Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১২৭ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪২৭
আবুং কথন সাংভলীনে কোঈ অজ্ঞানী পূছে ছে কে প্রাণ জীবথী অভিন্ন ছে কে ভিন্ন
ছে? জো অভিন্ন হোয তো জেম জীবনো বিনাশ নথী তেম প্রাণনো পণ বিনাশ ন থায.
(অনে প্রাণনো বিনাশ ন থবাথী হিংসা বনী শকে নহি). হবে জো প্রাণ (জীবথী) ভিন্ন
হোয তো প্রাণনো বধ থতাং পণ, জীবনো বধ থশে নহি (অনে তেম থবাথী হিংসা বনী শকে
নহি). এ রীতে আ বেমাংথী কোঈ পণ প্রকারে জীবনী হিংসা জ নথী তো পছী জীবহিংসামাং
পাপবংধ কেবী রীতে থায?
তেনুং সমাধান : — প্রাণ জীবথী কথংচিত্ ভিন্ন অনে কথংচিত্ অভিন্ন ছে. তে আ
প্রমাণে : — পোতানো প্রাণ হণাতাং, পোতানে দুঃখ থায ছে এম জোবামাং আবে ছে তেথী (এ
অপেক্ষাএ) ব্যবহারনযথী দেহ অনে আত্মা অভেদ ছে অনে তে জ দুঃখোত্পত্তিনে হিংসা
কহেবামাং আবে ছে অনে তেথী পাপনো বংধ থায ছে. বলী, জো একাংতে দেহ অনে আত্মানো
কেবল ভেদ জ মানবামাং আবে তো জেবী রীতে পরনা দেহনো ঘাত থতাং পণ দুঃখ ন থায
समीपे दर्शितौ । जहिं रुच्चइ तहिं लग्गु हे जीव यत्र रोचते तत्र लग्न भव त्वमिति ।
कश्चिदज्ञानी प्राह । प्राणा जीवादभिन्ना भिन्नावा, यद्यभिन्नाः तर्हि जीववत्प्राणानां विनाशो
नास्ति, अथ भिन्नास्तर्हि प्राणवधेऽपि जीवस्य वधो नास्त्यनेन प्रकारेण जीवहिंसैव नास्ति कथं
जीववधे पापबन्धो भविष्यतीति । परिहारमाह । कथंचिद्- भेदाभेदः । तथाहि — स्वकीयप्राणे हृते
सति दुःखोत्पत्तिदर्शनाद्वयवहारेणाभेदः सैव दुःखोत्पत्तिस्तु हिंसा भण्यते ततश्च पापबन्धः ।
यदि पुनरेकान्तेन देहात्मनोर्भेद एव तर्हि यथा परकीयदेहघाते दुःखं न भवति तथा
स्वदेहघातेऽपि दुःखं न स्यान्न च तथा । निश्चयेन पुनर्जीवे गतेऽपि देहो न गच्छतीति हेतोर्भेद
परदयास्वरूप अभयदान है, उसके करनेवालोंको स्वर्ग मोक्ष होता है, इसमें संदेह नहीं है ।
इनमें से जो अच्छा मालूम पड़े उसे करो । ऐसी श्रीगुरुने आज्ञा की । ऐसा कथन सुनकर
कोई अज्ञानी जीव तर्क करता है, कि जो ये प्राण जीवसे जुदे हैं, कि नहीं ? यदि जीवसे
जुदे नहीं हैं, तो जैसे जीवका नाश नहीं है, वैसे प्राणोंका भी नाश नहीं हो सकता ? अगर
जुदे हैं, अर्थात् जीवसे सर्वथा भिन्न हैं, तो इन प्राणोंका नाश नहीं हो सकता । इसप्रकारसे
जीवहिंसा है ही नहीं, तुम जीवहिंसामें पाप क्यों मानते हो ? इसका समाधान — जो ये
इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छ्वास और प्राण जीवसे किसी नयकर अभिन्न हैं, भिन्न नहीं
हैं, किसी नयसे भिन्न हैं । ये दोनों नय प्रामाणिक हैं । अब अभेद कहते हैं, सो सुनो ।
अपने प्राणोंका घात होने पर जो व्यवहारनयकर दुःखकी उत्पत्ति वह हिंसा है, उसीसे पापका
बंध होता है । और जो इन प्राणोंको सर्वथा जुदे ही मानें, देह और आत्माका सर्वथा भेद
ही जानें, तो जैसे परके शरीरका घात होने पर दुःख नहीं होता है, वैसे अपने देहके घातमें