यानकाले स्वशुद्धात्मैव ध्येय इति
भावार्थः
।।१५८।।
अथ
२९०) सुण्णउँ पउँ झायंताहँ वलि वलि जोइयडाहँ
समरसि-भाउ परेण सहु पुण्णु वि पाउ ण जाहँ ।।१५९।।
कुतः ] केवलज्ञानकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? कभी नहीं हो सकती
भावार्थ :यद्यपि विकल्प सहित अवस्थामें शुभोपयोगियोंको चित्तकी स्थिरताके
लिये और विषय कषायरूप खोटे ध्यानके रोकनेके लिये जिनप्रतिमा तथा णमोकारमंत्रके अक्षर
ध्यावने योग्य हैं, तो भी निश्चय ध्यानके समय शुद्ध आत्मा ही ध्यावने योग्य है, अन्य
नहीं
।।१५८।।
आगे शुभाशुभ विकल्पसे रहित जो निर्विकल्प (शून्य) ध्यान उसको जो ध्याते हैं, उन
योगियोंको मैं बलिहारी करता हूँ, ऐसा कहते हैं
bhAvArthaje koI sakaL vimaL kevaLagnAnAdi anantaguNathI rachAyel svashuddhAtmAne
chhoDIne bahirdravyanA AlambanarUp anya dhyAnane dhyAve chhe temaneshuddhAtmAnI anubhUtithI vilakShaN
agnAnamAn pariNat temanehe mitra! kevaLagnAn kaI rIte thAy? na ja thAy.
ahIn, joke prAthamikone savikalpa avasthAmAn chittanI sthiratA karavA mATe ane
viShayakaShAyarUp durdhyAnanA vanchanArthe (chhoDavA mATe) jinapratimA tathA NamokAramantranA akSharAdinun
dhyAn karavA yogya chhe topaN nishchayadhyAnanA kALe svashuddhAtmA ja dhyAvavA yogya chhe evo bhAvArtha
chhe. 158.
vaLI (have shubhAshubh vikalpathI shUnya (rahit, khAlI) je nirvikalpa dhyAn, tene je dhyAve
chhe te yogIonI hun balihArI karun chhun. em kahe chhe)

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476 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-159
शून्यं पदं ध्यायतां पुनः पुनः (?) योगिनाम्
समरसीभावं परेण सह पुण्यमपि पापं न येषाम् ।।१५९।।
सुण्णउं पउं इत्यादि सुण्णउं शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैः शून्यं पउं वीतराग-
परमानन्दैकसुखामृतरसास्वादरूपा स्वसंवित्तिमयी या सा परमकला तया भरितावस्थापदं
निजशुद्धात्मस्वरूपं
झायंताहं वीतरागत्रिगुप्तिसमाधिबलेन ध्यायतां बलि बलि जोइयडाह
श्रीयोगीन्द्रदेवाः स्वकीयाभ्यन्तरगुणानुरागं प्रकटयन्ति, बलिं क्रियेऽहमिति परमयोगिनां प्रशंसां
कुर्वन्ति
येषां किम् समरसि-भाउ वीतरागपरमाह्लादसुखेन परमसमरसीभावम् केन सह
गाथा१५९
अन्वयार्थ :[शून्यं पदं ध्यायतां ] विकल्प रहित ब्रह्मपदको ध्यावनेवाले
[योगिनाम् ] योगियोंकी मैं [बलिं बलिं ] बार बार मस्तक नमाकर पूजा करता हूँ, [येषाम् ]
जिन योगियोंके [परेण सह ] अन्य पदार्थोंके साथ [समरसीभावं ] समरसीभाव है, और
[पुण्यम् पापं अपि न ] जिनके पुण्य और पाप दोनों ही उपादेय नहीं हैं
भावार्थ :शुभअशुभ मन, वचन, कायके व्यापार रहित जो वीतराग परमआनंदमयी
सुखामृतरसका आस्वाद वही उसका स्वरूप है, ऐसी आत्मज्ञानमयी परमकलाकर भरपूर जो
ब्रह्मपदशून्यपदनिज शुद्धात्मस्वरूप उसको ध्यानी राग रहित तीन गुप्तिरूप समाधिके बलसे
ध्यावते हैं, उन ध्यानी योगियोंकी मैं बार बार बलिहारी करता हूँ, ऐसे श्रीयोगींद्रदेव अपना
अन्तरंगका धर्मानुराग प्रगट करते हैं, और परम योगीश्वरोंके परम स्वसंवेदनज्ञान सहित महा
समरसीभाव है
समरसीभावका लक्षण ऐसा है, कि जिनके इंद्र और कीट दोनों समान,
चिंतामणिरत्न और कंकड़ दोनों समान हों अथवा ज्ञानादि गुण और गुणी निज शुद्धात्म द्रव्य
इन दोनोंका एकीभावरूप परिणमन वह समरसीभाव है, उसकर सहित हैं, जिनके पुण्य-पाप दोनों
(samarasIbhAvanun lakShaN A chhe ke gnAnAdiguN ane guNI (nijashuddhAtmadravya) e bannenun
ekIbhAvarUp pariNaman te samarasIbhAv chhe.)
