Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (simplified iso15919 transliteration). Gatha: 112 (Adhikar 2) Indriyoma Lapatayel Jivano Vinash,113 (Adhikar 2) Lobhakashayano Dosha,114 (Adhikar 2) Snehano Tyag,115 (Adhikar 2),116 (Adhikar 2),117 (Adhikar 2),118 (Adhikar 2),119 (Adhikar 2),120 (Adhikar 2),121 (Adhikar 2),122 (Adhikar 2),123 (Adhikar 2),124 (Adhikar 2),125 (Adhikar 2) Jivahinsano Dosh,126 (Adhikar 2),127 (Adhikar 2) Jivarakshathi Labh.

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adhikār-2ḥ dohā-112 ]paramātmaprakāshaḥ [ 407
२४२) रूवि पयंगा सद्दि मय गय फासहिँ णासंति
अलिउल गंधइँ मच्छ रसि किम अणुराउ करंति ।।११२।।
रूपे पतङ्गाः शब्दे मृगाः गजाः स्पर्शैः नश्यन्ति
अलिकुलानि गन्धेन मत्स्याः रसे किं अनुरागं कुर्वन्ति ।।११२।।
रूवि इत्यादि रूपे समासक्ताः पतङ्गाः शब्दे मृगा गजाः स्पर्शैः गन्धेनालिकुलानि मत्स्या
रसासक्ता नश्यन्ति यतः कारणात् ततः कारणात्कथं तेषु विषयेष्वनुरागं कुर्वन्तीति तथाहि
पञ्चेन्द्रियविषयाकांक्षाप्रभृतिसमस्तापध्यानविकल्पै रहितः शून्यः स्पर्शनादीन्द्रियकषायातीतनिर्दोषि-
परमात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपनिर्विकल्पसमाधिसंजातवीतरागपरमाह्लादैकलक्षणसुखामृतरसास्वादेन
पूर्ण कलशवद्भरितावस्थः केवलज्ञानादिव्यक्ति रूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादकः शुद्धोपयोगस्वभावो
bhāvārthapāñch indriyanā viṣhayonī ākāṅkṣhāthī māṇḍīne samasta apadhyānanā vikalpothī
rahit-shūnya (khālī), sparshanādi indriy viṣhayakaṣhāyathī atīt evā nirdoṣh paramātmānān samyak
shraddhān, samyaggnān, samyag anucharaṇarūp nirvikalpa samādhithī utpanna vītarāg param āhlād
jenun ek lakṣhaṇ chhe evā sukhāmr̥utarasanā āsvādathī, pūrṇa chhalochhal bharelā kaḷashanī jem
paripūrṇa, kevaḷagnānādinī vyaktirūp kāryasamayasārano utpādak evo ja shuddhopayogasvabhāv kāraṇ
गाथा११२
अन्वयार्थ :[रूपे ] रूपमें लीन हुए [पतंगा ] पतंग जीव दीपकमें जलकर मर जाते
हैं, [शब्दे ] शब्द विषयमें लीन [मृगाः ] हिरण व्याधके बाणोंसे मारे जाते हैं, [गजाः ] हाथी
[स्पर्शैः ] स्पर्श विषयके कारण गड्ढेमें पड़कर बाँधे जाते हैं, [गंधेन ] सुगंधकी लोलुपतासे
[अलिकुलानि ] भौंरे काँटोंमें या कमलमें दबकर प्राण छोड़ देते और [रसे ] रसके लोभी
[मत्स्याः ] मच्छ [नश्यंति ] धीवरके जालमें पड़कर मारे जाते हैं
एक एक विषय कषायकर
आसक्त हुए जीव नाशको प्राप्त होते हैं, तो पंचेन्द्रिका कहना ही क्या है ? ऐसा जानकर विवेकी
जीव विषयोंमें [किं ] क्या [अनुरागं ] प्रीति [कुर्वंति ] करते हैं ? कभी नहीं करते
भावार्थ :पंचेन्द्रियके विषयोंकी इच्छा आदि जो सब खोटे ध्यान वे ही हुए विकल्प
उनसे रहित विषय कषाय रहित जो निर्दोष परमात्मा उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप
जो निर्विकल्प समाधि, उससे उत्पन्न वीतराग परम आहलादरूप सुख
अमृत, उसके रसके
स्वादकर पूर्ण कलशकी तरह भरे हुए जो केवलज्ञानादि व्यक्तिरूप कार्यसमयसार, उसका
1. pāṭhāntaraḥस्पर्शैः = स्पर्शे.

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408 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-113
योऽसावेवंभूतः कारणसमयसारः तद्भावनारहिता जीवाः पञ्चेन्द्रियविषयाभिलाषवशीकृता
नश्यन्तीति ज्ञात्वा कथं तत्रासक्तिं गच्छन्ति ते विवेकिन इति
अत्र पतङ्गादय एकैकविषयासक्ता
नष्टाः, ये तु पञ्चेन्द्रियविषयमोहितास्ते विशेषेण नश्यन्तीति भावार्थः ।।११२।।
अथ लोभकषायदोषं दर्शयति
२४३) जोइय लोहु परिच्चयहि लोहु ण भल्लउ होइ
लोहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ।।११३।।
योगिन् लोभं परित्यज लोभो न भद्रः भवति
लोभासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।।११३।।
samayasār tenī bhāvanāthī rahit ane pāñch indriyonā viṣhayonī abhilāṣhāne vash thayelān jīvo
nāsh pāme chhe.
ahīn, pataṅgādi jīvo ek ek viṣhayamān āsakta thaīne nāsh pāme chhe to pachhī jeo
pāñchey indriyonā viṣhayamān mohit chhe teo to visheṣhapaṇe nāsh pāme chhe, evo bhāvārtha chhe. 112.
have, lobh kaṣhāyano doṣh batāve chheḥ
उत्पन्न करनेवाला जो शुद्धोपयोगरूप कारण समयसार, उसकी भावनासे रहित संसारीजीव
विषयोंके अनुरागी पाँच इन्द्रियोंके लोलुपी भव भवमें नाश पाते हैं
ऐसा जान कर इन विषयोंमें
विवेकी कैसे रागको प्राप्त होवें ? कभी विषयाभिलाषी नहीं होते पतंगादिक एक एक विषयमें
लीन हुए नष्ट हो जाते हैं, लेकिन जो पाँच इन्द्रियोंके विषयोंमें मोहित हैं, वे वीतराग
चिदानन्दस्वभाव परमात्मतत्त्व उसको न सेवते हुए, न जानते हुए, और न भावते हुए, अज्ञानी
जीव मिथ्या मार्गको वाँछते, कुमार्गकी रुचि रखते हुए नरकादि गतिमें घानीमें पिलना, करोंतसे
विदरना, और शूली पर चढ़ना इत्यादि अनेक दुःखोंको देहादिककी प्रीतिसे भोगते हैं
ये अज्ञानी
जीव वीतरागनिर्विकल्प परमसमाधिसे पराङ्मुख हैं, जिनके चित्त चंचल हैं, कभी निश्चल
चित्तकर निजरूपको नहीं ध्यावते हैं
और जो पुरुष स्नेहसे रहित हैं, वीतरागनिर्विकल्प समाधिमें
लीन हैं, वे ही लीलामात्रमें संसारको तैर जाते हैं ।।११२।।
आगे लोभकषायका दोष कहते हैं
गाथा११३
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, तू [लोभं ] लोभको [परित्यज ] छोड, [लोभो ]
1 pāṭhāntar दर्शयति = प्रतिपादयति

