Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৫১ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৬৫
হবে, ফরী দেহনে অপবিত্র দর্শাবে ছে : —
ভাবার্থ: — হে যোগী! আ দেহ তো জুগুপ্সাযুক্ত ছে. জুগুপ্সা রহিত পরমাত্মানে
ছোডীনে দেহমাং রমণ করতাং তনে লজ্জা কেম আবতী নথী? ত্যারে হুং শুং করুং? এবা
প্রশ্ননো প্রত্যুতর আপে ছে. হে বিশিষ্ট ভেদজ্ঞানী! বীতরাগ সদানংদ জেনো এক স্বভাব
ছে তেবা পরমাত্মানে আর্তরৌদ্রাদি সমস্ত বিকল্পনা ত্যাগ বডে নির্মল করতো থকো তুং
‘নিশ্চযধর্ম’ শব্দথী বাচ্য এবা বীতরাগ চারিত্র দ্বারা (চারিত্রনে করীনে, চারিত্র বডে
অথবা চারিত্রমাং) প্রীতি কর. ১৫১.
२८२) जोइय देहु घिणावणउ लज्जहि किं ण रमंतु ।
णाणिय धम्में रइ करहि अप्पा विमलु करंतु ।।१५१।।
योगिन् देहः घृणास्पदः लज्जसे किं न रममाणः ।
ज्ञानिन् धर्मेण रतिं कुरु आत्मानं विमलं कुर्वन् ।।१५१।।
जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् देहु घिणावणउ देहो घृणया १दुगुञ्छया सहितः ।
लज्जहि किं ण रमंतु दुगुच्छारहितं परमात्मानं मुक्त्वा देहं रममाणो लज्जां किं न करोषि । तर्हि
किं करोमीति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति । णाणिय हे विशिष्टभेदज्ञानिन् धम्में निश्चयधर्मशब्दवाच्येन
वीतरागचारित्रेण कृत्वा रइ करहि रतिं प्रीतिं कुरु । किं कुर्वन् सन् । अप्पा
वीतरागसदानन्दैकस्वभावपरमात्मानं विमलु करंतु आर्तरौद्रादिसमस्तविकल्पत्यागेन विमलं निर्मलं
कुर्वन्निति तात्पर्यम् ।।१५१।।
गाथा – १५१
अन्वयार्थ : — [योगिन् ] हे योगी, [देहः ] यह शरीर [धृणास्पदः ] घिनावना है,
[रममाणः ] इस देहसे रमता हुआ तू [किं न लज्जसे ] क्यों नहीं शरमाता ? [ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी,
तू [आत्मानं ] आत्माको [विमलं कुर्वन् ] निर्मल करता हुआ [धर्मे ] धर्मसे [रतिं ] प्रीति
[कुरु ] कर ।
भावार्थ : — हे जीव, तू सब विकल्प छोड़कर वीतरागचारित्ररूप निश्चयधर्ममें प्रीति
कर । आर्त रौद्र आदि समस्त विकल्पोंको छोड़कर आत्माको निर्मल करता हुआ वीतराग
भावोंसे प्रीति कर ।।१५१।।
১ পাঠান্তর : — दुगुच्छया = जुगुप्सया