bhAvArthashubhAshubh manavachanakAyanA vyApArathI shUnya ane ek (kevaL) vItarAg
paramAnandarUp sukhAmRutarasanA AsvAdarUp svasamvedanamay je paramakaLA tenAthI paripUrNa
nijashuddhAtma svarUpanun vItarAg traN guptithI yukta samAdhinA baLathI dhyAn karanArAo pratye
shrI yogIndradev potAno abhyantar (antarano) guNAnurAg pragaT kare chhe. te param yogIo
par hun shrI yogIndradev
pharI pharI balihArI karun chhunpharI pharI vArI jAun chhun, em kahIne
teo te paramayogIonI prashansA kare chhe ke je paramayogIone svasamvedyamAn paramAtmAnI sAthe

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adhikAr-2 dohA-160 ]paramAtmaprakAsha [ 477
परेण सहु स्वसंवेद्यमानपरमात्मना सह पुनरपि किं येषाम् पुण्णु वि पाउ ण जाहं शुद्धबुद्धैक-
स्वभावपरमात्मनो विलक्षणं पुण्यपापद्वयमिति न येषामित्यभिप्रायः ।।१५९।।
अथ
२९१) उव्वस वसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु
बलि किज्जउँ तसु जोइयहिँ जासु ण पाउ ण पुण्णु ।।१६०।।
उद्वसान् वसितान् यः करोति वसितान् करोति यः शून्यान्
बलिं कुर्वेऽहं तस्य योगिनः यस्य न पापं न पुण्यम् ।।१६०।।
उव्वस इत्यादि उव्वस उद्वसान् शून्यान् कान् वीतरागतात्त्विकचिदानन्दोच्छलन-
निर्भरानन्दशुद्धात्मानुभूतिपरिणामान् परमानन्दनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानबलेनेदानीं विशिष्टज्ञानकाले
ही नहीं हैं ये दोनों शुद्ध, बुद्ध चैतन्य स्वभाव परमात्मासे भिन्न हैं, सो जिन मुनियोंने दोनोंको
हेय समझ लिया है, परमध्यानमें आरूढ़ हैं, उनकी मैं बार बार बलिहारी जाता हूँ ।।१५९।।
आगे फि र भी योगीश्वरोंकी प्रशंसा करते हैं
गाथा१६०
अन्वयार्थ :[यः ] जो [उद्धसान् ] ऊ जड़ हैं, अर्थात् पहले कभी नहीं हुए ऐसे
शुद्धोपयोगरूप परिणामोंका [वसितान् ] स्वसंवेदनज्ञानके बलसे बसाता है, अर्थात् अपने
हृदयमें स्थापन करता है, और [यः ] जो [वसितान् ] पहलेके बसे हुए मिथ्यात्वादि परिणाम
हैं, उनको [शून्यान् ] ऊ जड़ करता है, उनको निकाल देता है, [तस्य योगिनः ] उस योगीकी
[अहं ] मैं [बलिं ] पूजा [कुर्वे ] करता हूँ, [यस्य ] जिसके [न पापं न पुण्यम् ] न तो पाप
है और न पुण्य है
भावार्थ :जो प्रगटरूप नहीं बसते हैं, अनादिकालके वीतराग चिदानंदस्वरूप
शुद्धात्मानुभूतिरूप शुद्धोपयोग परिणाम उनको अब निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानके बलसे बसाता
vItarAg param AhlAdasvarUp sukhathI paramasamarasIbhAv chhe ane jemane shuddha, buddha ja jeno
ek svabhAv chhe. evA paramAtmAthI vilakShaN puNya-pAp banne nathI. 159.
have, pharI yogIshvaronI prashansA kare chhe
bhAvArthaje shUnya (pUrve nahi vaselA) evA vItarAg tAttvik chidAnandathI uchhaLatA
nirbhar Anandamay shuddhAtmAnI anubhUtirUp pariNAmone paramAnandamay nirvikalpa svasamvedanarUp

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478 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-160
वसिया करइ तेनैव स्वसंवेदनज्ञानेन वसितान् भरितावस्थान् करोति जु जो यः परमयोगी
सुण्णु निश्चयनयेन शुद्धचैतन्यनिश्चयप्राणस्य हिंसकत्वान्मिथ्यात्वविकल्पजालमेव निश्चयहिंसा
तत्प्रभृति-समस्तविभावपरिणामान् स्वसंवेदनज्ञानलाभात्पूर्वं वसितानिदानीं शून्यान् करोतीति
बलि
किज्जउतसु जोइयहिं बलिर्मस्तकस्योपरितनभागेनावतारणं क्रियेऽहमिति तस्य योगिनः
एवं
श्रीयोगीन्द्रदेवाः गुणप्रशंसां कुर्वन्ति पुनरपि किं यस्य योगिनः जासु ण यस्य न किम्
पाउ ण पुण्णु वीतरागशुद्धात्मतत्त्वाद्विपरीतं न पुण्यपापद्वयमिति तात्पर्यम् ।।१६०।।