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adhikār-2ḥ dohā-114 ]paramātmaprakāshaḥ [ 409
bhāvārthahe prabhākarabhaṭṭa! lobhakaṣhāyathī viparīt evā paramātmasvabhāvathī viparīt
lobhane tun chhoḍ, kāraṇ ke nirlobh evā paramātmānī bhāvanāthī rahit jīvo duḥkh bhogavī rahyān
chhe. 113.
have, ā ja lobhakaṣhāyanā doṣh draṣhṭāntathī siddha kare chheḥ
हे योगिन् लोभं परित्यज कस्मात् लोभो भद्रः समीचीनो न भवति लोभासक्तं
समस्तं जगद् दुःखं सहमानं पश्येति तथाहिलोभकषायविपरीतात् परमात्मस्वभावाद्विपरीतं
लोभं त्यज हे प्रभाकरभट्ट यतः कारणात् निर्लोभपरमात्मभावनारहिताजीवा दुःखमुप-
भुञ्जानास्तिष्ठन्तीति तात्पर्यम् ।।११।।
अथामुमेव लोभकषायदोषं द्रष्टान्तेन समर्थयति
२४४) तलि अहिरणि वरि घण-वडणु संडस्सय-लुंचोडु
लोहहँ लग्गिवि हुयवहहँ पिक्खु पडंतउ तोडु ।।११४।।
तले अधिकरणं उपरि घनपातनं संदशकलुञ्चनम्
लोहं लगित्वा हुतवहस्य पश्य पतत् त्रोटनम् ।।११४।।
तले अधस्तनभागेऽधिकरणसंज्ञोपकरणं उपरितनभागे घनघातपातनं तथैव संडसक-
यह लोभ [भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, क्योंकि [लोभासक्तं ] लोभमें फँसे हुए [सकलं
जगत् ] सम्पूर्ण जगत्को [दुःखं सहमानं ] दुःख सहते हुए [पश्य ] देख
भावार्थ :लोभकषायसे रहित जो परमात्मस्वभाव उससे विपरीत जो इसभव
परभवका लोभ, धन धान्यादिका लोभ उसे तू छोड़ क्योंकि लोभी जीव भव भवमें दुःख
भोगते हैं, ऐसा तू देख रहा है ।।११३।।
आगे लोभकषायके दोषको दृष्टांतसे पुष्ट करते हैं
गाथा११४
अन्वयार्थ :[लोहं लगित्वा ] जैसे लोहेका संबंध पाकर [हुतवहं ] अग्नि [तले ]
नीचे रक्खे हुए [अधिकरणं उपरि ] अहरन (निहाई) के ऊ पर [घनपातनं ] घनकी चोट,
[संदशकुलुंचनम् ] संडासीसे खेंचना, [पतत् त्रोटनम् ] चोट लगनेसे टूटना, इत्यादि दुःखोंको
सहती हैं, ऐसा [पश्य ] देख
भावार्थ :लोहेकी संगतिसे लोकप्रसिद्ध देवता अग्नि दुःख भोगती हैं, यदि लोहेका

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410 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-115
bhāvārthajem loḍhānā goḷānā sansargathī agni ke je agnānī lokomān pūjya ane
prasiddha dev chhe te paṇ ṭipāy chhe, tem lobhādi kaṣhāyapariṇatinā kāraṇabhūt pañchendriy sharīranā
sambandhathī nirlobh paramātmatattvanī bhāvanāthī rahit jīv ghaṇanā ghā samān narakādinān duḥkho ghaṇā
kāḷ sudhī sahan kare chhe. 114.
have, snehano tyāg karavānun kahe chheḥ
संज्ञेनोपकरणेन लुञ्चनमाकर्षणम् केन लोहपिण्डनिमित्तेन कस्य हुतभुजोऽग्नेः त्रोटनं
खण्डनं पतन्त पश्येति अयमत्र भावार्थः यथा लोहपिण्डसंसर्गादग्निरज्ञानिलोकपूज्या प्रसिद्धा
देवता पिट्टनक्रियां लभते तथा लोभादिकषायपरिणतिकारणभूतेन पञ्चेन्द्रियशरीरसंबन्धेन
निर्लोभपरमात्मतत्त्वभावना रहितो जीवो घनघातस्थानीयानि नारकादिदुःखानि बहुकालं सहत
इति
।।११४।।
अथ स्नेहपरित्यागं कथयति
२४५) जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ
णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ।।११५।।
योगिन् स्नेहं परित्यज स्नेहो न भद्रो भवति
स्नेहासक्तं सकलं जगद् दुःखं सहमानं पश्य ।।११५।।
सम्बन्ध न करे तो इतने दुःख क्यों भोगे, अर्थात् जैसे अग्नि लोहपिंडके सम्बन्धसे दुःख भोगती
है, उसी तरह लोह अर्थात् लोभके कारणसे परमात्मतत्त्वकी भावनासे रहित मिथ्यादृष्टि जीव
घनघातके समान नरकादि दुःखोंको बहुत काल तक भोगता है
।।११४।।
आगे स्नेहका त्याग दिखलाते हैं
गाथा११५
अन्वयार्थ :[योगिन् ] हे योगी, रागादि रहित वीतराग परमात्मपदार्थके ध्यानमें
ठहरकर ज्ञानका वैरी [स्नेहं ] स्नेह (प्रेम) को [परित्यज ] छोड़, [स्नेहः ] क्योंकि स्नेह
[भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, [स्नेहासक्तं ] स्नेहमें लगा हुआ [सकलं जगत् ] समस्त
संसारीजीव [दुःखं सहमानं ] अनेक प्रकार शरीर और मनके दुःख सह रहे हैं, उनको तू
[पश्य ] देख
ये संसारीजीव स्नेह रहित शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहित हैं, इसलिए नाना
प्रकारके दुःख भोगते हैं दुःखका मूल एक देहादिकका स्नेह ही है

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adhikār-2ḥ dohā-116 ]paramātmaprakāshaḥ [ 411
bhāvārthahe yogī! rāgādi snehathī pratipakṣhabhūt evā vītarāg paramātma-padārthanā
dhyānamān sthit thaīne shuddha ātmatattvathī viparīt evā snehane tun chhoḍ. shā māṭe? kāraṇ ke
sneh samīchīn nathī. te snehamān āsakta sakaḷ jagatane niḥsneh evā shuddha ātmānī bhāvanāthī
rahit shārīrik ane mānasik anek prakāranān ghaṇān duḥkhone sahan karatun, tun dekh.
ahīn, bhedābhedaratnatrayātmak mokṣhamārga chhoḍīne, tenā pratipakṣhabhūt mithyātva, rāgādimān
sneh na karavo evun tātparya chhe. kahyun paṇ chhe ke ‘‘तावदेव सुखी जीवो यावन्न स्निह्यते क्वचित्
स्नेहानुविद्धहृदयं दुःखमेव पदे पदे ।।’’ (arthajīv tyān sudhī sukhī chhe ke jyān sudhī jagatanā
koīpaṇ padārtha pratye sneh karato nathī. snehathī vīndhāyelun (snehayukta) hr̥uday ḍagale-ḍagale duḥkh
ja pāme chhe. 115.
have, snehanā doṣhane draṣhṭānt vaḍe draḍh kare chheḥ
रागादिस्नेहप्रतिपक्षभूते वीतरागपरमात्मपदार्थध्याने स्थित्वा शुद्धात्मतत्त्वाद्विपरीतं हे
योगिन् स्नेहं परित्यज कस्मात् स्नेहो भद्रः समीचीनो न भवति तेन स्नेहेनासक्तं सकलं
जगन्निःस्नेहशुद्धात्मभावनारहितं विविधशारीरमानसरूपं बहुदुःखं सहमानं पश्येति अत्र
भेदाभेदरत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गं मुक्त्वा तत्प्रतिपक्षभूते मिथ्यात्वरागादौ स्नेहो न कर्तव्य इति
तात्पर्यम्
उक्तं च‘‘तावदेव सुखी जीवो यावन्न स्निह्यते क्वचित् स्नेहानुविद्धहृदयं दुःखमेव
पदे पदे ।।’’ ।।११५।।
अथ स्नेहदोषं द्रष्टान्तेन द्रढयति
२४६) जल-सिंचणु पय-णिद्दलणु पुणु पुणु पीलण-दुक्खु
णेहहँ लग्गिवि तिल-णियरु जंति सहंतउ पिक्खु ।।११६।।
जलसिञ्चन पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुःखम्
स्नेहं लगित्वा तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं पश्य ।।११६।।
भावार्थ :यहाँ भेदाभेदरत्नत्रयरूप मोक्षके मार्गसे विमुख होकर मिथ्यात्व रागादिमें
स्नेह नहीं करना, यह सारांश है क्योंकि ऐसा कहा भी है, कि जब तक यह जीव जगत्से
स्नेह न करे, तब तक सुखी है, और जो स्नेह सहित हैं, जिनका मन स्नेहसे बँध रहा है, उनको
हर जगह दुःख ही है
।।११५।।
आगे स्नेहका दोष दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं
गाथा११६
अन्वयार्थ :[तिलनिकरं ] जैसे तिलोंका समूह [स्नेहं लगित्वा ] स्नेह (चिकनाई)

