Shri Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust, Songadh - 364250
শ্রী দিগংবর জৈন স্বাধ্যাযমংদির ট্রস্ট, সোনগঢ - ৩৬৪২৫০
অধিকার-২ : দোহা-১৬৪ ]পরমাত্মপ্রকাশ: [ ৪৮৫
अथ —
२९५) जो आयासइ मणु धरइ लोयालोय-पमाणु ।
तुट्टइ मोहु तडत्ति तसु पावइ परहँ पवाणु ।।१६४।।
यः आकाशे मनो धरति लोकालोकप्रमाणम् ।
त्रुटयति मोहो झटिति तस्य प्राप्नोति परस्य प्रमाणम् ।।१६४।।
जो इत्यादि । जो यो ध्याता पुरुषः आयासइ मणु धरइ यथा परद्रव्य-
संबन्धरहितत्वेनाकाशमम्बरशब्दवाच्यं शून्यमित्युच्यते तथा वीतरागचिदानन्दैकस्वभावेन
भरितावस्थोऽपि मिथ्यात्वरागादिपरभावरहितत्वान्निर्विकल्पसमाधिराकाशमम्बरशब्दवाच्यं शून्य-
मित्युच्यते । तत्राकाशसंज्ञे निर्विकल्पसमाधौ मनो धरति स्थिरं करोति । कथंभूत मनः ।
হবে, ফরী নির্বিকল্প সমাধিনুং কথন করে ছে : —
ভাবার্থ : — জেবী রীতে পরদ্রব্যনা সংবংধথী রহিত হোবাথী ‘অংবর’ শব্দথী বাচ্য
আকাশনে ‘শূন্য’ কহেবায ছে তেবী রীতে এক (কেবল) বীতরাগ চিদানংদমযস্বভাবথী পরিপূর্ণ
হোবা ছতাং মিথ্যাত্ব, রাগাদি পরভাবোথী রহিত হোবাথী ‘অংবর’ শব্দথী বাচ্য আকাশনে
-নির্বিকল্প সমাধিনে-শূন্য কহেবামাং আবে ছে. তে আকাশ জেনী সংজ্ঞা ছে এবী নির্বিকল্প সমাধিমাং
क्योंकि जब विभावोंकी शून्यता हो जावेगी तब वस्तुका ही अभाव हो जाएगा ।।१६३।।
आगे फि र निर्विकल्पसमाधिका कथन करते हैं —
गाथा – १६४
अन्वयार्थ : — [यः ] जो ध्यानी पुरुष [आकाशे ] निर्विकल्पसमाधिमें [सनः ] मन
[धरति ] स्थिर करता है, [तस्य ] उसीका [मोहः ] मोह [झटिति ] शीघ्र [त्रुटयति ] टूट
जाता है, और ज्ञान करके [परस्य प्रमाणम् ] लोकालोकप्रमाण आत्माको [प्राप्नोति ] प्राप्त हो
जाता है ।
भावार्थ : — आकाश अर्थात् वीतराग चिदानंद स्वभाव अनंत गुणरूप और मिथ्यात्व
रागादि परभाव रहित स्वरूप निर्विकल्पसमाधि यहाँ समझना । जैसे आकाशद्रव्य सब द्रव्योसें
भरा हुआ है, परंतु सबसे शून्य अपने स्वरूप है, उसी प्रकार चिद्रूप आत्मा रागादि उपाधियोंसे
रहित है, शून्यरूप है, इसलिए आकाश शब्दका अर्थ यहाँ शुद्धात्मस्वरूप लेना । व्यवहारनयकर