अथैक सूत्रेण प्रश्नं कृत्वा सूत्रचतुष्टयेनोत्तरं दत्त्वा च तमेव पूर्वसूत्रपञ्चकेनोक्तं
निर्विकल्पसमाधिरूपं परमोपदेशं पुनरपि विवृणोति पञ्चकलेन
२९२) तुट्टइ मोहु तडित्ति जहिँ मणु अत्थवणहँ जाइ
सो सामइ उवएसु कहि अण्णेँ देविं काइँ ।।१६१।।
है, निज स्वादनरूप स्वाभाविक ज्ञानकर शुद्ध परिणामोंकी बस्ती निज घटरूपी नगरमें भरपूर
करता है
और अनादिकालके जो शुद्ध चैतन्यरूप निश्चयप्राणोंके घातक ऐसे मिथ्यात्व
रागादिरूप विकल्पजाल हैं, उनको निज स्वरूप नगरसे निकाल देता है, उनको ऊ जड़ कर देता
है, ऐसे परमयोगीकी मैं बलिहारी हूँ, अर्थात् उसके मस्तक पर मैं अपनेको वारता हूँ
इसप्रकार
श्रीयोगींद्रदेव परमयोगियोंकी प्रशंसा करते हैं जिन योगियोंके वीतराग शुद्धात्मा तत्त्वसे विपरीत
पुण्यपाप दोनों ही नहीं हैं ।।१६०।।
आगे एक दोहेमें शिष्यका प्रश्न और चार दोहोंमें प्रश्नका उत्तर देकर
निर्विकल्पसमाधिरूप परम उपदेशको फि र भी विस्तारसे कहते हैं
gnAnanA baLathI atyAre vishiShTa gnAnanA samaye te ja svasamvedanarUp gnAn vaDe vasAve chhebharapUr
kare chhe ane nishchayanayathI shuddha chaitanyarUp nishchayaprANanA hinsak hovAthI mithyAtva vikalpajAL ja
nishchayahinsA chhe, te hinsAthI mAnDIne pUrve vaselA samasta vibhAvapariNAmone svasamvedanarUp gnAnanI
prAptithI atyAre shUnya (ujjaD) kare chhe, te yogIne hun vArI jAun chhun arthAt hun mAthun namAvIne
namaskAr karun chhun, e rIte shrI yogIndradev guNonI prashansA kare chhe ke je yogIne vItarAg shuddha
AtmatattvathI viparIt puNya ane pAp banne nathI. 160.
have, ek gAthAsUtra dvArA prashna karIne tathA chAr sUtra dvArA uttar ApIne te ja agAunA
pAnch sUtro dvArA (gAthA 156 thI 160, e pAnch sUtro dvArA) kahelA nirvikalpa samAdhirUp
paramopadeshanun pAnch sUtro dvArA pharIne paN varNan kare chhe

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adhikAr-2 dohA-161 ]paramAtmaprakAsha [ 479
त्रुटयति मोहः झटिति यत्र मनः अस्तमनं याति
तं स्वामिन् उपदेशं कथय अन्येन देवेन किम् ।।१६१।।
तुट्टइ इत्यादि तुट्टइ नश्यति कोऽसौ मोहु निर्मोहशुद्धात्मद्रव्यप्रतिपक्षभूतो मोहः
तडित्ति झटिति जहिं मोहोदयोत्पन्नसमस्तविकल्परहिते यत्र परमात्मपदार्थे पुनरपि किं यत्र
मणु अत्थवणहं जाइ निर्विकल्पात् शुद्धात्मस्वभावाद्विपरीतं नानाविकल्पजालरूपं मनोवास्तं
गच्छति
सो सामिय उवएसु कहि हे स्वामिन् तदुपदेशं कथयति प्रभाकरभट्टः श्रीयोगीन्द्रदेवान्
पृच्छति
अण्णें देविं काइं निर्दोषिपरमात्मनः परमाराध्यात्सकाशादन्येन देवेन किं
प्रयोजनमित्यर्थः ।।१६१।। इति प्रभाकरभट्टप्रश्नसूत्रमेकं गतम् अथोत्तरम्
have, prashnarUp ek gAthAsUtra kahe chhe
bhAvArthamohanA udayathI utpanna, samasta vikalpothI rahit evA paramAtma-
padArthamAn nirmoh shuddha AtmadravyathI pratipakShabhUt moh shIghra nAsh pAme ane temAn nirvikalpa shuddha
AtmasvabhAvathI viparIt anek vikalpanI jALarUp man vilay pAme te upadesh he svAmI! Ap
mane kaho, em prabhAkarabhaTTa shrI yogIndradevane prashna kare chhe. evA nirdoSh paramAtmA
je param
ArAdhya chhe-tenAthI anya devanun mAre shun prayojan chhe? evo artha chhe. 161.
e rIte prabhAkarabhaTTanA prashnanun ek gAthAsUtra samApta thayun.
have teno uttara
गाथा१६१
अन्वयार्थ :[स्वामिन् ] हे स्वामी, मुझे [तं उपदेशं ] उस उपदेशको [कथय ]
कहो [यत्र ] जिससे [मोहः ] मोह [झटिति ] शीघ्र [त्रुटयति ] छूट जावे, [मनः ] ओर चंचल
मन [अस्तमनं ] स्थिरताको [याति ] प्राप्त हो जावे, [अन्य देवेन किम् ] दूसरे देवताओंसे क्या
प्रयोजन है ?