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412 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-117
bhāvārthaahīn vītarāg chidānand ja jeno ek svabhāv chhe evā paramātmatattvane
nahi sevatā, nahi jāṇatā ane vītarāg nirvikalpa samādhinā baḷ vaḍe nishchal chittathī nahi
bhāvatā jīvo mithyāmārgamān ruchi karatā thakā, pañchendriy viṣhayomān āsakta thatān, naranārakādi
gatiomān ghāṇīmān pilāvun, karavatathī kapāvun ane shūḷīe chaḍavun vagere anek prakāranā duḥkh sahan
kare chhe. e bhāvārtha chhe. 116.
ā viṣhayamān kahyun paṇ chhe keḥ
जलसिंचनं पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुखं स्नेहनिमित्तं तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं
पश्येति अत्रवीतरागचिदानन्दैकस्वभावं परमात्मतत्त्वमसेवमाना अजानन्तो वीतरागनिर्विकल्प-
समाधिबलेन निश्चलचित्तेनाभावयन्तश्च जीवा मिथ्यामार्गं रोचमानाः पञ्चेन्द्रियविषयासक्ताः
सन्तो नरनारकादिगतिषु यन्त्रपीडनक्रकचविदारणशूलारोहणादि नानादुःखं सहन्त इति
भावार्थः
।।११६।।
उक्तं च
२४७) ते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय-लोए
वोद्दह-दहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए ।।११७।।
ते चैव धन्याः ते चैव सत्पुरुषाः ते जीवन्तु जीवलोके
यौवनद्रहे पतिताः तरन्ति ये चैव लीलया ।।११७।।
के सम्बन्धसे [जलसिंचनं ] जलसे भीगना, [पादनिर्दलनं ] पैरोंसे खुँदना, [यंत्रेण ] घानीमें
[पुनः पुनः ] बार बार [पीडनदुःखम् ] पिलनेका दुख [सहमानं ] सहता है, उसे [पश्य ] देखो
भावार्थ :जैसे स्नेह (चिकनाई तेल) के सम्बन्ध होनेसे तिल घानीमें पेले जाते हैं,
उसी तरह जो पंचेन्द्रियके विषयोंमें आसक्त हैंमोहित हैं वे नाशको प्राप्त होते हैं, इसमें कुछ
संदेह नहीं है ।।११६।।
इस विषयमें कहा भी है
गाथा११७
अन्वयार्थ :[ते चैव धन्याः ] वे ही धन्य हैं, [ते चैव सत्पुरुषाः ] वे ही सज्जन
हैं, और [ते ] वे ही जीव [जीवलोके ] इस जीवलोकमें [जीवंतु ] जीवते हैं, [ये चैव ] जो
[यौवनद्रहे ] जवान अवस्थारूपी बड़े भारी तालाबमें [पतिताः ] पड़े हुए विषय
रसमें नहीं
डूबते, [लीलया ] लीला (खेल) मात्रमें ही [तरंति ] तैर जाते हैं वे ही प्रशंसा योग्य है

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adhikār-2ḥ dohā-118 ]paramātmaprakāshaḥ [ 413
bhāvārthaahīn viṣhayonī ākāṅkṣhārūp sneharūpī jaḷamān praveshathī rahit, samyag-
darshan, samyaggnān ane samyakchāritrarūp amūlya ratnonā dābaḍāthī pūrṇa evā nijashuddhātma-
bhāvanārūp jahājathī yauvanarūpī mahāsarovarane jeo tarī jāy chhe teo ja dhanya chhe, teo ja
satpuruṣho chhe. 117.
have, bahu vistārathī shun prayojan chhe?
ते चैव धन्यास्ते चैव सत्पुरुषास्ते जीवन्तु जीवलोके ते के वोद्दहशब्देन यौवनं स
एव द्रहो महाहृदस्तत्र पतिताः सन्तस्तरन्ति ये चैव कया लीलयेति अत्र विषयाकांक्षा-
रूपस्नेहजलप्रवेशरहितेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रामूल्यरत्नभाण्डपूर्णेन निजशुद्धात्मभावनापोतेन
यौवनमहाहृदं ये तरन्ति त एव धन्यास्त एव सत्पुरुषा इति तात्पर्यम्
।।११७।।
किं बहुना विस्तरेण
२४८) मोक्खु जि साहिउ जिणवरहिँ छंडिवि बहु-विहु रज्जु
भिक्ख-भरोडा जीव तुहुँ करहि ण अप्पउ कज्जु ।।११८।।
मोक्षः एव साधितः जिनवरैः त्यक्त्वा बहुविधं राज्यम्
भिक्षाभोजन जीव त्वं करोषि न आत्मीयं कार्यम् ।।११८।।
मोक्खु जि इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते मोक्खु जि साहिउ मोक्षएव
भावार्थ :यहाँ विषयवांछारूप जो स्नेहजल उसके प्रवेशसे रहित जो सम्यग्दर्शन
ज्ञान चारित्ररूपी रत्नोंसे भरा निज शुद्धात्मभावनारूपी जहाज उससे यौवन अवस्थारूपी महान्
तालाबको तैर जाते हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, वे ही धन्य हैं, यह सारांश जानना, बहुत विस्तारसे
क्या लाभ है
।।११७।।
आगे मोक्षका कारण वैराग्यको दृढ़ करते हैं
गाथा११८
अन्वयार्थ :[जिनवरैः ] जिनेश्वरदेवने [बहुविधं ] अनेक प्रकारका [राज्यम् ]
राज्यका विभव [त्यक्त्वा ] छोड़कर [मोक्ष एव ] मोक्षको ही [साधितः ] साधन किया, परंतु
[जीव ] हे जीव, [भिक्षाभोजन ] भिक्षासे भोजन करनेवाला [त्वं ] तू [आत्मीयं कार्यम् ] अपने
आत्मा का कल्याण भी [न करोषि ] नहीं करता
भावार्थ :समस्त कर्ममलकलंकसे रहित जो आत्मा उसके स्वाभाविक ज्ञानादि

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414 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-118
bhāvārthajinavaradeve anekaprakāranā sāt aṅgavāḷā rājyavaibhavane chhoḍīne bhedā-
bhedaratnatrayanī bhāvanānā baḷathī samastakarmamaḷarūp kalaṅkano jemān sampūrṇapaṇe nāsh thayo chhe ane
ātmānī atyant svābhāvik-gnānādi guṇonā sthānabhūt je avasthāntar (sansār-avasthāthī bhinna
avasthā) mokṣha te sādhyo chhe, em jāṇīne bhikṣhāthī bhojan karanār he jīv! tun ātmīy kārya
kem karato nathī?
ahīn, ā vyākhyān jāṇīne bāhya ane abhyantar parigrahane tyāgīne ane vītarāg
nirvikalpa samādhimān sthit thaīne vishiṣhṭa tapashcharaṇ karavun, evo abhiprāy chhe. 118.
have, jinabhaṭṭārakanī jem he jīv! tun paṇ āṭh karmano nāsh karīne mokṣhe chālyo jā,
em sambodhan kare chheḥ
साधितः निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलङ्कस्यात्मनः आत्यन्तिकस्वाभाविकज्ञानादिगुणास्पदमवस्थान्तरं
मोक्षः स साधितः
कैः जिणवरहिं जिनवरैः किं कृत्वा छंडिवि त्यक्त्वा किम् बहु-विहु
रज्जु सप्ताङ्गंराज्यम् केन भेदाभेदरत्नत्रयभावनाबलेन एवं ज्ञात्वा भिक्ख-भरोडा जीव
भिक्षाभोजन हे जीव तुहुँ त्वं करहि ण अप्पउ कज्जु किं न करोषि आत्मीयं कार्यमिति अत्रेदं
व्याख्यानं ज्ञात्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं त्यक्त्वा वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा च विशिष्टतपश्चरणं
कर्तव्यमित्यभिप्रायः
।।११८।।
अथ हे जीव त्वमपि जिनभट्टारकवदष्टकर्मनिर्मूलनं कृत्वा मोक्षं गच्छेति संबोधयति
२४९) पावहि दुक्खु महंतु तुहँ जिय संसारि भमंतु
अट्ठ वि कम्मइँ णिद्दलिवि वच्चहि मुक्खु महंतु ।।११९।।
गुणोंका स्थान तथा संसार - अवस्थासे अन्य अवस्थाका होना, वह मोक्ष कहा जाता है, उसी
मोक्षको वीतरागदेवने राज्यविभूति छोड़कर सिद्ध किया राज्यके सात अंग हैं, राजा, मंत्री, सेना
वगैरः ये जहाँ पूर्ण हों, वह उत्कृष्ट राज्य कहलाता है, वह राज्य तीर्थंकरदेवका है, उसको
छोड़नेमें वे तीर्थंकर देरी नहीं करते लेकिन तू निर्धन होकर आत्म - कल्याण नहीं करता तू
मायाजालको छोड़कर महान् पुरुषोंकी तरह आत्मकार्य कर उन महान् पुरुषोंने
भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाके बलसे निजस्वरूपको जानकर विनाशीक राज्य छोड़ा, अविनाशी
राज्यके लिये उद्यमी हुए
यहाँ पर ऐसा व्याख्यान समझकर बाह्याभ्यंतर परिग्रहका त्याग करना,
तथा वीतरागनिर्विकल्पसमाधिमें ठहरकर दुर्धर तप करना यह सारांश हुआ ।।११८।।
आगे हे जीव, तू भी श्रीजिनराजकी तरह आठ कर्मोंका नाशकर मोक्षको जा, ऐसा
समझाते हैं

