Parmatma Prakash (Gujarati Hindi) (Bengali transliteration).

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Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৩৬৬ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-৮৯
जिह्वालाम्पटयेनौषधेनापि अजीर्णं करोत्यज्ञानी इति, न च ज्ञानीति, तथा कोऽपि तपोधनो
विनीतवनितादिकं मोहभयेन त्यक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा च शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजशुद्धात्मतत्त्व-
सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनीरोगत्वप्रतिपक्षभूतमजीर्णरोगस्थानीयं मोहमुत्पाद्यात्मनः
किं कृत्वा
किमप्यौषधस्थानीयमुपकरणादिकं गृहीत्वा कोऽसावज्ञानी न तु ज्ञानीति इदमत्र तात्पर्यम्
परमोपेक्षासंयमधरेण शुद्धात्मानुभूतिप्रतिपक्षभूतः सर्वोऽपि तावत्परिग्रहस्त्याज्यः परमोपेक्षासंयमा-
भावे तु वीतरागशुद्धात्मानुभूतिभावसंयमरक्षणार्थं विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपः-
पर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयमशौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि
ঔষধ লঈনে) ঔষধথী-জ অজীর্ণ করে ছে তে অজ্ঞানী ছে. তেবী রীতে কোঈ তপোধন বিনীত, বনিতা
বগেরেনে (অজীর্ণরোগস্থানীয) মোহনা ভযথী ছোডীনে অনে জিনদীক্ষা গ্রহীনে কাংঈ পণ
ঔষধস্থানীয উপকরণাদিনে গ্রহীনে শুদ্ধ-বুদ্ধ জ জেনো এক স্বভাব ছে এবা নিজশুদ্ধাত্মতত্ত্বনাং
সম্যক্ শ্রদ্ধান, সম্যক্ জ্ঞান অনে সম্যগ্ অনুষ্ঠানরূপ নিরোগপণানা প্রতিপক্ষভূত
অজীর্ণরোগস্থানীয (অজীর্ণ রোগ সমান) পোতানে মোহ উপজাবে ছে. পণ জ্ঞানী তেবো নথী.
অহীং, এ তাত্পর্য ছে কে পরমোপেক্ষাসংযমধারীএ শুদ্ধাত্মানুভূতিথী প্রতিপক্ষভূত বধোয
পরিগ্রহ ছোডবা যোগ্য ছে অনে পরমোপেক্ষাসংযমনা অভাবমাং বীতরাগ শুদ্ধাত্মানুভূতিরূপ
ভাবসংযমনা রক্ষণার্থে বিশিষ্ট সংহননাদি শক্তিনো অভাব হোতাং, জো কে তপনুং সাধন জে শরীর
তেনা রক্ষানা সহকারীভূত অন্ন, জল, সংযম, শৌচ, জ্ঞাননা উপকরণো কমংডল, পীংছী অনে শাস্ত্রো
पतिव्रता स्त्री आदिको मोहके डरसे छोड़कर जिनदीक्षा लेके अजीर्ण समान मोहके दूर करनेके
लिये वैराग्य धारण करके औषधि समान जो उपकरणादि उनको ही ग्रहण करके उन्हींका
अनुरागी (प्रेमी) होता है, उनकी बुद्धिसे सुख मानता है, वह औषधिका ही अजीर्ण करता है
मात्राप्रमाण औषधि लेवे, तो वह रोगको हर सके यदि औषधिका ही अजीर्ण करेमात्रासे
अधिक लेवे, तो रोग नहीं जाता, उलटी रोगकी वृद्धि ही होती है यह निःसंदेह जानना इससे
यह निश्चय हुआ जो परमोपेक्षासंयम अर्थात् निर्विकल्प परमसमाधिरूप तीन गुप्तिमयी परम
शुद्धोपयोगरूप संयमके धारक हैं, उनके शुद्धात्माकी अनुभूतिसे विपरीत सब ही परिग्रह त्यागने
योग्य है
शुद्धोपयोगी मुनियोंके कुछ भी परिग्रह नहीं है, और जिनके परमोपेक्षा संयम नहीं
लेकिन व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी रक्षणार्थ व्यवहार संयम है, उनके भावसंयमकी
रक्षाके निमित्त हीन संहननके होनेपर उत्कृष्ट शक्तिके अभावसे यद्यपि तपका साधन शरीरकी
रक्षाके निमित्त अन्न जलका ग्रहण होता है, उस अन्न जलके लेनेसे मल
मूत्रादिकी बाधा भी
होती है, इसलिये शौचका उपकरण कमंडलु, और संयमोपकरण पीछी, और ज्ञानोपकरण
पुस्तक इनको ग्रहण करते हैं, तो भी इनमें ममता नहीं है, प्रयोजनमात्र प्रथम अवस्थामें धारते