भावार्थ :प्रभाकरभट्ट श्रीयोगीन्द्रदेवसे प्रश्न करते हैं, कि हे स्वामी, वह उपदेश कहो
कि जिससे निर्मोह शुद्धात्मद्रव्यसे पराङ्मुख मोह शीघ्र जुदा हो जावे, अर्थात् मोहके उदयसे
उत्पन्न समस्त विकल्प-जालोंसे रहित जो परमात्मा पदार्थ उसमें मोह-जालका लेश भी न रहे,
और निर्विकल्प शुद्धात्म भावनासे विपरीत नाना विकल्पजालरूपी चंचल मन वह अस्त हो
जावे
हे स्वामी, निर्दोष परमाराध्य जो परमात्मा उससे अन्य जो मिथ्यात्वी देव उनसे मेरा क्या
मतलब है ? ऐसा शिष्यने प्रश्न किया उसका एक दोहा-सूत्र कहा ।।१६१।।
आगे श्रीगुरु उत्तर देते हैं

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480 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-162
२९३) णास-विणिग्गउ सासडा अंबरि जेत्थु विलाइ
तुट्टइ मोहु तडत्ति तहिँ मणु अत्थवणहँ जाइ ।।१६२।।
नासाविनिर्गतः श्वासः अम्बरे यत्र विलीयते
त्रुटयति मोहः झटिति तत्र मनः अस्तं याति ।।१६२।।
णासविणिग्गउ इत्यादि णास-विणिग्गउ नासिकाविनिर्गतः सासडा उच्छ्वासः अंबरि
मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालरहिते शून्ये अम्बरशब्दवाच्ये जेत्थु यत्र तात्त्विकपरमानन्द-
भरितावस्थे निर्विकल्पसमाधौ
विलाइ पूर्वोक्त : श्वासो विलयं गच्छति नासिकाद्वारं विहाय
तालुरन्ध्रेण गच्छतीत्यर्थः
तुट्टइ त्रुटयति नश्यति कोऽसौ मोहु मोहोदयेनोत्पन्नरागादि-
विकल्पजालः तडत्ति झटिति तहिं तत्र बहिर्बोधशून्ये निर्विकल्पसमाधौ मणु मनः
पूर्वोक्त रागादिविकल्पाधारभूतं तन्मयं वा
अत्थवणहं जाइ अस्तं विनाशं गच्छति स्वस्वभावेन
bhAvArthanAkamAnthI nIkaLelo uchchhvAs, mithyAtva rAgAdi vikalpajALathI rahit
-shUnya (khAlI), ‘ambar’ shabdathI vAchya evI, tAttvik paramAnandathI paripUrNa je nirvikalpa
samAdhimAn vilay pAme chhe, arthAt nAsikA dvAr chhoDIne tALavAnA chhidrathI (brahmarandhranA dasham
dvArathI) nIkaLe chhe te bAhya bodhathI shUnya nirvikalpa samAdhimAn mohanA udayathI utpanna rAgAdi
vikalpajAL shIghra nAsh pAme chhe, pUrvokta rAgAdi vikalponA AdhArabhUt athavA pUrvokta rAgAdi
vikalpomAn tanmay evun man vinAsh pAme chhe
sva-svabhAvarUpe rahe chhe.
गाथा१६२
अन्वयार्थ :[नासाविनिर्गतः श्वासः ] नाकसे निकला जो श्वास वह [यत्र ] जिस
[अंबरे ] निर्विकल्पसमाधिमें [विलीयते ] मिल जावे, [तत्र ] उसी जगह [मोहः ] मोह
[झटिति ] शीघ्र [त्रुटयति ] नष्ट हो जाता है, [मनः ] और मन [अस्तं याति ] स्थिर हो जाता
है
भावार्थ :नासिकासे निकले जो श्वासोच्छ्वास हैं, वे अम्बर अर्थात् आकाशके
समान निर्मल मिथ्यात्व-विकल्प-जाल रहित शुद्ध भावोंमें विलीन हो जाते हैं, अर्थात्
तत्त्वस्वरूप परमानंदकर पूर्ण निर्विकल्पसमाधिमें स्थिर चित्त हो जाता है, तब श्वासोच्छ्वासरूप
पवन रुक जाती है, नासिकाके द्वारको छोड़कर तालुवा रंध्ररूपी दशवें द्वारमें होके निकले, तब
मोह टूटता है, उसी समय मोहके उदयकर उत्पन्न हुए रागादि विकल्प-जाल नाश हो जाते हैं,
बाह्य ज्ञानसे शून्य निर्विकल्पसमाधिमें विकल्पोंका आधरभूत जो मन वह अस्त हो जाता है,

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adhikAr-2 dohA-162 ]paramAtmaprakAsha [ 481
तिष्ठति इति यत्र यदायं जीवो रागादिपरभावशून्यनिर्विकल्पसमाधौ तिष्ठति
तदायमुच्छ्वासरूपो वायुर्नासिकाछिद्रद्वयं वर्जयित्वा स्वयमेवानीहितवृत्त्या तालुप्रदेशे यत् केशात्
शेषाष्टमभागप्रमाणं छिद्रं तिष्ठति तेन क्षणमात्रं दशमद्वारेण तदनन्तरं क्षणमात्रं नासिकया
तदनन्तरं रन्ध्रेण कृत्वा निर्गच्छतीति
न च परकल्पितवायुधारणारूपेण श्वासनाशो ग्राह्यः