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adhikār-2ḥ dohā-119 ]paramātmaprakāshaḥ [ 415
bhāvārthahe jīv! nishchayathī sansārathī viparīt evo je shuddha ātmā tenāthī
vilakṣhaṇ evā, dravya, kṣhetra, kāḷ, bhav, bhāv e pāñch prakāranā bhedathī bhedavāḷā sansāramān
bhaṭakato, tun mahān duḥkhane pāme chhe, māṭe shuddha ātmānī prāptinā baḷathī āṭhey karmone nirmūḷ
karīne svātmopalabdhirūp mokṣhane
ke je kevaḷagnānādi mahāguṇothī yukta hovāthī mahān chhe
tenepām. kahyun paṇ chhe ke‘सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः’ (pūjyapādasvāmī siddhabhakti 1)
arthasvaātmānī upalabdhine mokṣha kahe chhe. 119.
have, joke tun jarāk jeṭalān duḥkhane sahan karavāne asamartha chho topaṇ karmone shā māṭe
प्राप्नोषि दुःखं महत् त्वं जीव संसारे भ्रमन्
अष्टापि कर्माणि निर्दल्य व्रज मोक्षं महान्तम् ।।११९।।
पावहि इत्यादि पावहि दुक्खु महंतु प्राप्नोषि दुःखं महद्रूपं तुहुं त्वं जिय हे जीव
किं कुर्वन् संसारि भमंतु निश्चयेन संसारविपरीतविशुद्धात्मविलक्षणं द्रव्यक्षेत्रकालभवभाव-
पञ्चभेदभिन्नं संसारं भ्रमन् तस्मात्किं कुरु अट्ठ वि कम्मइं णिद्दलिवि शुद्धात्मोप-
लम्भबलेनाष्टापि कर्माणि निर्मूल्य वच्चहि व्रज किम् मुक्खु स्वात्मोपलब्धिलक्षणं मोक्षम्
तथा चोक्त म्‘सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः’ कथंभूतं मोक्षम् महंतु केवलज्ञानादिमहागुण-
युक्त त्वान्महान्तमित्यभिप्रायः ।।११९।।
अथ यद्यप्यल्पमपि दुःखं सोढुमसमर्थस्तथापि कर्माणि किमिति करोषीति शिक्षां
प्रयच्छति
गाथा११९
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [त्वं ] तू [संसारे ] संसारवनमें [भ्रमन् ] भटकता
हुआ [महद् दुःखं ] महान् दुःख [प्राप्नोषि ] पावेगा, इसलिए [अष्टापि कर्माणि ] ज्ञानावरणादि
आठों ही कर्मोंको [निर्दल्य ] नाश कर, [महांतम् मोक्षं ] सबमें श्रेष्ठ मोक्षको [व्रज ] जा
भावार्थ :निश्चयकर संसारसे रहित जो शुद्धात्मा उससे जुदा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल,
भव, भावरूप पाँच तरहके परावर्तनस्वरूप संसार उसमें भटकता हुआ चारों गतियोंके दुःख
पावेगा, निगोद राशिमें अनंतकाल तक रुलेगा
इसलिए आठ कर्मोंका क्षय करके शुद्धात्माकी
प्राप्तिके बलसे रागादिकका नाश कर निर्वाणको जा कैसा है वह निर्वाण, जो निजस्वरूपकी
प्राप्ति वही जिसका स्वरूप है, और जो सबमें श्रेष्ठ है केवलज्ञानादि महान् गुणोंकर सहित है
जिसके समान दूसरा कोई नहीं ।।११९।।
आगे जो थोड़े दुःख भी सहनेको असमर्थ है, तो ऐसे काम क्यों करता है, कि जन्मोंसे

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416 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-120
kare chhe, em shikṣhā (shikhāmaṇ) āpe chheḥ
bhāvārthaahīn ā vyākhyān jāṇīne karmonā āshrayathī pratipakṣhabhūt rāgādi
vikalpothī rahit nijashuddhātmānī bhāvanā karavī. 120.
२५०) जिय अणु-मित्तु वि दुक्खडा सहण ण सक्कहि जोइ
चउ-गइ-दुक्खहँ कारणइँ कम्मइँ कुणहि किं तोइ ।।१२०।।
जीव अणुमात्राण्यपि दुःखानि सोढुं न शक्नोषि पश्य
चतुर्गतिदुःखानां कारणानि कर्माणि करोषि किं तथापि ।।१२०।।
जिय इत्यादि जिय हे मूढजीव अणु-मित्तवि अणुमात्राण्यपि कानि दुक्खडा
दुःखानि सहण ण सक्कहि सोढुं न शक्नोषि जोइ पश्य यद्यपि चउगइदुक्खहं कारणइ
परमात्मभावनोत्पन्नतात्त्विकवीतरागनित्यानन्दैकविलक्षणानां नारकादिदुःखानां कारणभूतानि कम्मइं
कुणहि किं कर्माणि करोषि किमर्थं तोइ यद्यपि दुःखानीष्टानि न भवन्ति तथापि इति
अत्रेदं
व्याख्यानं ज्ञात्वा कर्मास्रवप्रतिपक्षभूतरागादिविकल्परहिता निजशुद्धात्मभावना कर्तव्येति
तात्पर्यम्
।।१२०।।
अनंतकाल तक दुःख तू भोगे, ऐसी शिक्षा देते हैं
गाथा१२०
अन्वयार्थ :[जीव ] हे मूढ़जीव, तू [अणुमात्राण्यपि ] परमाणुमात्र (थोड़े) भी
[दुःखानि ] दुःख [सोढुं ] सहनेको [न शक्नोषि ] नहीं समर्थ है, [पश्य ] देख [तथापि ]
तो फि र [चतुर्गतिदुःखानां ] चार गतियोंके दुःखके [कारणानि कर्माणि ] कारण जो कर्म हैं,
[किं करोषि ] उनको क्यों करता है
?
भावार्थ :परमात्माकी भावनासे उत्पन्न तत्त्वरूप वीतराग नित्यानंद एक परम
स्वभाव उससे भिन्न जो नरकादिकके दुःख उनके कारण कर्म ही हैं जो दुःख तुझे
अच्छे नहीं लगते, दुःखोंको अनिष्ट जानता है, तो दुःखके कारण कर्मोंको क्यों उपार्जन
करता है ? मत कर
यहाँ पर ऐसा व्याख्यान जानकर कर्मोंके आस्रवसे रहित तथा
रागादि विकल्पजालोंसे रहित जो निज शुद्धात्माकी भावना वही करनी चाहिए, ऐसा
तात्पर्य जानना ।।१२०।।

