Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
৪৬৬ ]যোগীন্দুদেববিরচিত: [ অধিকার-২ : দোহা-১৫২
হবে, দেহথী স্নেহ ছোডাবে ছে : —
ভাবার্থ: — হে যোগী! শুচি দেহবালা অর্থাত্ পবিত্র স্বরূপবালা, নিত্য-আনংদ
জেনো এক স্বভাব ছে এবা শুদ্ধাত্মদ্রব্যথী বিলক্ষণ দেহনে তুং ছোড, কারণ কে দেহ সমীচীন
নথী.
‘তো হুং শুং করুং?’ এবো প্রশ্ন করবামাং আবতাং, প্রত্যুত্তর আপে ছে. কেবলজ্ঞাননী সাথে
অবিনাভূত অনংতগুণময এবা জ্ঞানথী রচাযেল, পূর্বোক্ত লক্ষণবালা আত্মানে তুং দেখ.
अथ —
२८३) जोइय देहु परिच्चयहि देहु ण भल्लउ होइ ।
देह-विभिण्णउ णाणमउ सो तुहुँ अप्पा जोइ ।।१५२।।
योगिन् देहं परित्यज देहो न भद्रः भवति ।
देहविभिन्नं ज्ञानमयं तं त्वं आत्मानं पश्य ।।१५२।।
जोइय इत्यादि । जोइय हे योगिन् देहु परिच्चयहि शुचिदेहान्नित्यानन्दैकस्वभावात्
शुद्धात्मद्रव्याद्विलक्षणं देहं परित्यज । कस्मात् । देहु ण भल्लउ होइ देहो भद्रः समीचीनो न
भवति । तर्हि किं करोमीति प्रश्ने कृते प्रत्युत्तरं ददाति । देह-विभिण्णउ देहविभिन्नं णाणमउ
ज्ञानेन निर्वृत्तं ज्ञानमयं केवलज्ञानाविनाभूतानन्तगुणमयं सो तुहुं अप्पा जोइ तं
आगे देहके स्नेहसे छुड़ाते हैं —
गाथा – १५२
अन्वयार्थ : — [योगिन् ] हे योगी, [देहं ] इस शरीरसे [परित्यज ] प्रीति छोड़,
क्योंकि [देहः ] यह देह [भद्रः न भवति ] अच्छा नहीं है, इसलिये [देहविभिन्नं ] देहसे भिन्न
[ज्ञानमयं ] ज्ञानादि गुणमय [तं आत्मानं ] ऐसे आत्माको [त्वं ] तू [पश्य ] देख ।
भावार्थ : — नित्यानंद अखंड स्वभाव जो शुद्धात्मा उससे जुदा और दुःखका मूल
तथा महान् अशुद्ध जो शरीर उससे भिन्न आत्माको पहचान, और कृष्ण, नील, कापोत
इन तीन अशुभ लेश्याओंको आदि लेकर सब विभावभावोंको त्यागकर, निजस्वरूपका
ध्यान कर । ऐसा कथन सुनकर शिष्यने पूछा, कि हे प्रभो, इन खोटी लेश्याओंका क्या
स्वरूप है ? तब श्रीगुरु कहते हैं — कृष्णलेश्याका धारक वह है, जो अधिक क्रोधी होवे,
कभी बैर न छोड़े, उसका बैर पत्थरकी लकीरकी तरह हो, महा विषयी हो, परजीवोंकी