कस्मादिति चेत् वायुधारणा तावदीहापूर्विका, ईहा च मोहकार्यरूपो विकल्पः स च
ahIn, jyAre A jIv rAgAdi parabhAvathI shUnya nirvikalpa samAdhimAn rahe chhe tyAre
uchchhvAsarUp vAyu nAkanA banne chhidrone chhoDIne svayamev anIhitavRuttithI tAlupradeshamAn vALanI
aNInA AThamA bhAg jevaDun je chhidra chhe te dasham dvArathI kShaNavAr, tyAr pachhI kShaNavAr
nAsikAthI, tyAr pachhI brahmarandhra dvArathI nIkaLe chhe paN parakalpit (pAtanjali matavALAthI
kalpit) vAyudhAraNarUpe shvAsano nAsh na samajavo (shvAsanun rundhan na samajavun). shA mATe? kAraN
ke vAyudhAraNA pratham to ihApUrvak chhe ane ihA mohanA kAryarUp vikalpa chhe. vaLI, te
(anIhitavRuttithI nirvikalpasamAdhinA baLathI nIkaLato vAyu) mohanun kAraN thato nathI, tethI
ahIn parakalpit vAyu ghaTato nathI. vaLI kumbhak, pUrak, rechak Adi jenI sangnA chhe te vAyudhAraNA
ahIn kShaNavAr ja thAy chhe paN abhyAsanA vashe ghaDI, prahar, divas Adi sudhI paN thAy chhe
अर्थात् निजस्वभावमें मनकी चंचलता नहीं रहती जब यह जीव रागादि परभावोंसे शून्य
निर्विकल्पसमाधिमें होता है, तब यह श्वासोच्छ्वासरूप पवन नासिकाके दोनों छिद्रोंको छोड़कर
स्वयमेव अवाँछीक वृत्तिसे तालुवाके बालकी अनीके आठवें भाग प्रमाण अत सूक्ष्म छिद्रमें
(दशवें द्वारमें) होकर निकलती है, नासाके छेदको छोड़कर तालुरंध्रमें (छेदमें) होकर
निकलती है
और पातंजलिमतवाले वायुधारणारूप श्वासोच्छ्वास मानते हैं, वह ठीक नहीं हैं,
क्योंकि वायुधारणा वाँछापूर्वक होती है, और वाँछा है, वह मोहसे उत्पन्न विकल्परूप है,
वाँछाका कारण मोह है
वह संयमीको वायुका निरोध वाँछापूर्वक नहीं होता है, स्वाभाविक
ही होता है जिनशासनमें ऐसा कहा है, कि कुंभक (पवनको खेंचना) पूरक (पवनको
थाँभना) रेचक (पवनको निकालना) ये तीन भेद प्राणायामके हैं, इसीको वायुधारणा कहते
हैं यह क्षणमात्र होती है, परंतु अभ्यासके वशसे घड़ी, पहर, दिवस आदि तक भी होती है
उस वायुधारणाका फल ऐसा कहा है, कि देह आरोग्य होती है, देहके सब रोग मिट जाते हैं,
शरीर हलका हो जाता है, परंतु मुक्ति इस वायुधारणासे नहीं होती, क्योंकि वायुधारणा शरीरका
धर्म है, आत्माका स्वभाव नहीं है
शुद्धोपयोगियोंके सहज ही बिना यत्नके मन भी रुक जाता
है, और श्वास भी स्थिर हो जाते हैं शुभोपयोगियोंके मनके रोकनेके लिये प्राणायामका अभ्यास
है, मनके अचल होनेपर कुछ प्रयोजन नहीं है जो आत्मस्वरूप है, वह केवल चेतनामयी ज्ञान

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482 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-163
मोहकारणं न भवतीति न च परकल्पितवायुः किंच कुम्भकपूरकरेचकादिसंज्ञा वायुधारणा
क्षणमात्रं भवत्येवात्र किंतु अभ्यासवशेन घटिकाप्रहरदिवसादिष्वपि भवति तस्य वायुधारणस्य च
कार्यं देहारोगत्वलघुत्वादिकं न च मुक्ति रिति
यदि मुक्ति रपि भवति तर्हि वायुधारणाकार-
काणामिदानीन्तनपुरुषाणां मोक्षो किं न भवतीति भावार्थः ।।१६२।।
अथ
२९४) मोहु विलिज्जइ मणु मरइ तुट्टइ सासु-णिसासु
केवल-णाणु वि परिणमइ अंबरि जाहँ णिवासु ।।१६३।।
मोहो विलीयते मनो म्रियते त्रुटयति श्वासोच्छ्वासः
केवलज्ञानमपि परिणमति अम्बरे येषां निवासः ।।१६३।।
ane te vAyudhAraNAnun kArya sharIranI ArogyatA ane sharIranA halakApaNun Adi chhe paN tenun
kArya mukti nathI. jo vAyudhAraNAnun kArya mukti paN hoy (jo vAyudhAraNAthI mokSha thato hoy)
to vAyudhAraNA karanAr atyAranA puruShono mokSha kem thato nathI, evo bhAvArtha chhe. 162.