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adhikār-2ḥ dohā-121 ]paramātmaprakāshaḥ [ 417
have, bāhya vyāsaṅgamān (bāhya dhāndhalamān, bahāranā vyāpāramān, bāhya parigrahamān) āsakta
jagat kṣhaṇamātra paṇ ātmāno vichār karatun nathī, em kahe chheḥ
bhāvārthamithyātva, viṣhay, kaṣhāyanā nimittathī utpanna ārtaraudra vyāsaṅgamān vyāsakta,
vishiṣhṭa bhedagnānathī rahit samasta jagat, shuddhātmabhāvanāthī parāṅmukh mūḍh prāṇīgaṇ-karmo karyā
ja kare chhe paṇ anantagnānādisvarūp mokṣhanun kāraṇ evā vītarāg param āhlādanā rasāsvādarūpe
अथ बहिर्व्यासंगासक्तं जगत् क्षणमप्यात्मानं न चिन्तयतीति प्रतिपादयति
२५१) धंधइ पडियउ सयलु जगु कम्मइँ करइ अयाणु
मोक्खहँ कारणु एक्कु खणु णवि चिंतइ अप्पाणु ।।१२१।।
धान्धे (?) पतितं सकलं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानि
मोक्षस्य कारणं एकं क्षणं नैव चिन्तयति आत्मानम् ।।१२१।।
धंधइ इत्यादि धंधइ धान्धे मिथ्यात्वविषयकषायनिमित्तोत्पन्ने दुर्ध्यानार्तरौद्रव्यासंगे
पडियउ पतितं व्यासक्त म् किम् सयलु जगु समस्तं जगत्, शुद्धात्मभावनापराङ्मुखो
मूढप्राणिगणः कम्मइं करइ कर्माणि करोति कथंभूतं जगत् अयाणु विशिष्ट भेदज्ञानरहितं
मोक्खहं कारणु अनन्तज्ञानादिस्वरूपमोक्षकारणं एक्कु खणु एकक्षणमपि णवि चिंतइ नैव
ध्यायति
कम् अप्पाणु वीतरागपरमाह्लादरसास्वादपरिणतं स्वशुद्धात्मानमिति भावार्थः ।।१२१।।
आगे बाहरके परिग्रहमें लीन हुए जगत्के प्राणी क्षणमात्र भी आत्माका चिंतवन नहीं
करते, ऐसा कहते हैं
गाथा१२१
अन्वयार्थ :[धांधे पतितं ] जगत्के धंधेमें पड़ा हुआ [सकलं जगत् ] सब जगत्
[अज्ञानि ] अज्ञानी हुआ [कर्माणि ] ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंको [करोति ] करता है, परन्तु
[मोक्षस्य कारणं ] मोक्षके कारण [आत्मानम् ] शुद्ध आत्माको [एकं क्षणं ] एक क्षण भी
[नैव चिंतयति ] नहीं चिन्तवन करता
भावार्थ :भेदविज्ञानसे रहित ये मूढ प्राणी शुद्धात्माकी भावनासे पराङ्मुख हैं,
इसलिए शुभाशुभ कर्मोंका ही बंध करता है, और अनंतज्ञानादिस्वरूप मोक्षका कारण जो
वीतराग परमानन्दरूप निजशुद्धात्मा उसका एकक्षण भी विचार नहीं करता
सदा ही आर्त रौद्र
ध्यान में लग रहा है, ऐसा सारांश है ।।१२१।।

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418 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-122
pariṇat shuddha ātmāne ek kṣhaṇ paṇ dhyāvatun nathī. 121.
have, te ja arthane draḍh kare chhe.
bhāvārtha‘mahān’ evā mokṣhasvarūp arthanun sādhak hovāthī nirvikalpa svasamvedanarūp
gnānane mahān kahevāy chhe. evun mahān gnān jyān sudhī nathī tyān sudhī bahirātmā nij
paramātmabhāvanāthī pratipakṣhabhūt strī, putromān mohit thaīne, nijaparamātmatattvanā dhyānathī
utpanna, ek (kevaḷ) vītarāg sadānandarūp nirākuḷatā lakṣhaṇavāḷā pāramārthik sukhathī vilakṣhaṇ
अथ तमेवार्थं द्रढयति
२५२) जोणि-लक्खइँ परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु
पुत्त-कलत्तहिँ मोहियउ जाव ण णाणु महंतु ।।१२२।।
योनिलक्षाणि परिभ्रमति आत्मा दुःखं सहमानः
पुत्रकलत्रेः मोहितः यावन्न ज्ञानं महत् ।।१२२।।
जोणि इत्यादि जोणि-लक्खइं परिभमइ चतुरशीतियोनिलक्षणानि परिभ्रमति कोऽसौ
अप्पा बहिरात्मा किं कुर्वन् दुक्खु सहंतु निजपरमात्मतत्त्वध्यानोत्पन्नवीतरागसदानन्दैक-
रूपव्याकुलत्वलक्षणपारमार्थिकसुखाद्विलक्षणं शारीरमानसदुःखं सहमानः कथंभूतः सन् पुत्त-
कलत्तहिं मोहियउ निजपरमात्मभावनाप्रतिपक्षभूतैः पुत्रकलत्रैः मोहितः किंपर्यन्तम् जाव ण
आगे उसी बातको दृढ़ करते हैं
गाथा१२२
अन्वयार्थ :[यावत् ] जब तक [महत् ज्ञानं न ] सबसे श्रेष्ठ ज्ञान नहीं है, तब तक
[आत्मा ] यह जीव [पुत्रकलत्रैः मोहितः ] पुत्र, स्त्री आदिकोंसे मोहित हुआ [दुःखं
सहमानः ] अनेक दुःखोंको सहता हुआ [योनिलक्षाणि ] चौरासी लाख योनियोंमें [परिभ्रमति ]
भटकता फि रता है
भावार्थ :यह जीव चौरासीलाख योनियोंमें अनेक तरहके ताप सहता हुआ भटक
रहा है, निज परमात्मतत्त्वके ध्यानसे उत्पन्न वीतराग परम आनंदरूप निर्व्याकुल अतीन्द्रिय सुखसे
विमुख जो शरीरके तथा मनके नाना तरहके सुख-दुःखोंको सहता हुआ भ्रमण करता है
निज
परमात्माकी भावनाके शत्रु जो देहसम्बन्धी माता, पिता, भ्राता, मित्र, पुत्रकलत्रादि उनसे मोहित
1 pāṭhāntar किंपर्यन्तम् = कियत्पर्यंतं

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adhikār-2ḥ dohā-123 ]paramātmaprakāshaḥ [ 419
evā shārīrik ane mānasik duḥkhone sahan karato thako, choryāshī lākh yoniomān paribhramaṇ
kare chhe tethī te mahān gnān ja nirantar bhāvavun, e abhiprāy chhe. 122.
have, he jīv! tun ghar, parivār ane sharīrādi upar mamatva na kar, em sambodhan kare
chheḥ
bhāvārthaghar, parijan, sharīr ane mitrādine potānān na jāṇ, kāraṇ ke teo
यावत्कालं न किम् णाणु ज्ञानम् किं विशिष्टम् महंतु महतो मोक्षलक्षणस्यार्थस्य
साधकत्वाद्वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं महदित्युच्यते तेन कारणेन तदेव निरन्तरं
भावनीयमित्यभिप्रायः ।।१२२।।
अथ हे जीव गृहपरिजनशरीरादिममत्वं मा कुर्विति संबोधयति
२५३) जीव म जाणहि अप्पणउँ घरु परियणु तणु इट्ठु
कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिँ दिट्ठु ।।१२३।।
जीव मा जानीहि आत्मीयं गृहं परिजनं तनुः इष्टम्
कर्मायत्तं कृत्रिमं आगमे योगिभिः द्रष्टम् ।।१२३।।
जीव इत्यादि जीव म जाणहि हे जीव मा जानीहि अप्पणउं आत्मीयम् किम्
घरु परियणु तणु इट्ठु गृहं परिजनं शरीरमिष्टमित्रादिकम् कथंभूतमेतत् कम्मायत्तउ
है, तब तक अज्ञानी है, वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानसे रहित है, वह ज्ञान मोक्षका साधन
है, ज्ञान ही से मोक्षकी सिद्धि होती है
इसलिये हमेशा ज्ञानकी ही भावना करनी
चाहिये ।।१२२।।
आगे हे जीव, तू घर, परिवार और शरीरादिका ममत्व मत कर, ऐसा समझाते हैं
गाथा१२३
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, तू [गृहं ] घर, [परिजनं ] परिवार, [तनुः ] शरीर
[इष्टम् ] और मित्रादिको [आत्मीयं ] अपने [मा जानीहि ] मत जान, क्योंकि [आगमे ]
परमागममें [योगिभिः ] योगियोंने [दृष्टम् ] ऐसा दिखलाया है, कि ये [कर्मायत्तं ] कर्मोंके
आधीन हैं, और [कृत्रिमं ] विनाशीक है
भावार्थ :ये घर वगैरह शुद्ध चेतनस्वभाव अमूर्तीक निज आत्मासे भिन्न जो शुभाशुभ
कर्म उसके उदयसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये कर्माधीन हैं, और विनश्वर होनेसे शुद्धात्मद्रव्यसे

