Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪৬৪ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১৫০
ভাবার্থ: — ত্রণ লোকমাং জেটলাং দুঃখো ছে তেটলাং দুঃখোথী বনেল হোবাথী আ দেহ
দুঃখরূপ ছে অনে পরমাত্মা তো ব্যবহারথী দেহমাং রহেলো হোবা ছতাং পণ নিশ্চযথী দেহথী
ভিন্ন হোবাথী অনাকুলতা জেনুং লক্ষণ ছে এবা সুখস্বভাববালো ছে. ত্রণ লোকমাং জেটলাং
পাপো ছে তেটলাং পাপোথী বনেল হোবাথী আ দেহ পাপরূপ ছে, অনে শুদ্ধ আত্মা তো
ব্যবহারথী দেহমাং রহেবা ছতাং পণ নিশ্চযথী পাপরূপ দেহথী ভিন্ন হোবাথী অত্যংত পবিত্র
ছে. ত্রণ লোকমাং জেটলা অশুচি পদার্থো ছে তেটলা অশুচি পদার্থোথী বনেল হোবাথী আ দেহ
অশুচিরূপ ছে অনে শুদ্ধ আত্মা তো ব্যবহারথী দেহমাং রহেলো হোবা ছতাং পণ নিশ্চযথী
দেহথী পৃথক্ভূত (অলগ, ভিন্ন, জুদো) হোবাথী অত্যংত নির্মল ছে.
অহীং, এ প্রমাণে দেহনী সাথে শুদ্ধ আত্মানো ভেদ জাণীনে নিরংতর (আত্ম) ভাবনা
করবী জোঈএ, এবুং তাত্পর্য ছে. ১৫০.
दुक्खइं इत्यादि । दुक्खइं दुःखानि पावइं पापानि असुचियइं अशुचिद्रव्याणि
ति-हुयणि सयलइं लेवि भुवनत्रयमध्ये समस्तानि गृहीत्वा एयहिं देहु विणिम्मियउ एतैर्देहो
विनिर्मितः । केन कर्तृभूतेन । विहिणा विधिशब्दवाच्येन कर्मणा । कस्मादेवंभूतो देहः कृतः
वइरु मुणेवि वैरं मत्वेति । तथाहि । त्रिभुवनस्थदुःखैर्निर्मितत्वात् दुःखरूपोऽयं देहः,
परमात्मा तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन देहाद्भिन्नत्वादनाकुलत्वलक्षणसुखस्वभावः ।
त्रिभुवनस्थपापैर्निर्मितत्वात् पापरूपोऽयं देहः, शुद्धात्मा तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन
पापरूपदेहाद्भिन्नत्वादत्यन्तपवित्रः । त्रिभुवनस्थाशुचिद्रव्यैर्निर्मितत्वादशुचिरूपोऽयं देहः, शुद्धात्मा
तु व्यवहारेण देहस्थोऽपि निश्चयेन देहात्पृथग्भूतत्वादत्यन्तनिर्मल इति । अत्रैवं देहेन सह
शुद्धात्मनो भेदं ज्ञात्वा निरन्तरं भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।।१५०।।
अथ —
भावार्थ : — तीन लोकमें जितने दुःख हैं, उनसे यह देह रचा गया है, इससे दुःखरूप
है, और आत्मद्रव्य व्यवहारनयकर देहमें स्थित है, तो भी निश्चयनयकर देहसे भिन्न
निराकुलस्वरूप सुखरूप है, तीन लोकमें जितने पाप हैं, उन पापोंसे यह शरीर बनाया गया
है, इसलिये यह देह पापरूप ही है, इससे पाप ही उत्पन्न होता है, और चिदानंद चिद्रूप जीव
पदार्थ व्यवहारनयसे देहमें स्थित है, तो भी देहसे भिन्न अत्यंत पवित्र है, तीन जगत्में जितने
अशुचि पदार्थ हैं, उनको इकट्ठेकर यह शरीर निर्माण किया है, इसलिये महा अशुचिरूप है,
और आत्मा व्यवहारनयकर देहमें विराजमान है, तो भी देहसे जुदा परम पवित्र है । इसप्रकार
देहका और जीवका अत्यंत भेद जानकर निरन्तर आत्माकी भावना करनी चाहिये ।।१५०।।
आगे फि र भी देहको अपवित्र दिखलाते हैं —