have, pharI paramasamAdhinun kathan kare chhe
दर्शनस्वरूप है, सो शुद्धोपयोगी तो स्वरूपमें अतिलीन हैं, और शुभोपयोगी कुछ एक मनको
चपलतासे आनंदघनमें अडोल अवस्थाको नहीं पाते, तब तक मनके वश करनेके लिए
श्रीपंचपरमेष्ठीका ध्यान स्मरण करते हैं, ओंकारादि मंत्रोंका ध्यान करते हैं और प्राणायामका
अभ्यास कर मनको रोकके चिद्रूपमें लगाते हैं, जब वह लग गया, तब मन और पवन सब स्थिर
हो जाते हैं
शुद्धोपयोगियोंकी दृष्टि एक शुद्धोपयोगपर हो, पातंजलिमतकी तरह थोथी वायुधारणा
नहीं है जो वायुधारणासे ही शक्ति होवे, तो वायुधारणा करनेवालोंको उस दुःषमकालमें मोक्ष
क्यों न होवे ? कभी नहीं होता मोक्ष तो केवल स्वभावमयी है ।।१६२।।
आगे फि र परमसमाधिका कथन करते हैं
गाथा१६३
अन्वयार्थ :[येषां ] जिन मुनिश्वरोंका [अंबरे ] परमसमाधिमें [निवासः ] निवास है,
उनका [मोहः ] मोह [विलीयते ] नाशको प्राप्त हो जाता है, [मनः ] मन [म्रियते ] मर जाता
है, [श्वासोच्छ्वासः ] श्वासोच्छ्वास [त्रुटयति ] रुक जाता है, [अपि ] और [केवलज्ञानम् ]
केवलज्ञान [परिणमति ] उत्पन्न होता है

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adhikAr-2 dohA-163 ]paramAtmaprakAsha [ 483
मोहु विलिज्जइ इत्यादि मोहु मोहो ममत्वादिविकल्पजालं विलिज्जइ विलयं गच्छति
मणु मरइ इहलोकपरलोकाशाप्रभृतिविकल्पजालरूपं मनो म्रियते तुट्टइ नश्यति कोऽसौ
सासु-णिसासु अनीहितवृत्त्या नासिकाद्वारं विहाय क्षणमात्रं तालुरन्ध्रेण गच्छति पुनरप्यन्तरं
नासिकया कृत्वा निर्गच्छति पुनरपि रन्ध्रेणेत्युच्छ्वासनिःश्वासलक्षणो वायुः
पुनरपि किं
भवति केवल-णाणु वि परिणमइ केवलज्ञानमपि परिणमति समुत्पद्यते येषां किम् अंबरि
जाहं णिवासु रागद्वेषमोहरूपविकल्पजालशून्यं अम्बरे अम्बरशब्दवाच्ये शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धान-
ज्ञानानुचरणरूपे निर्विकल्पत्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधौ येषां निवास इति
अयमत्र भावार्थः
अम्बरशब्देन शुद्धाकाशं न ग्राह्यं किंतु विषयकषायविकल्पशून्यः परमसमाधिर्ग्राह्यः, वायुशब्देन
bhAvArtharAg-dveSh-moharUp vikalpajALathI shUnya (khAlI) ambaramAn ‘ambar’
shabdathI vAchya evI, shuddha AtmAnAn samyakshraddhAn, samyaggnAn ane samyag AcharaNarUp
nirvikalpa traN guptithI gupta paramasamAdhimAn jeno nivAs chhe tenA moh-mamatvAdi vikalpajAL
nAsh pAme chhe. Alok, paralokanI AshAthI mAnDIne vikalpajALarUp man marI jAy chhe,
uchchhvAs-nishvAsalakShaN vAyu anIhitavRuttithI nAsikA dvArane chhoDIne kShaNavAr tAlurandhramAnthI
nIkaLe chhe, vaLI pachhI nAsikA dvArA nIkaLe chhe vaLI pAchho brahmarandhrathI nIkaLe chhe. vaLI
kevaLagnAn paN pariName chhe-utpanna thAy chhe.
ahIn, A bhAvArtha chhe ke ‘ambar’ shabdathI shuddha AkAsh na samajavo paN
viShayakaShAyanA vikalpothI shUnya (khAlI) param samAdhi samajavI. (ambar shabdano artha shuddha
AkAsh na levo ‘ambar’ shabdano artha param samAdhi levo), ane ‘vAyu’ shabdathI kumbhak, rechak,
pUrak AdirUp vAyunirodh na samajavo paN svayam anIhitavRuttithI nirvikalpa samAdhinA baLathI
भावार्थ :दर्शनमोह और चारित्रमोह आदि कल्पना-जाल सब विलय हो जाते हैं,
इस लोक परलोक आदिकी वाँछा आदि विकल्परूप मन स्थिर हो जाता है, और
श्वासोच्छ्वासरूप वायु रुक जाती है, श्वासोच्छ्वास अवाँछीकपनेसे नासिकाके द्वारको
छोड़कर तालुछिद्रमें होकर निकलते हैं, तथा कुछ देरके बाद नासिकासे निकलते हैं
इस-
प्रकार श्वासोच्छ्वासरूप पवन वश हो जाता है चाहे जिस द्वारसे निकालो केवलज्ञान भी
शीघ्र ही उन ध्यानी मुनियोंके उत्पन्न होता है, कि जिन मुनियोंका राग-द्वेष-मोहरूप
विकल्पजालसे रहित शुद्धात्माका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निर्विकल्प त्रिगुप्तिमयी
परमसमाधिमें निवास है
यहाँ अम्बर नाम आकाशका अर्थ नहीं समझना, किन्तु समस्त
विषय-कषायरूप विकल्प-जालोंसे शून्य परमसमाधि लेना और यहाँ वायु शब्दसे कुंभक
पूरक रेचकादिरूप वाँछापूर्वक वायुनिरोध न लेना, किन्तु स्वयमेव अवाँछिक वृत्ति पर

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484 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-163
च कुम्भकरेचकपूरकादिरूपो वायुनिरोधो न ग्राह्यः किंतु स्वयमनीहितवृत्त्या
निर्विकल्पसमाधिबलेन दशमद्वारसंज्ञेन ब्रह्मरन्ध्रसंज्ञेन सूक्ष्माभिधानरूपेण च तालुरन्ध्रेण योऽसौ
गच्छति स एव ग्राह्यः तत्र
यदुक्तं केनापि‘‘मणु मरइ पवणु जहिं खयहं जाइ सव्वंगइ
तिहुवणु तहिं जि ठाइ मूढा अंतरालु परियाणहि तुट्टइ मोहजालु जइ जाणहि ।।’’ अत्र
पूर्वोक्त लक्षणमेव मनोमरणं ग्राह्यं पवनक्षयोऽपि पूर्वोक्त लक्षण एव त्रिभुवनप्रकाशक आत्मा
तत्रैव निर्विकल्पसमाधौ तिष्ठतीत्यर्थः
अन्तरालशब्देन तु रागादिपरभावशून्यत्वं ग्राह्यं न
चाकाशे ज्ञाते सति मोहजालं नश्यति न चान्याद्रशं परकल्पितं ग्राह्यमित्यभिप्रायः ।।१६३।।
dashamadvAr nAmanA brahmarandhra sangnAvALA ane sUkShma abhidhAnarUp tAlurandhramAnthI je (vAyu) nIkaLe
chhe te ja tyAn levo. vaLI, kahyun paN chhe ke-
‘‘मणु मरई पवणु जहिं खयहं जाइ सव्वंगइ तिहुवणु
तहिं जि ठाइ मूढा अंतरालु परियाणहि तुÿइ मोहजालु जइ जाणहि ।।’’ (arthamUDh
agnAnIoj ‘ambar’no artha AkAsh samaje chhe. paN jo ‘ambar’no artha paramasamAdhi jANe
to man marI jAy chhe, pavanano sahaj kShay thAy chhe. mohajAL nAsh pAme chhe ane sarva ang
tribhuvananI samAn thaI jAy chhe (arthAt kevaLagnAn thavAthI temAn traN lok jaNAy chhe).
