Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৫৫ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৭১
ভাবার্থ: — বীতরাগ স্বসংবেদনরূপ জ্ঞান সিবায স্বশুদ্ধাত্মানো জ্ঞানথী ভিন্ন স্বভাব
নথী. আত্মানো আ শুদ্ধাত্মজ্ঞান স্বভাব জাণীনে হে যোগী! পরমাং-আত্মাথী বিলক্ষণ পর এবাং
দেহমাং, রাগাদি ন কর.
অহীং, আত্মানুং শুদ্ধাত্মজ্ঞানস্বরূপ জাণীনে অনে রাগাদিনো ত্যাগ করীনে নিরংতর ভাবনা
(আত্মভাবনা) করবী জোঈএ, এবো অভিপ্রায ছে. ১৫৫.
হবে, নিজ আত্মানী প্রাপ্তি মাটে চিত্তনে স্থির করবানো পরম উপদেশ পাংচ গাথাওথী
দর্শাবে ছে : —
२८६) अप्पहँ णाणु परिच्चयवि अण्णु ण अत्थि सहाउ ।
इउ जाणेविणु जोइयहु परहँ म बंधउ राउ ।।१५५।।
आत्मनः ज्ञानं परित्यज्य अन्यो न अस्ति स्वभावः ।
इदं ज्ञात्वा योगिन्् परस्मिन्् मा बधान रागम्् ।।१५५।।
अप्पहं इत्यादि । अप्पहं १शुद्धात्मनः णाणु परिच्चयवि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानं त्यक्त्वा
अण्णु ण अत्थि सहाउ अन्यो ज्ञानाद्विभिन्नः स्वभावो नास्ति इउ जाणेविणु इदमात्मनः
शुद्धात्मज्ञानं स्वभावं ज्ञात्वा जोइयहु भो योगिन् परहं म बंधउ राउ परस्मिन्् शुद्धात्मनो
विलक्षणे देहे रागादिकं मा कुरु तस्मात् । अत्रात्मनः शुद्धात्मज्ञानस्वरूपं ज्ञात्वा रागादिकं
त्यक्त्वा च निरन्तरं भावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ।।१५५।।
अथ स्वात्मोपलम्भनिमित्तं चित्तस्थिरीकरणरूपेण परमोपदेशं पञ्चकलेन दर्शयति —
गाथा – १५५
अन्वयार्थ : — [आत्मनः ] आत्माका निजस्वभाव [ज्ञानं परित्यज्य ] वीतराग
स्वसंवेदनज्ञानके सिवाय [अन्यः स्वभावः ] दूसरा स्वभाव [न अस्ति ] नहीं है, आत्मा
केवलज्ञानस्वभाव है, [इदं ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर [योगिन् ] हे योगी, [परस्मिन् ] परवस्तुसे
[रागम् ] प्रीति [मा बधान ] मत बाँध ।
भावार्थ : — पर जो शुद्धात्मासे भिन्न देहादिक उनमें राग मत कर, आत्माका
ज्ञानस्वरूप जानकर रागादिक छोड़के निरंतर आत्माकी भावना करनी चाहिये ।।१५५।।
आगे आत्माकी प्राप्तिके लिय चित्तको स्थिर करता, ऐसा परम उपदेश श्रीगुरु दिखलाते
हैं —
১. পাঠান্তর : — शुद्धात्मनः = स्वशुद्धात्मनः