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420 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-124
shuddhachetanasvabhāvavāḷā, amūrta paramātmāthī vilakṣhaṇ je karma chhe tenā udayathī rachāyelān hovāthī
karmādhīn chhe ane akr̥utrim-ṭaṅkotkīrṇa-gnāyak jeno ek svabhāv chhe evā shuddha ātmadravyathī
viparīt hovāthī kr̥utrim
vinashvar chhe, evun paramagnānasampanna divya yogīoe vītarāgasarvagnapraṇīt
paramāgamamān joyun chhe.
ahīn ā, adhruvapaṇānun vyākhyān jāṇīne dhruv evā svashuddhātmasvabhāvamān sthit thaīne
gr̥uhādi paradravyamān mamatva na karavun joie, evo bhāvārtha chhe. 123.
have, ghar-parivār ādinī chintāthī mokṣha maḷato nathī, em nakkī kare chheḥ
शुद्धचेतनास्वभावादमूर्तात्परमात्मनः सकाशाद्विलक्षणं यत्कर्म तदुदयेन निर्मितत्वात् कर्मायत्तम्
पुनरपि कथंभूतम् कारिमउ अकृत्रिमात् टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावात् शुद्धात्मद्रव्याद्विपरीत-
त्वात् कृत्रिमं विनश्वरम् इत्थंभूतं दिट्ठु द्रष्टम् कैः जोइहिं परमज्ञानसंपन्नदिव्ययोगिभिः
क्व द्रष्टम् आगमि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमे इति अत्रेदमध्रुवव्याख्यानं ज्ञात्वा ध्रुवे
स्वशुद्धात्मस्वभावे स्थित्वा गृहादिपरद्रव्ये ममत्वं न कर्तव्यमिति भावार्थः ।।१२३।।
अथ गृहपरिवारादिचिन्तया मोक्षो न लभ्यत इति निश्चिनोति
२५४) मुक्खु ण पावहि जीव तुहुँ घरु परियणु चिंतंतु
तो वरि चिंतहि तउ जि तउ पावहि मोक्खु महंत्तु ।।१२४।।
मोक्षं न प्राप्नोषि जीव त्वं गृहे परिजनं चिन्तयन्
ततः वरं चिन्तय तपः एव तपः प्राप्नोषि मोक्षं महान्तम् ।।१२४।।
विपरीत हैं शुद्धात्मद्रव्य किसीका बनाया हुआ नहीं है, इसलिये अकृत्रिम है, अनादिसिद्ध है,
टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव है जो टाँकीसे गढ़ा हुआ न हो बिना ही गढ़ी पुरुषाकार
अमूर्तीकमूर्ति है ऐसे आत्मस्वरूपसे ये देहादिक भिन्न हैं, ऐसा सर्वज्ञकथित परमागममें
परमज्ञानके धारी योगीश्वरोंने देखा है यहाँ पर पुत्र, मित्र, स्त्री, शरीर आदि सबको अनित्य
जानकर नित्यानंदरूप निज शुद्धात्म स्वभावमें ठहरकर गृहादिक परद्रव्यमें ममता नहीं
करना
।।१२३।।
आगे घर परिवारादिककी चिंतासे मोक्ष नहीं मिलती, ऐसा निश्चय करते हैं
गाथा१२४
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [त्वं ] तू [गृहं परिजनं ] घर, परिवार वगैरहकी

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adhikār-2ḥ dohā-124 ]paramātmaprakāshaḥ [ 421
bhāvārthaghar, parivār ādi paradravyane chintavato thako tun karmamaḷarūpī kalaṅkarahit
kevaḷagnānādi anant guṇ sahit mokṣhane pāmīsh nahi. mātra mokṣhane ja pāmīsh nahi eṭalun ja
nahi paṇ nishchayavyavahāraratnatrayātmak mokṣhamārgane paṇ pāmīsh nahi. tethī tun tapashcharaṇanun ja
vāramvār visheṣh chintavan kar paṇ bījā koīnun nahi. tapashcharaṇanā chintavanathī shun phaḷ thāy chhe?
tīrthaṅkar param devādhidev ādi mahān puruṣhoe āshray karyo hovāthī je mahān chhe, evā pūrvokta
lakṣhaṇavāḷā mokṣhane tun pāmīsh.
ahīn, bāhya dravyonī ichchhānā nirodh vaḍe vītarāg tāttvik ānandamay paramātmarūp
nirvikalpa samādhimān sthit thaīne ane gr̥uhādinā mamatvane chhoḍīne bhāvanā karavī joie, evun
tātparya chhe. 124.
मुक्खु इत्यादि मुक्खु कर्ममलकलङ्करहितंकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहितं मोक्षं ण पावहि
प्राप्नोषि न केवलं मोक्षं निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मकं मोक्षमार्गं च जीव हे मूढ जीव तुहुँ त्वम्
किं कुर्वन् सन् घरु परियणु चिंतंतु गृहपरिवारादिकं परद्रव्यं चिन्तयन् सन् तो ततः कारणात्
वरि वरं किंतु चिंतहि चिन्तय ध्याय किम् तउ जि तउ तपस्तप एव विचिन्तय नान्यत्
तपश्चरणचिन्तनात् किं फलं भवति पावहि प्राप्नोषि कम् मोक्खु पूर्वोक्त लक्षणं मोक्षम्
कथंभूतं महंतु तीर्थंकरपरमदेवादिमहापुरुषैराश्रितत्वान्महान्तमिति अत्र बहिर्द्रव्येच्छानिरोधेन
वीतरागतात्त्विकानन्दपरमात्मरूपे निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा गृहादि ममत्वं त्यक्त्वा च भावना
कर्तव्येति तात्पर्यम्
।।१२४।।
[चिन्तयन् ] चिंता करता हुआ [मोक्षं ] मोक्ष [न प्राप्नोषि ] कभी नहीं पा सकता, [ततः ]
इसलिये [वरं ] उत्तम [तपः एव तपः ] तपका ही बारम्बार [चिंतय ] चिंतवन कर, क्योंकि
तप से ही [महांतम् मोक्षं ] श्रेष्ठ मोक्ष सुखको [प्राप्नोषि ] पा सकेगा
भावार्थ :तू गृहादि परवस्तुओंको चिंतवन करता हुआ कर्म - कलंक रहित
केवलज्ञानादि अनंतगुण सहित मोक्षको नहीं पावेगा, और मोक्षका मार्ग जो निश्चयव्यवहार
रत्नत्रय उसको भी नहींपावेगा इन गृहादिके चिंतवनसे भववनमें भ्रमण करेगा इसलिये
इनका चिंतवन तो मत कर, लेकिन बारह प्रकारके तपका चिन्तवन कर इसीसे मोक्ष पायेगा
वह मोक्ष तीर्थंकर परमदेवाधिदेव महापुरुषोंसे आश्रित है, इसलिये सबसे उत्कृष्ट है मोक्षके
समान अन्य पदार्थ नहीं यहाँ परद्रव्यकी इच्छाको रोककर वीतराग परम आनन्दरूप जो
परमात्मस्वरूप उसके ध्यानमें ठहरकर घर परिवारादिकका ममत्व छोड़, एक केवल
निजस्वरूपकी भावना करना, यह तात्पर्य है
आत्म - भावनाके सिवाय अन्य कुछ भी करने
योग्य नहीं है ।।१२४।।

