Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৪১ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৫১
পারমার্থিক সুখনা অনুভবথী রহিতপণে বিষযাসক্ত থঈনে কেটলো কাল গালীশ?-বহির্মুখভাবে
কেটলো কাল বিতাবীশ?
‘তো হবে শুং করুং? এবা প্রশ্ননো প্রত্যুত্তর কহে ছে. ‘শিব’ শব্দথী বাচ্য এবো,
কেবলজ্ঞানদর্শনস্বভাবী জে আ নিজ শুদ্ধাত্মা ছে তেনো, ঘোর উপসর্গ অনে ঘোর পরিষহনো
প্রসংগ আবী পডবা ছতাং পণ, মেরুবত্ নিশ্চলপণে সংসর্গ কর (নিশ্চল ধ্যান কর), তেবা
নিশ্চলআত্মধ্যানথী তুং অনংতজ্ঞানাদি গুণোনুং স্থান এবা মোক্ষনে অবশ্য পামীশ, এবুং তাত্পর্য
ছে. ১৪১.
হবে, ‘শিব’ শব্দথী বাচ্য এবা স্বশুদ্ধাত্মানা সংসর্গনো ত্যাগ তুং ন কর, এম ফরীনে
পণ সংবোধে ছে.
कियन्तं कालं गमिष्यसि बहिर्मुखभावेन नयसि । तर्हि किं करोमीत्यस्य प्रत्युत्तरमाह ।
सिव-संगमु करि शिवशब्दवाच्यो योऽसौ केवलज्ञानदर्शनस्वभावस्वकीयशुद्धात्मा तत्र संगमं
संसर्गं कुरु । कथंभूतम् । णिच्चलउ घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि मेरुवन्निश्चलं तेन निश्चलात्म-
ध्यानेन अवसइं मुक्खु लहीसि नियमेनानन्तज्ञानादिगुणास्पदं मोक्षं लभसे त्वमिति
तात्पर्यम् ।।१४१।।
अथ शिवशब्दवाच्यस्वशुद्धात्मसंसर्गत्यागं मा कार्षीस्त्वमिति पुनरपि संबोधयति —
२७३) इहु सिव-संगमु परिहरिवि गुरुवड कहिँ वि म जाहि ।
जे सिव-संगमि लीण णवि दुक्खु सहंता वाहि ।।१४२।।
अविनाशी सुखके अनुभवसे रहित हुआ विषयोंमें लीन होकर कितने कालतक भटकेगा । पहले
तो अनंतकालतक भ्रमा, अब भी भ्रमणसे नहीं थका, सो बहिर्मुख परिणाम करके कब तक
भटकेगा ? अब तो केवलज्ञान दर्शनरूप अपने शुद्धात्माका अनुभव कर, निज भावोंका संबंध
कर । घोर उपसर्ग और बाईस परीषहोंकी उत्पत्तिमें भी सुमेरुके समान निश्चल जो आत्म – ध्यान
उसको धारण कर, उसके प्रभावसे निःसंशय मोक्ष पावेगा । जो मोक्ष – पदार्थ अनंतज्ञान,
अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्यादि अनंतगुणोंका ठिकाना है, सो विषयके त्यागसे अवश्य
मोक्ष पावेगा ।।१४१।।
आगे निजस्वरूपका संसर्ग तू मत छोड़, निजस्वरूप ही उपादेय है, ऐसा ही बार – बार
उपदेश करते हैं —