ahIn, pUrvokta lakShaNavALun ja manomaraN samajavun, pavanakShay paN pUrvokta lakShaNavALo ja
samajavo, tribhuvanaprakAshak AtmA te nirvikalpa samAdhimAn ja rahe chhe evo artha chhe. ‘antarAl’
shabdathI to rAgAdi parabhAvanun shUnyapaNun samajavun paN AkAshane jANatAn mohajAL nAsh pAmatI
nathI, tethI (‘antarAl’ shabdathI) anye batAvelun parakalpit (AkAsh) na samajavun, evo
abhiprAy chhe. 163.
निर्विकल्पसमाधिके बलसे ब्रह्मद्वार नामा सूक्ष्म छिद्र जिसको तालुवेका रंध्र कहते हैं, उसके
द्वारा अवाँछिक वृत्तिसे पवन निकलता है, वह लेना
ध्यानी मुनियोंके पवन रोकनेका यत्न
नहीं होता है , बिना ही यत्नके सहज ही पवन रुक जाता है, और मन भी अचल हो जाता
है, ऐसा समाधिका प्रभाव है
ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जो मूढ है, वे तो अम्बरका
अर्थ आकाशको जानते हैं, और जो ज्ञानीजन हैं, वे अम्बरका अर्थ परमसमाधिरूप निर्विकल्प
जानते हैं
सो निर्विकल्प ध्यानमें मन मर जाता है, पवनका सहज ही विरोध होता है, और
सब अंग तीन भुवनके समान हो जाता है जो परमसमाधिको जाने, तो मोह टूट जावे मनके
विकल्पोंका मिटना वही मनका मरना है, और वही श्वासका रुकना है, जो कि सब द्वारोंसे
रुककर दशवें द्वारमेंसे होकर निकले
तीन लोकका प्रकाशक आत्माको निर्विकल्पसमाधिमें
स्थापित करता है अंतराल शब्दका अर्थ रागादि भावोंसे शून्यदशा लेना आकाशका अर्थ न
लेना आकाशके जाननेसे मोह-जाल नहीं मिटता, आत्मस्वरूपके जाननेसे मोह-जाल मिटता
है जो पातञ्जलि आदि परसमयमें शून्यरूप समाधि कही है, वह अभिप्राय नहीं लेना,

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adhikAr-2 dohA-164 ]paramAtmaprakAsha [ 485
अथ
२९५) जो आयासइ मणु धरइ लोयालोय-पमाणु
तुट्टइ मोहु तडत्ति तसु पावइ परहँ पवाणु ।।१६४।।
यः आकाशे मनो धरति लोकालोकप्रमाणम्
त्रुटयति मोहो झटिति तस्य प्राप्नोति परस्य प्रमाणम् ।।१६४।।
जो इत्यादि जो यो ध्याता पुरुषः आयासइ मणु धरइ यथा परद्रव्य-
संबन्धरहितत्वेनाकाशमम्बरशब्दवाच्यं शून्यमित्युच्यते तथा वीतरागचिदानन्दैकस्वभावेन
भरितावस्थोऽपि मिथ्यात्वरागादिपरभावरहितत्वान्निर्विकल्पसमाधिराकाशमम्बरशब्दवाच्यं शून्य-
मित्युच्यते
तत्राकाशसंज्ञे निर्विकल्पसमाधौ मनो धरति स्थिरं करोति कथंभूत मनः
have, pharI nirvikalpa samAdhinun kathan kare chhe
bhAvArthajevI rIte paradravyanA sambandhathI rahit hovAthI ‘ambar’ shabdathI vAchya
AkAshane ‘shUnya’ kahevAy chhe tevI rIte ek (kevaL) vItarAg chidAnandamayasvabhAvathI paripUrNa
hovA chhatAn mithyAtva, rAgAdi parabhAvothI rahit hovAthI ‘ambar’ shabdathI vAchya AkAshane
-nirvikalpa samAdhine-shUnya kahevAmAn Ave chhe. te AkAsh jenI sangnA chhe evI nirvikalpa samAdhimAn
क्योंकि जब विभावोंकी शून्यता हो जावेगी तब वस्तुका ही अभाव हो जाएगा ।।१६३।।
आगे फि र निर्विकल्पसमाधिका कथन करते हैं
गाथा१६४
अन्वयार्थ :[यः ] जो ध्यानी पुरुष [आकाशे ] निर्विकल्पसमाधिमें [सनः ] मन
[धरति ] स्थिर करता है, [तस्य ] उसीका [मोहः ] मोह [झटिति ] शीघ्र [त्रुटयति ] टूट
जाता है, और ज्ञान करके [परस्य प्रमाणम् ] लोकालोकप्रमाण आत्माको [प्राप्नोति ] प्राप्त हो