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422 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-125
have, jīvahinsāno doṣh darshāve chheḥ
bhāvārtharāgādi vikalpa rahit svasvabhāvasvarūp shuddha chaitanyaprāṇanī nishchayathī
abhyantaramān hinsā karīne ane bahāramān hinsā-vikalpathī anek lākho jīvonī hinsā karīne, strī,
putranā mamatvanā nimittathī utpanna, dekhelā, sāmbhaḷelā ane anubhavelā bhogonī ākāṅkṣhāsvarūp
tīkṣhṇa shastrathī he jīv! je tun pāp karīsh te pāpanun phaḷ narakādi gatimān tāre ekalāne ja
bhogavavun paḍashe.
ahīn, rāgādinā abhāvane nishchayathī ahinsā kahī chhe. shā māṭe? (kāraṇ ke)
nishchay shuddha chaitanya prāṇanā rakṣhaṇanun kāraṇ chhe. rāgādinī utpatti nishchayahinsā chhe te paṇ
अथ जीवहिंसादोषं दर्शयति
२५५) मारिवि जीवहँ लक्खडा जं जिय पाउ करीसि
पुत्त-कलत्तहँ कारणइँ तं तुहुँ एक्कु सहीसि ।।१२५।।
मारयित्वा जीवानां लक्षाणि यत् जीव पापं करिष्यसि
पुत्रकलत्राणां कारणेन तत् त्वं एकः सहिष्यसे ।।१२५।।
मारिवि इत्यादि मारिवि जीवहं लक्खडा रागादिविकल्परहितस्य स्वस्वभावनालक्षणस्य
शुद्धचैतन्यप्राणस्य निश्चयेनाभ्यन्तरं वधं कृत्वा बहिर्भागे चानेकजीवलक्षाणाम् केन
हिंसोपकरणेन पुत्तकलत्तहं कारणइं पुत्रकलत्रममत्वनिमित्तोत्पन्नद्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षास्वरूप-
तीक्ष्णशस्त्रेण जं जिय पाउ करीसि हे जीव यत्पापं करिष्यति तं तुहुँ एक्कु सहीसि तत्पापफलं
आगे जीवहिंसाका दोष दिखलाते हैं
गाथा१२५
अन्वयार्थ :[जीवानां लक्षाणि ] लाखों जीवोंको [मारयित्वा ] मारकर [जीव ] हे
जीव, [यत् ] जो तू [पापं करिष्यसि ] पाप करता है, [पुत्रकलत्राणां ] पुत्र, स्त्री वगैरहके
[कारणेन ] कारण [तत् त्वं ] उसके फलको तू [एक ] अकेला [सहिष्यसे ] सहेगा
भावार्थ :हे जीव, तू पुत्रादि कुटुम्बके लिये हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील,
परिग्रहादि अनेक प्रकारके पाप करता है, तथा अंतरंगमें रागादि विकल्प रहित ज्ञानादि
शुद्धचैतन्य प्राणोंका घात करता है, अपने प्राण रागादिक मैलसे मैले करता है, और
बाह्यमें अनेक जीवोंकी हिंसा करके अशुभ कर्मोंको उपार्जन करता है, उनका फल तू

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adhikār-2ḥ dohā-125 ]paramātmaprakāshaḥ [ 423
shā māṭe? kāraṇ ke nishchayashuddha prāṇanī hinsānun kāraṇ chhe, em jāṇīne rāgādipariṇāmarūp
nishchayahinsā chhoḍavī evo bhāvārtha chhe. vaḷī nishchayahinsānun svarūp paṇ (shrī jay dhaval
bhā-1 pānā 102mān) kahyun chhe ke
‘‘रागादीणमणुप्पा अहिंसकतं त्ति देसियं समए तेसिं चे
उप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिद्दिट्ठा’’ ।।४२।। (artharāgādinī anutpatti ja (rāgādinī utpatti
na thavī te ja) ahinsakatā chhe em jināgamamān upadesh āpyo chhe tathā rāgādinī utpatti
te ja hinsā chhe, em jineshvaradeve nirdesh karyo chhe. 125.
त्वं कर्ता नरकादिगतिष्वेकाकी सन् सहिष्यसे हि अत्र रागाद्यभावो निश्चयेनाहिंसा भण्यते
कस्मात् निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणस्य रक्षाकारणत्वात्, रागाद्युत्पत्तिस्तु निश्चयहिंसा तदपि कस्मात्
निश्चयशुद्धप्राणस्य हिंसाकारणत्वात् इति ज्ञात्वा रागादिपरिणामरूपा निश्चयहिंसा त्याज्येति
भावार्थः तथा चोक्तं निश्चयहिंसालक्षणम्‘‘रागादीणमणुप्पा अहिंसकतं त्ति देसियं समए
तेसिं चे उप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिद्दिट्ठा ।।’’ ।।१२५।।
नरकादि गतिमें अकेला सहेगा कुटुम्बके लोग कोई भी तेरे दुःखके बटानेवाले नहीं हैं,
तू ही सहेगा श्रीजिनशासनमें हिंसा दो तरहकी है एक आत्मघात, दूसरी परघात
उनमेंसे जो मिथ्यात्व रागादिकके निमित्तसे देखे, सुने, भोगे हुए भोगोंकी वाँछारूप जो
तीक्ष्ण शस्त्र उससे अपने ज्ञानादि प्राणोंको हनना, वह निश्चयहिंसा है, रागादिककी उत्पत्ति
वह निश्चय हिंसा है
क्योंकि इन विभावोंसे निज भाव घाते जाते हैं ऐसा जानकर
रागादि परिणामरूप निश्चयहिंसा त्यागना वही निश्चयहिंसा आत्मघात है और प्रमादके
योगसे अविवेकी होकर एकेंद्री, दोइंद्री, तेइंद्री, चौइंद्री, पंचेंद्री जीवोंका घात करना वह
परघात है
जब इसने परजीवका घात विचारा, तब इसके परिणाम मलिन हुए, और
भावोंकी मलिनता ही निश्चयहिंसा है, इसलिये परघातरूप हिंसा आत्मघातका कारण है
जो हिंसक जीव है, वह परजीवोंका घातकर अपना घात करता है यह स्वदया परदयाका
स्वरूप जानकर हिंसा सर्वथा त्यागना हिंसाके समान अन्य पाप नहीं है निश्चयहिंसाका
स्वरूप सिद्धांतमें दूसरी जगह ऐसा कहा हैजो रागादिकका अभाव वही शास्त्रमें अहिंसा
कही है, और रागादिककी उत्पत्ति वही हिंसा है, ऐसा कथन जिनशासनमें जिनेश्वरदेवने
दिखलाया है
अर्थात् जो रागादिकका अभाव वह स्वदया और जो प्रमादरहित विवेकरूप
करुणाभाव वह परदया है यह स्वदया-परदया धर्मका मूलकारण है जो पापी हिंसक
होगा उसके परिणाम निर्मल नहीं हो सकते, ऐसा निश्चय है, परजीव घात तो
उसकी आयुके अनुसार है, परंतु इसने जब परघात विचारा, तब आत्मघाती हो
चुका
।।१२५।।

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424 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-126
have, te ja hinsānā doṣhane draḍh kare chheḥ
bhāvārthabahāramān anya jīvone mārīne arthāt prāṇīonā prāṇano viyog
karīne, anya jīvone chūrīne arthāt hāth, pag vagereno ek deshano chhed karavārūpe jīrṇa
karīne ane nishchayanayathī abhyantaramān mithyātva, rāgādirūp tīkṣhṇa shastrathī shuddhātmaanubhūtirūp
potānā nishchayaprāṇone chūrīne te pūrvokta sva-par jīvomān tun je duḥkh āpe chhe, te duḥkhanī
apekṣhāe anantagaṇun duḥkh he mūḍh jīv! tun avashya pāmīsh.
अथ तमेव हिंसादोषं द्रढयति
२५६) मारिवि चूरिवि जीवडा जं तुहुँ दुक्खु करीसि
तं तह पासि अणंत-गुणु अवसइँ जीव लहीसि ।।१२६।।
मारयित्वा चूर्णयित्वा जीवान् यत् त्वं दुःखं करिष्यसि
तत्तदपेक्षया अनन्तगुणं अवश्यमेव जीव लभसे ।।१२६।।
मारिवि इत्यादि मारिवि बहिर्विषये अन्यजीवान् प्राणीप्राणवियोगलक्षणेन मारयित्वा
चूरिवि हस्तपादाद्येकदेशच्छेदरूपेण चूरयित्वा कान् जीवडा जीवान् निश्चयेनाभ्यन्तरे तु
मिथ्यात्वरागादिरूपतीक्ष्णशस्त्रेण शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयप्राणांश्च जं तुहुँ दुक्खु करीसि यद्दुःखं
त्वं कर्ता करिष्यसि तेषु पूर्वोक्त स्वपरजीवेषु
तं तह पासि अणंतगुणु तद्दुःखं तदपेक्षया
अनन्तगुणं
अवसइं अवश्यमेव जीव हे मूढजीव लहीसि प्राप्नोतीति
अत्रायं जीवो
आगे उसी हिंसाके दोषको फि र निंदते हैं, और दयाधर्मको दृढ़ करते हैं
गाथा१२६
अन्वयार्थ :[जीव ] हे जीव, [यत् त्वं ] जो तू [जीवान् ] परजीवोंको [मारयित्वा ]
मारकर, [चूरयित्वा ] चूरकर [दुःखं करिष्यसि ] दुःखी करता है, [तत् ] उसका फल
[तदपेक्षया ] उसकी अपेक्षा [अनंतगुणं ] अनंतगुणा [अवश्यमेव ] निश्चयसे [लभसे ] पावेगा
भावार्थ :निर्दयी होकर अन्य जीवोंके प्राण हरना, परजीवोंका शस्त्रादिकसे घात
करना, वह मारना है, और हाथ-पैर आदिसे, तथा लाठी आदिसे परजीवोंका काटना, एकदेश
मारना वह चूरना है, यह हिंसा ही महा पापका मूल है
निश्चयनयसे अभ्यन्तरमें मिथ्यात्व
रागादिरूप तीक्ष्ण शस्त्रोंसे शुद्धात्मानुभूतिरूप अपने निश्चय प्राणोंको हत रहा है, क्लेशरूप
करता है, उसका फल अनंत दुःख अवश्य सहेगा
इसलिए हे मूढ़ जीव, परजीवोंको मत मार,

