Parmatma Prakash (Gujarati Hindi). Gatha: 193 (Adhikar 2).

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અધિકાર-૨ઃ દોહા-૧૯૩ ]પરમાત્મપ્રકાશઃ [ ૫૨૩
ध्यानं कर्तव्यमिति भावार्थः तथा चोक्त म्‘‘वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं वशचित्तता
जितपरिषहत्वं च पञ्चैते ध्यानहेतवः ।।’’ ।।१९२।।
अथ
३२४) परम-समाहि धरेवि मुणि जे परबंभु ण जंति
ते भव-दुक्खइँ बहुविहइँ कालु अणंतु सहंति ।।१९३।।
परमसमाधिं धृत्वापि मुनयः ये परब्रह्म न यान्ति
ते भवदुःखानि बहुविधानि कालं अनन्तं सहन्ते ।।१९३।।
जे ये केचन मुणि मुनयः ण जंति न गच्छन्ति कं कर्मतापन्नम् परबंभु परमब्रह्म
ભાવીને ધ્યાન કરવું. વળી કહ્યું છે કેઃ‘‘वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रंथ्यं वशचित्तता जितपरिषहत्वं च पञ्चैते
ध्यानहेतवः ।। (અર્થ(૧) વૈરાગ્ય, (૨) તત્ત્વવિજ્ઞાન, (૩) નૈર્ગ્રંથ્ય, (૪) ચિત્તનું વશપણું અને
(૫) પરિષહજય એ પાંચ ધ્યાનના હેતુઓ છે.) ૧૯૨.
વળી (હવે પરમસમાધિનો મહિમા કહે છે)ઃ
ભાવાર્થઃજે કોઈ મુનિઓ એક વીતરાગ તાત્ત્વિક ચિદાનંદમય અનુભૂતિરૂપ
जिसका ऐसे जो मनका वश होना, वह वीतराग निर्विकल्पसमाधिका सहकारी है, और बाईस
परीषहोंको जीतना, वह भी ध्यानका कारण है
ये पाँच ध्यानके कारण जानकर ध्यान करना
चाहिये ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि संसार शरीरभोगोंसे विरक्तता, तत्त्वविज्ञान, सकल
परिग्रहका त्याग, मनका वश करना, और बाईस परिषहोंका जीतनाये पाँच आत्मध्यानके
कारण हैं ।।१९२।।
आगे परमसमाधिकी महिमा कहते हैं
गाथा१९३
अन्वयार्थ :[ये मुनयः ] जो कोई मुनि [परमसमाधिं ] परमसमाधिको [धृत्वापि ]
धारण करके भी [परब्रह्म ] निज देहमें ठहरे हुए केवलज्ञानादि अनंतगुणरूप निज आत्माको
[न यांति ] नहीं जानते हैं, [ते ] वे शुद्धात्मभावनासे रहित पुरुष [बहुविधानि ] अनेक प्रकारके
[भवदुःखानि ] नारकादि भवदुःख आधि व्याधिरूप [अनंतं कालं ] अनंतकालतक [सहंते ]
भोगते हैं
भावार्थ :मनके दुःखको आधि कहते हैं, और तनुसंबंधी दुःखोंको व्याधि कहते