जाता है
भावार्थ :आकाश अर्थात् वीतराग चिदानंद स्वभाव अनंत गुणरूप और मिथ्यात्व
रागादि परभाव रहित स्वरूप निर्विकल्पसमाधि यहाँ समझना जैसे आकाशद्रव्य सब द्रव्योसें
भरा हुआ है, परंतु सबसे शून्य अपने स्वरूप है, उसी प्रकार चिद्रूप आत्मा रागादि उपाधियोंसे
रहित है, शून्यरूप है, इसलिए आकाश शब्दका अर्थ यहाँ शुद्धात्मस्वरूप लेना
व्यवहारनयकर

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486 ]
yogIndudevavirachita
[ adhikAr-2 dohA-164
लोयालोयपमाणु लोकालोकप्रमाणं लोकालोकव्याप्तिरूपं अथवा प्रसिद्धलोकालोकाकाशे
व्यवहारेण ज्ञानापेक्षया न च प्रदेशापेक्षया लोकालोकप्रमाणं मनो
मानसं धरति तुट्टइ मोह
तडत्ति तसु त्रुटयति नश्यति कोऽसौ मोहु मोहः कथम् झटिति तस्य ध्यानात्
केवलं मोहो नश्यति पावइ प्राप्नोति किम् परहं पवाणु परस्य परमात्मस्वरूपस्य
प्रमाणम् कीद्रशं तत्प्रमाणमिति चेत् व्यवहारेण रूपग्रहणविषये चक्षुरिव सर्वगतः यदि
पुनर्निश्चयेन सर्वगतो भवति तर्हि चक्षुणो अग्निस्पर्शात्दाहः प्राप्नोति न च तथा
तथात्मनोऽपि परकीयसुखदुःखविषये तन्मयपरिणामत्वेन परकीयसुखदुःखानुभवं प्राप्नोति न च
lokAlokavyAptirUp lokAlok pramAN athavA vyavahAranayathI prasiddha lokAlokAkAshamAn gnAn-
apekShAe vyApta paN pradeshanI apekShAe vyApta nahi evA manane je dhyAtA puruSh sthir kare
chhe teno moh shIghra tenA dhyAnathI nAsh pAme chhe. mAtra moh nAsh pAme chhe eTalun ja nahi paN
paramAtmasvarUpanun pramAN paN pAme chhe.
prashna :keTalun te pramAN chhe?
uttar :vyavahArathI jem chakShu rUpagrahaNanI bAbatamAn sarvagat chhe tem te sarvagat chhe
paN jo nishchayathI sarvagat hoy to chakShune agninA sparshanI baLatarA thAy, paN tem thatun nathI,
tevI rIte jo AtmA nishchayathI sarvagat hoy to parakIy sukhadukhamAn AtmAnA tanmay pariNAm
hovAthI paranA sukh-dukhano anubhav prApta thAy, paN tem thatun nathI. (tethI vyavahArathI gnAn-
apekShAe AtmAne sarvagatapaNun chhe, pradesh-apekShAe nahi.)
vaLI, nishchayanayathI AtmA lokapramAN asankhyAt pradeshavALo hovA chhatAn paN
ज्ञान लोकालोकका प्रकाशक है, और निश्चयनयकर अपने स्वरूपका प्रकाशक है आत्माका
केवलज्ञान लोकालोकको जानता है, इसी कारण ज्ञानकी अपेक्षा लोकालोकप्रमाण कहा जाता
है, प्रदेशोंकी अपेक्षा लोकालोकप्रमाण नहीं है
ज्ञानगुण लोकालोकमें व्याप्त है; परन्तु परद्रव्योंसे
भिन्न है परवस्तुसे जो तन्मयी हो जावे, तो वस्तुका अभाव हो जावे इसलिए यह निश्चय
हुआ, कि ज्ञान गुणक र लोकालोकप्रमाण जो आत्मा उसे आकाश भी कहते हैं, उसमें जो मन
लगावे, तब जगत्से मोह दूर हो और परमात्माको पावे
व्यवहारनयकर आत्मा ज्ञानकर सबको
जानता है, इसलिए सब जगत्में हैं जैसे व्यवहारनयकर नेत्र रूपी पदार्थको जानता है; परन्तु
उन पदार्थोंसे भिन्न है जो निश्चयकर सर्वगत होवे, तो परपदार्थोंसे तन्मयी हो जावे, जो उसे
तन्मयी होवे तो नेत्रोंको अग्निका दाह होना चाहिए, इस कारण तन्मयी नहीं है उसी प्रकार
1 pAThAntaraमानसं = मानसं ज्ञानं
2. pAThAntaraअग्निस्पर्शात् दाहः = अग्निस्पर्शदाह