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adhikār-2ḥ dohā-126 ]paramātmaprakāshaḥ [ 425
ahīn ā jīv mithyātva, rāgādimān pariṇamīne pratham to pote ja potānā shuddha
ātma prāṇone haṇe chhe, pachhī bhale bahāramān anya jīvono ghāt thāy ke na thāy, (teno)
koī niyam nathī. jem bījāno ghāt karavā māṭe (tenā taraph pheṅkavā māṭe) tapta lokhaṇḍanā
goḷāne jhālavā jatān pratham to potāno ja hāth dājhe chhe, evo bhāvārtha chhe.
kahyun paṇ chhe keḥ1‘‘स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान् पूर्वं प्राण्यन्तराणां तु
पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ।।’’ (arthapramādathī yukta (kaṣhāyavān) ātmā pratham to pote
ja potāthī potānī hinsā kare chhe, pachhī anya prāṇīono ghāt thāy ke na thāy,’’) (par
jīvanī āyu bākī rahī hoy to te mārī shakāto nathī paṇ āṇe māravānā bhāv karyā
māṭe te niḥsandeh hinsak banī chūkyo ane jyāre hinsāno bhāv thayo tyāre te kaṣhāyavān
thayo. kaṣhāyavān thavun te ja ātmaghāt chhe.) ।।126.
have, jīvanī hinsā karavāthī narakagati thāy chhe ane jīvanun rakṣhaṇ karavāthī svarga thāy
मिथ्यात्वरागादिपरिणतः पूर्वं स्वयमेव निजशुद्धात्मप्राणं हिनस्ति बहिर्विषये अन्यजीवानां
प्राणघातो भवतु मा भवतु नियमो नास्ति
परघातार्थं तप्तायःपिण्डग्रहणेन स्वहस्तदाहवत् इति
भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान् पूर्वं प्राण्यन्तराणां
तु पश्चात्स्याद्वा न वा वधः ।।’’ ।।१२६।।
अथ जीववधेन नरकगतिस्तद्रक्षणे स्वर्गो भवतीति निश्चिनोति
और मत चूर, तथा अपने भाव हिंसारूप मत कर, उज्ज्वल भाव रख, जो तू जीवोंको दुःख
देगा, तो निश्चयसे अनंतगुणा दुःख पावेगा
यहाँ सारांश यह हैजो यह जीव मिथ्यात्व
रागादिरूप परिणत हुआ पहले तो अपने भावप्राणोंका नाश करता है, परजीवका घात तो हो
या न हो, परजीवका घात तो उसकी आयु पूर्ण हो गई हो, तब होता है, अन्यथा नहीं; परंतु
इसने जब परका घात विचारा, तब यह आत्मघाती हो चुका
जैसे गरम लोहेका गोला पकड़नेसे
अपने हाथ तो निस्संदेह जल जाते हैं इससे यह निश्चय हुआ, कि जो परजीवों पर खोटे भाव
करता है, वह आत्मघाती है ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जो आत्मा कषायवाला है,
निर्दयी है, वह पहले तो आप ही अपने से अपना घात करता है, इसलिये आत्मघाती है, पीछे
परजीवका घात होवे, या न होवे
जीवको आयु बाकी रही हो, तो यह नहीं मार सकता, परंतु
इसने मारनेके भाव किये, इस कारण निस्संदेह हिंसक हो चुका, और जब हिंसाके भाव हुए,
तब यह कषायवान् हुआ
कषायवान् होना ही आत्मघात है ।।१२६।।
आगे जीवहिंसाका फल नरकगति है, और रक्षा करनेसे स्वर्ग होता है, ऐसा
निश्चय करते हैं
1 shrī sarvārthasiddhi a-7 gāthā 13nī ṭīkāmān ā gāthā chhe.

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426 ]
yogīndudevavirachitaḥ
[ adhikār-2ḥ dohā-127
chhe, em nakkī kare chhe.
bhāvārthanishchayanayathī potānā jīvano mithyātva, viṣhay, kaṣhāyanā pariṇāmarūp ghāt
ane vyavahāranayathī anya jīvono pāñch indriy, traṇabaḷ, āyu ane shvāsochchhvāsanā vināsharūp
ghāt karanārane narakagati thāy chhe.
nishchayathī potānā jīvane vītarāganirvikalpasvasamvedan-pariṇāmarūp abhayadān devāthī ane
vyavahārathī parajīvonā prāṇonī rakṣhārūp abhayadān karanārane svarga thāy chhe, eṭale ke potāne
(vītarāganirvikalpasvasamvedanapariṇāmarūp abhayadān devāthī) mokṣha ane parajīvonā prāṇonī
rakṣhārūp abhayadān devāthī svarga thāy chhe. e rīte banne panth tārī āgaḷ darshāvyā chhe. he jīv!
jyān ruche tyān lāgī jā.
२५७) जीव वहंतहँ णरय-गइ अभय-पदाणेँ सग्गु
बे पह जवला दरिसिया जहिँ रुच्चइ तहिँ लग्गु ।।१२७।।
जीवं घ्नतां नरकगतिः अभयप्रदानेन स्वर्गः
द्वौ पन्थान समीपौ दर्शितौ यत्र रोचते तत्र लग्न ।।१२७।।
जीव वहंतहं इत्यादि जीव वहंतहं निश्चयेन मिथ्यात्वविषयकषायपरिणामरूपं वधं
स्वकीयजीवस्य व्यवहारेणेन्द्रियबलायुःप्राणापानविनाशरूपमन्यजीवानां च वधं कुर्वतां णरय-गइ
नरकगतिर्भवति अभय-पदाणें निश्चयेन वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनपरिणामरूपमभयप्रदानं
स्वकीयजीवस्य व्यवहारेण प्राणरक्षारूपमभयप्रदानं परजीवानां च कुर्वतां
सग्गु स्वस्याभयप्रदानेन
मोक्षो भवत्यन्यजीवानामभयप्रदानेन स्वर्गश्चेति
बे पह जवला दरिसिया एवं द्वौ पन्थानां
गाथा१२७
अन्वयार्थ :[जीवं घ्नतां ] जीवोंको मारनेवालोंकी [नरकगतिः ] नरकगति होती
है, [अभयप्रदानेन ] अभयदान देनेसे [स्वर्गः ] स्वर्ग होता है, [द्वौ पन्थानौ ] ये दोनों मार्ग
[समीपे ] अपने पास [दर्शितौ ] दिखलाये हैं, [यत्र ] जिसमें [रोचते ] तेरी रुचि हो, [तत्र ]
उसीमें [लग्न ] तू लग जा
भावार्थ :निश्चयकर मिथ्यात्व विषय कषाय परिणामरूप निजघात और
व्यवहारनयकर परजीवोंके इंद्री, बल, आयु, श्वासोच्छ्वासरूप प्राणोंका विनाश, उसरूप
परप्राणघात, सो प्राणघातियोंके नरकगति होती है
हिंसक जीव नरक ही के पात्र हैं
निश्चयनयकर वीतरागनिर्विकल्प स्वसंवेदन परिणामरूप जो निजभावोंका अभयदान निज
जीवकी रक्षा और व्यवहारनयकर परप्राणियोंके प्राणोंकी रक्षारूप अभयदान यह स्वदया